किसी भी तरह की राजनीति के दो पक्ष होते हैं, एक होता है विधायी पक्ष जिसके अंतर्गत चुने हुए नेता देश के संविधान के अनुरूप कानून बनाने और कानूनों में संशोधन करने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं। ये राजनीति का शुष्क पक्ष है और इसको समझने के लिए जिस विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, उसको पाने में जवानी गुजर जाती है, तो खाने कमाने में फंसा आदमी इस पक्ष से दूर ही रहता है। राजनीति का दूसरा पक्ष है, सड़क छाप भावनात्मकता जो रसीला पक्ष है, जो सामान्य आदमी को फंसाने के काम आता है, और नेता कानून की बारीकियां समझें या न समझें, जन भावना को कैसे उपयोग में लाना है, बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। सामान्य नागरिक भावना को भी खूब समझता है और नेता उसकी भावना का उपयोग कर रहे हैं, इस बात को भी खूब समझता है लेकिन फिर भी भावनाओं के मनोविज्ञान में फंस कर एक नेता से दूसरे नेता के बीच में झूलता जिंदगी बिता देता है। क्या सही में आम आदमी ऐसा ही होता है? क्या आम आदमी के पास कोरी भावना और किसी ठोस मुद्दे जिसको भावनात्मक तरीके से उठाया जा रहा है, के बीच अंतर कर पाने की काबिलियत नहीं होती? इस सवाल से ही राजनीति में दूसरे पक्ष की भूमिका शुरू होती है कि वो जनता को कितने अच्छे तरीके से कोरी भावना और ठोस मुद्दे के बीच फर्क करना समझा पा रहा है। इसीलिए राजनीतिक सम्प्रेषण किसी भी व्यवस्था में सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा माना जाता है।
देश पिछले एक दशक से आंदोलन ही आंदोलन देख रहा है। अन्ना आंदोलन, अवार्ड वापसी आंदोलन, नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन और अब पहलवान आंदोलन। सारे आंदोलनों की अपनी-अपनी विशेषता रही और पहलवान आंदोलन की भी अपनी विशेषता है, और इससे जुडी भावनाओं और ठोस सरोकारों को समझने की जरूरत है। इस आंदोलन की कहानी ये है कि सत्ताधारी दल के एक सांसद पर कुछ पहलवानों ने, जो अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता भी हैं, यौन शोषण का आरोप लगाया और धरने पर इसलिए बैठे क्योंकि उनके अनुसार सरकार उक्त सांसद को गिरफ्तार करके जेल नहीं भेज रही थी। मांगें न मानी जाने पर नए संसद भवन के अनावरण के दिन जंतर-मंतर पर धरनारत पहलवान नए संसद भवन के सामने किसान या खिलाडी पंचायत जैसा कुछ करना चाहते थे, जिसके लिए पंजाब और हरियाणा से भारी संख्या में लोग दिल्ली आने के लिए तैयार थे। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार ने बलपूर्वक पहलवानों का धरना समाप्त करवा दिया और पहलवानों के ऊपर उपयुक्त धाराओं में मुक़दमा भी कायम कर दिया। धरनारत पहलवानों और विपक्ष ने सरकार के कारनामे को संवेदनहीनता कहा और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अर्जित मेडल हरिद्वार में गंगा मैया में समर्पित करने का फैसला किया लेकिन दैवीय कृपा से भारतीय किसान यूनियन के पदाधिकारी टिकैत बंधुओं ने पहलवानों को मेडल गंगा में विसर्जित करने से रोक लिया और सरकार को फिर पांच दिन का समय दिया है, जिसके बाद पहलवान अपना मेडल गंगा मैया या जिस नदी नाले के चाहें सुपुर्द कर सकते हैं, या अपने करतब पर पुनर्विचार करके शांतिपूर्वक न्यायालय के फैसले का इन्तजार कर सकते हैं, क्योंकि मामला अब न्यायालय में है।
यौन शोषण एक गंभीर मुद्दा है और पहलवानों को पदक विसर्जित करना पड़ रहा है, वो भी एक यौन शोषण के आरोपी सांसद की गिरफ्तारी न होने के कारण, ये भी गंभीर मुद्दा है। इस पूरी कहानी में भावनाएं हावी हैं लेकिन पूरे प्रकरण में प्रासंगिक मुद्दों की उपस्थिति से भी शायद ही कोई इंकार कर पाएगा। इस लेख का उद्देश्य भावना के उफान को हटा कर इन गंभीर मुद्दों की पड़ताल करना ही है तो एक-एक करके मुद्दों को हम समझने की कोशिश करेंगे। हालाँकि इसमें राजनीति के शुष्क माने जाने वाले पक्ष पर ज्यादा ध्यान दिया गया है, लेकिन ऐसा विश्वास है कि लोग थोड़ी शुष्कता बर्दाश्त कर लेंगे।
