पिछले 10 महीनों से लगातार चले आ रहे रूस-यूक्रेन संघर्ष के बीच शान्ति समझौते की संभावनाओं के एक बार फिर से झटका लगा है। यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर ज़ेलेंस्की ने रूस के साथ शान्ति समझौते के लिए पाँच शर्तें सामने रख दी हैं। ये शर्तें उस समय में आई हैं जब, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, परमाणु हथियारों के प्रयोग की धमकी तक दे चुके हैं।
रूस-यूक्रेन संघर्ष इस साल फरवरी माह से जारी है। इस बीच रूस, यूक्रेन के कई इलाकों को अपने अधिकार में ले चुका है। यूक्रेन की सेनाएँ अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की सहायता लेकर भी अपने क्षेत्र को वापस हासिल करने में सफल नहीं हो पा रही हैं।
हालाँकि, वे रूस को देश की राजधानी कीव से दूर रखने में कामयाब रही हैं। इस बीच भारत ने इस संघर्ष पर अपनी स्थिति फिर से स्पष्ट की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से शंघाई सहयोग संगठन की उज्बेकिस्तान बैठक में कहा भी था कि यह समय युद्ध का नहीं है।
भारत के विदेश मंत्री भी इस समय रूस के दो दिवसीय दौरे पर हैं। जहाँ वह रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के साथ हुई द्विपक्षीय वार्ता में शामिल हुए। जयशंकर ने भी दोनों पक्षों के आपसी विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने की बात कही है।
क्या है जमीनी स्थिति?
रूस-यूक्रेन संघर्ष की शुरुआत से ही दोनेत्स्क और लोहान्स्क नाम के प्रदेश संघर्ष का सबसे बड़ा कारण रहे हैं। अगर वर्तमान में जमीनी स्थिति के नियन्त्रण की बात की जाए तो रूस ने अभी भी यूक्रेन के एक बड़े हिस्से पर नियन्त्रण कायम रखा है।
यूक्रेनी सेनाओं को सफलता जरूर मिली है पर कई इलाकों में रूसी सेनाएं मजबूती से जमी हुई हैं। अमेरिकी थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ वॉर के मुताबिक़, वर्तमान में रूस ने दोनेत्स्क और खेरसोन नाम के प्रान्तों को पूरी तरह से अपने अधिकार में ले रखा है। वहीं खारकीव और कुपिआन्स्क के क्षेत्रों में लगातार यूक्रेनी सेनाएं वापसी जवाब का दावा कर रहीं हैं।
क्या हैं ज़ेलेंस्की और रूस की शर्तें?
रूस से संघर्ष के बीच यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने रूस से शांति वार्ता के लिए पांच कठिन शर्तें रूस के सामने रख दी हैं। इनका पूरा होना वर्तमान की परिस्थितयों के अनुसार असम्भव प्रतीत होता है। ज़ेलेंस्की की शर्ते रूस द्वारा रखी गई शर्तों के बिलकुल उलट हैं। जिनके लिए रूस के किसी भी समझौते में जाने की स्थिति कम ही दिखाई देती है।
राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने रूस के द्वारा अधिकार में ली गई जमीन को वापस यूक्रेन के क्षेत्राधिकार के लाने, संयुक्त राष्ट्र के फैसलों को मानने, संघर्ष के दौरान हुए सभी नुकसानों की भरपाई करने, युद्ध अपराधियों को सजा देने और इस बात की गारंटी देने की बात कही कि ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं होंगीं।
ज़ेलेंस्की ने भले ही ये शर्तें रख दी हों पर रूस द्वारा रखी गई शर्तें इसके बिलकुल विपरीत हैं। रूस ने पूर्व में यूक्रेन के हिस्से रहे क्रीमिया को रूस का अभिन्न भाग मान कर मान्यता देने, रूस द्वारा अधिकार में लिए गए क्षेत्रों को रूसी सम्प्रभुत्व का इलाका मानने और नई सीमाएं स्थापित करने की मांग की है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच शांति बहुत मुश्किल लगती है।
यूक्रेन का जोर शांति की अपेक्षा अपने इलाके वापस लेने पर अधिक