यौन शोषण का आरोप और सरकार की ऐसे मामलों में भूमिका की पड़ताल
सबसे पहले ये सोचने का विषय है कि इस मामले में सरकार की भूमिका कितनी है और है भी कि नहीं। सरकार ने पहले ही इस मामले में खिलाडियों की एक समिति बना दी थी, जिसकी रिपोर्ट को धरनारत पहलवानों ने नकार दिया। अब इस मामले को एक साधारण मामले की तरह देखने की कोशिश करते हैं और तय करते हैं कि सरकार के पास क्या विकल्प हैं।
अगर आपके या किसी और के साथ कोई अपराध होता है तो क्या हम मुख्यमंत्री और विधायक के पास जाते हैं, या पुलिस और अदालत के पास? जाहिर है कि हम पहले पुलिस के पास जाते हैं और अगर पुलिस हमारे मामले का संज्ञान नहीं लेती तो हमारे पास अदालत में जाने का रास्ता खुला है। सरकार के पास तब जाया जाता है जब पुलिस और अदालत ने मामला दर्ज़ करने से मना कर दिया हो। इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि हिन्दुस्तान में पुलिस मामले दर्ज़ नहीं करना चाहती। वास्तव में हिंदुस्तान में कोई सरकारी महकमा काम नहीं करना चाहता और पुलिस एक सरकारी महकमा है। लेकिन ये भी ध्यान रखना चाहिए कि शिकायत करने वाले लोग कोई सामान्य लोग नहीं हैं, अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में मेडल जीते लोग हैं जिनको देश के प्रधानमंत्री ने व्यक्तिगत दावत देकर शाबाशी दी है। ये आप तय करें कि ऐसे लोगों के साथ पुलिस आज सोशल मीडिया के युग में ऐसा बर्ताव कर सकती है क्या कि उनका मुक़दमा लिखने से मना कर दे।
चलिए मान लिया कि पुलिस ने मुक़दमा नहीं लिखा तो अदालतों का रास्ता खुला है और किसी भी जिला कचहरी में किसी भी वकील के माध्यम से कोई भी व्यक्ति मुक़दमा लिखे जाने का निर्णय देने के लिए जा सकता है। क्या पहलवानों ने ऐसा किया? जवाब है नहीं। पहलवान शायद चाहते थे कि उनका मुक़दमा लिखने का निर्णय सीधे देश का उच्चतम न्यायालय ले, जो कि उच्चतम न्यायालय ने किया। इस सवाल को मैं छोड़ देता हूं कि उच्चतम न्यायालय की सेवा लेने के लिए धरने पर बैठने वाले जिला कचहरी की सेवाएं क्यों नहीं लेना चाहते थे। शायद अंतरराष्ट्रीय पहलवानों को जिला कचहरी के न्यायालयों पर भरोसा न हो और ये आश्चर्य की बात नहीं है।
इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की क्या भूमिका है और सरकार कौन सी भूमिका निभाने से चूकी, ये समझ के बाहर है।
अब आते हैं सांसद की गिरफ़्तारी के प्रश्न पर। इसके लिए मैं ऐसे ही एक और प्रकरण की तरफ ध्यान खींचना चाहता हूं। असम की एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने कुछ दिन पहले ही कांग्रेस के महासचिव श्रीनिवास बीबी पर यौन शोषण का आरोप लगाया और जैसी उम्मीद थी, असम पुलिस ने मामला दर्ज़ करके उनकी गिरफ़्तारी का वारंट जारी कर दिया। श्रीनिवास बीबी जो सिर्फ एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता थे, न्यायालय की शरण में गए और न्यायालय ने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी। अब कोई ये बता पाए तो बताए कि जो न्यायिक सुविधा एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के लिए उपलब्ध है, वो सुविधा एक सांसद के लिए क्यों नहीं उपलब्ध होगी? चलिए ये मान लेते हैं कि असम की उक्त महिला क्योंकि नेता है और नेता एक दूसरे के ऊपर ऐसे आरोप लगाते रहते हैं, इसलिए वो झूठा आरोप ही लगा रही होगी। लेकिन फिर सवाल ये उठता है कि पहलवानों को सत्यवादी होने का सर्टिफिकेट कहां से मिला हुआ है? ध्यान दीजिए कि न्यायालय भी कठघरे में खड़े आदमी को दोषी सिद्ध होने तक अपराधी नहीं मानता, मतलब न्याय व्यवस्था भी ये मान कर चलती है कि आरोप लगाने वाला झूठा हो सकता है।
अब इस व्याख्या के आलोक में कोई ये समझाए कि बीजेपी ने क्या भांग खा रखी है जो पहलवानों के कहने पर अपने ही सांसद को गिरफ्तार करने का आदेश दे, जिस पर कोई न्यायालय रोक लगा दे और बीजेपी बेइज्जत भी हो और सांसद से भी जाए। श्रीनिवास बीबी के साथ इसीलिए तो कांग्रेस अपने वकीलों की सेना लेकर खड़ी रही तो वो सहूलियत बीजेपी को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?
एक और मुद्दा महिला और बेटी के सम्मान का है तो महिला पहलवानों को देश की अधिक बेटी माना जाए क्योंकि उनके हरियाणवी मामा-चाचा देश के बक्कल तार देते हैं और दिल्ली जाने वाली सड़कों को बंद कर देते हैं? इसके विपरीत असम की महिला नेत्री देश की कम बेटी है क्योंकि असमियों ने अभी भाजपाइयों और कांग्रेसियों के बक्कल तारने की धमकी देना और चिकन नेक कहे जाने वाले हिस्से को धरना कर के बंद करना नहीं शुरू किया है। लेकिन फिर इन पहलवानों में से कुछ पर सिनेमा बना है जो इनकी बड़ी उपलब्धि को रेखांकित करता है, असम की उस बेटी को अभी भी अपनी पिक्चर के लिए निर्माता-निर्देशक का इंतजार है। अगर तर्क सिनेमा का है तो मेरे पास कहने को कुछ नहीं है।
क्या देश का मान सम्मान बढ़ाने वाले को अतिरिक्त अधिकार मिल जाता है?
पान सिंह तोमर का नाम सुना है आपने? देश के लिए दौड़ता था, डाकू बन गया। सिनेमा अपराध को भी कैसे महिमामंडित करता है, ये देखना हो तो पान सिंह तोमर पर बनी फिल्म देखिए। पान सिंह तोमर का तर्क यही था कि देश ने उसके कारनामों का उचित सम्मान नहीं किया, उलटे उसके रिश्तेदारों ने उसकी जमीन हड़प ली इसलिए वो डाकू बन गया। पान सिंह तोमर ने तुरंत निर्णय ले लिया कि देश की व्यवस्था ने उसके साथ अन्याय किया है लेकिन क्या उसने व्यवस्था के सभी दरवाजे खटखटाए? हालांकि सिनेमा बनाने वाले ऐसे महीन प्रश्नों में परेशान नहीं होते लेकिन क्या किसी ने ध्यान दिया कि पान सिंह तोमर अपने चचेरे भाई के परिवार की हत्या के साथ रुका नहीं, उसने और भी हत्याएं की? कुछ हत्याएं तो उसने मुखबिर होने के शक में कीं। वो खुद में राज्य बन गया। वही शासन, वही जज और वही व्यवस्था। पान सिंह तोमर भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद के जैसा था। वो उतने में ही संतुष्ट था, उसने गांधी बनने की कोशिश नहीं की। शायद उसको गांधी के बारे में पता नहीं था और सिनेमा के अनुसार उसके आदर्श उसके मामा थे जिनको पुलिस कभी पकड़ न पाई। भगत सिंह के पास तो तब क्रन्तिकारी कहलाने का अवसर था, पान सिंह के पास नहीं था। मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि पान सिंह आज़ादी के पहले हुआ होता तो भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसा प्रसिद्ध क्रन्तिकारी हुआ होता। पान सिंह डाकू होकर मरा और उसका इतिहास डाकू की तरह ही लिखा जायेगा। गांधी होना मुश्किल है क्योंकि गांधी व्यवस्था के साथ बिता सकता था और इसलिए वो व्यवस्था बदल सकता था और इसीलिए वो गांधी था। भगत सिंह भी व्यवस्था तभी बदल पाए जब वो गांधी के तरीके पर चले। भगत सिंह को उसी गांधीवाद ने अमर किया।