यूक्रेन का जोर सैन्य कार्रवाई से इलाके वापस लेने पर है। यूक्रेन को लगातार पश्चिमी देशों और अमेरिका की तरफ से बड़ी मात्रा में हथियार दिए जा रहें है। इसके अतिरिक्त अन्य सहायता भी लगातार यूक्रेन को मिल रही है। यूक्रेन का यह मानना है कि वह सैन्य कार्रवाई से इलाके फिर से अपने अधिकार में ले सकता है।
हालाँकि, अमेरिका एवं अन्य साथी देश घरेलू स्तर पर बढ़ती महंगाई और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। वह चाहते हैं कि दोनों देशों को अब कूटनीति के जरिए इस मुद्दे को सुलझाना चाहिए।
वर्तमान में अमेरिका में मध्यावधि चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों का यूक्रेन और अमेरिका समबन्धों पर बड़ा असर पड़ने वाला है। इन चुनावों के नतीजों से यह साफ़ हो जाएगा की अमेरिकी कॉन्ग्रेस (संसद) में किसका बहुमत रहेगा। अमेरिकी प्रशासन द्वारा यूक्रेन को कोई भी सहायता देने से पहले कॉन्ग्रेस की सहमति लेनी पड़ती है।
ऐसे में यदि अमेरिकी कॉन्ग्रेस में रिपब्लिकन (ट्रम्प का दल) का बहुमत हो जाता है तो वह इस बात के लिए जोर दे सकते हैं कि यूक्रेन बातचीत से मुद्दे को सुलझाए। वहीं यह चर्चा भी है कि अमेरिकी विदेश विभाग के उच्च अधिकारी लगातार रूस से सम्पर्क में हैं और पिछले दरवाजे से बातचीत का रास्ता खोज रहे हैं।
रूस-यूक्रेन संघर्ष पर भारत का स्पष्ट रुख- हमारा समर्थन कूटनीति को
भारत ने लगातार इस मामले पर कहा है कि दोनों देश शांति और कूटनीति के जरिए अपने विवाद सुलझाएं। भारत संघर्ष के बाद से लगातार पश्चिमी दबाव के बाद भी रूस से तेल खरीदता रहा है। यूक्रेन से भी भारत के अच्छे सम्बन्ध हैं। इसीलिए भारत ने संतुलित तरीके से दोनों पक्षों की चिंताओं को समझा है।
रूस, भारत का बहुत पुराना दोस्त है। रूस लगातार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की वकालत करता रहा है। भारत के सैन्य हथियारों में रूसी हथियारों की संख्या बहुत बड़ी है। यूक्रेन में भी भारत के हजारों छात्र मेडिकल की पढाई करते रहे हैं। भारत के कई हथियारों के कल-पुर्जों का आपूर्तिकर्ता भी यूक्रेन रहा है इसलिए किसी एक का पक्ष लेना भारत के हित में नहीं होता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से शंघाई सहयोग समिति की बैठक के दौरान शांति की अपील की थी जिसे पश्चिमी जगत ने सराहा भी था। भारत ने खुले तौर पर रूस की निंदा नहीं की है। प्रधानमंत्री ने यूक्रेन के राष्ट्रपति से बातचीत में सहयोग की भी बात की है।
क्या है रूस-यूक्रेन संघर्ष में शांति की संभावना?
वर्तमान परिस्थियों के अनुसार अगर देखा जाए तो दोनों देशों के बीच शांति की उम्मीद बहुत कम है। दोनों देश की सेनाएं लगातार नई जमीन कब्जाने का दावा कर रही हैं। अब इन दावों के बीच शांति की बात करते हुए ज़ेलेंस्की का शर्तें सामने रखना इस उम्मीद को और धुंधला कर रहा है।
जहाँ रूस बिलकुल भी पीछे हटने को तैयार नहीं है, वहीं यूक्रेन लगातार यह मांग कर रहा है कि उसके रूस द्वारा कब्जाए गए इलाके वापस दिए जाएं। यूरोपियन देशों का रुख भी इसमें बड़ी भूमिका अदा करने वाला है। रूस पर पश्चिमी देशों और अमेरिका ने कड़े प्रतिबंध लगा रखे हैं। रूस शांति के बदले में इन प्रतिबंधों में ढील की मांग कर सकता है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि जब तक वैश्विक शक्तियां अपने रणनीतिक फायदों के लिए इस संघर्ष का इस्तेमाल करती रहेंगी तब तक इस संघर्ष का अंत नहीं नजर आता है। दोनों पक्ष एक दूसरे के ऊपर विश्वास नहीं होने की बात कर रहे हैं। दोनों पक्षों को विश्वास में लेकर अगर बातचीत की जाए तो इसका कुछ हल निकल सकता है जो कि अभी की परिस्थितयों में फलित होता जान नहीं पड़ता है।