अब आते हैं पहलवानों के सवाल पर। इन पहलवानों को मौका मिला क्योकि देश ने इनको मौका देने लायक समझा। जो पहलवान इनके पहले गए थे उनको भी देश ने इस लायक समझा था कि वो देश का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कर सकें। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इनके पहले गए पहलवानों को पदक मिले या नहीं। क्या इन पहलवानों को उन सभी पहलवानों के नाम याद हैं जो देश की तरफ से पहलवानी के मुकाबले लड़ने गए और खाली हाथ लौट आए? क्या उन पहलवानों में से कोई आगे आया और उसने ये कहा कि अगर हमको भी इतनी सुविधाएं मिली होती तो हम भी पदक लाए होते? पदक जीतना मौके की बात है और इसके लिए सभी पदक जीतने वाले प्रशंसा के पात्र हैं लेकिन पदक जीतने से भी बड़ी बात है कि देश ने कई लोगों के ऊपर आपको इस लायक समझा कि आप देश के प्रतिनिधि बन सकें। धरने पर बैठे इन पहलवानों का दम्भ तो इस हद तक था कि इनमें से एक ने कहा कि यहां धरने पर जो बैठा है उसमें से कोई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं लेगा। सब सीधे ओलिंपिक खेलने जाएंगे का दम्भ जैसे सिर्फ धरने पर बैठे लोग ही अखाड़े में पसीना बहा रहे हों। ये तो ऐसे ही है कि गांधी सरनेम वाले कुछ भी कर सकते हैं और उनके सामने किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का कोई मतलब ही नहीं है इसीलिए देश ने एक गांधी सरनेम वाले को इस लायक ही नहीं छोड़ा कि संसद भी जा सके। यही दम्भ पान सिंह तोमर का भी था। पान सिंह तोमर का भी यही मानना था कि देश के लिए उसने पदक जीता है इसलिए उसको विशिष्ट सुविधा मिलनी चाहिए। पान सिंह तोमर के पहले क्या किसी धावक के साथ व्यवस्था ने अन्याय नहीं किया क्या? कितने धावकों ने अपराधी बनने का रास्ता अपनाया?
ये खुला प्रश्न है जो सिर्फ पहलवानों के लिए नहीं बल्कि उन सभी के लिए प्रासंगिक है जो देश द्वारा दिए गए मौके को देश पर किए गए अहसान की तरह प्रस्तुत करते हैं। लोग ये भूल जाते हैं कि देश सड़क से उठाकर जिसको चाहेगा उसको कुश्ती लड़ा देगा और इस देश के सामूहिक प्रयास का इतना सम्मान रहा है कि कोई भी अंतरराष्ट्रीय मंच इस देश के भेजे प्रतिनिधि को न नहीं बोल सकता।
देश का प्रतिनिधित्व करते हुए जो पदक जीते गए वो किसके?
इस देश में बहुत से प्रतिभाशाली लोग हैं, हमेशा थे, और हमेशा होते रहेंगे। लेकिन ऐसे प्रतिभाशाली लोग विरले मिलेंगे जिन्होंने राज्य या देश की सहायता के बिना कुछ किया हो। जिन भी लोगों को महानता ओढ़ाई जाती है उसमें देश का और राज्य का अभिन्न योगदान है। जिन लोगों ने किसी ज़माने में अवार्ड वापसी आंदोलन चलाया, उनमें से किसी की राज्य की सहायता बिना कुछ कर पाने की हैसियत थी, ये देखना हो तो अवार्ड वापसी करने वालों को मिली राजकीय सहायता का ब्यौरा मांग सकता है और पता चल जाएगा कि लोग भारत रत्न, पद्म श्री और पद्म भूषण कैसे बने या कैसे देश ने इनको ये सारे अभिमान जुटाने का मौका दिया? इनका रोल मात्र इतना था कि इन्होंने मिले मौके का सदुपयोग किया वरना ऐसे पहलवान भी हैं जो हत्या के आरोप में जेल काट रहे हैं।
हड़ताली पहलवान जब जंतर-मंतर के धरने से पुलिस द्वारा हटा दिए गए तो इन पहलवानों ने अपने मेडल हरिद्वार जाकर गंगा में प्रवाहित करने की घोषणा की और दिन भर चले नाटक के बाद किसान आंदोलन के एक नेता नरेश टिकैत ने जाकर पहलवानों को ऐसा करने से रोका और सरकार को इस मामले पर निर्णय लेने के लिए अतिरिक्त ५ दिनों की मोहलत दी। जैसा कि पहले ही कहा गया कि ऐसे मामले में सरकार कहीं से भी निर्णय लेने की स्थिति में ही नहीं है लेकिन देखते हैं आगे होता क्या है। लेकिन पहलवानों के इस निर्णय ने इस सवाल को जन्म दिया कि सरकार के संसाधनों पर ये पहलवान जो मेडल जीत कर लाए हैं उन पर किसका अधिकार है। निश्चित तौर पर पहलवानों ने मेहनत की होगी, पसीना बहाया होगा लेकिन क्या इतना मेडल के निजीकरण के लिए पर्याप्त है।
सरकार की किसी प्रयोगशाला में जो वैज्ञानिक अपनी जवानी गला रहे हैं उनके द्वारा विकसित किया गए राकेट या इंजन की टेक्नोलॉजी पर किसका हक़ होता है? क्या सरकार से पूछे बिना कोई वैज्ञानिक राकेट टेक्नोलॉजी पर पेपर छाप सकता है? जवानी गला कर आधे दशक तक डॉक्टरेट की डिग्री अर्जित करने वाले शोधार्थी की डॉक्टोरल थीसिस या पेटेंट पर किसका मालिकाना हक़ होता है? निश्चित तौर पर छात्र के पास सर्टिफिकेट है और वो थीसिस को अपना बता सकता है लेकिन निजी हक़ का दावा शायद ही कर सकता है। उस थीसिस पर संस्थान का उतना ही हक़ है जितना छात्र का। निजी कंपनियों में तो शोध पर शोधार्थी का कोई हक़ ही नहीं होता और वो शोध बेचने वाले विक्रेता की तरह होता है। यह केवल शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र की ही बात नहीं है बल्कि कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां अपनी बौद्धिक संपत्ति सरकार या जो संस्था सहयोग कर रही है, के साथ साझा करनी पड़ती है या निजी क्षेत्र को बेचनी पड़ती है क्योंकि लोगों के पास संसाधन पर्याप्त नहीं होते। संसाधनों की कमी का प्रतिभा, मेहनत और त्याग से कोई लेना देना नहीं है और बहुत सी प्रतिभाएं संसाधनों की कमी से ख़त्म हो जाती हैं। १५० करोड़ लोगों के इस देश में मौका मिलने पर प्रतिभाओं की कमी नहीं है, संसाधनों की है और इसलिए किसी को अगर मौका मिल रहा है तो वो देश के ऊपर एहसान नहीं कर रहा बल्कि उसको इस देश का शुक्रगुजार होना चाहिए कि देश ने उसको मौका दिया और संसाधन मुहैया करवाए। देश के संसाधनों का उपयोग करके लाए गए मेडल का निजीकरण करना वैसे ही है जैसे इस देश के पहले प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री होने के कारण मिले एक उपहार को निजी छड़ी बताकर संग्रहालय में रखवा दिया। इसको भ्रष्ट्राचार कहते हैं।
पहलवानों की मेडल गंगा में विसर्जित करने की वारदात उनकी कुलीनता का दम्भ और देश के प्रति उनकी कृतघ्नता को प्रदर्शित करती है।
अंत में उम्मीद है कि सभी पक्ष संविधान में वर्णित न्यायिक प्रक्रिया का पालन करेंगे और न्यायिक तंत्र के आदेश का इंतजार करेंगे। इस देश में जब संवैधानिक व्यवस्थाओं पर संकट था तब सफल आंदोलन खड़े हुए और व्यवस्थाएं बदलीं। व्यवस्था को तोड़ने मरोड़ने का प्रयास सफल नहीं होने वाला है। पहलवानों के आंदोलन से जो न्यायोचित बात निकल कर आती है वो ये है कि इस तरह के मामलों से निपटने के लिए खेल संस्थाओं के अंदर ही उचित व्यवस्था होनी चाहिए या फिर अगर संसाधन पर्याप्त हों तो पुरुषों और महिलाओं के खेल संघों को अलग कर देना चाहिए। इस बात के अतिरिक्त धरनेबाज पहलवानों ने कुछ भी ऐसा नहीं किया है जो चर्चा के योग्य हो।
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