उज्जैन के महाकाल मंदिर का कॉरिडोर भी बन गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसका उद्घाटन भी कर दिया। पिछले एक वर्ष में हिंदुओं के आराध्य देवी-देवताओं के स्थलों के पुनरुत्थान या वहाँ कॉरिडोर बनने का जो सिलसिला उत्तराखंड के चारधाम से आरंभ हुआ था, वह उत्तर प्रदेश में काशी और गुजरात के पावागढ़ होते हुए मध्य प्रदेश में उज्जैन जा पहुँचा है। महाकाल कॉरिडोर को महाकाल-लोक की संज्ञा दी गई है। प्रधानमंत्री की उपस्थिति और देश भर से उज्जैन पहुंचने वालों लोगों की उपस्थिति ने कार्यक्रम को भव्यता प्रदान कर दी।
पिछले एक वर्ष में संस्कृति के इस पुनर्जागरण को अलग-अलग लोगों द्वारा अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। इसका राजनीतिक विरोध भी देखा गया। हमेशा की भांति भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी पर राजनीति के लिए धर्म का सहारा लेने का भी आरोप लगा। उत्तराखंड और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के विरुद्ध परंपरागत और सोशल मीडिया में विरोध के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे गए । उससे निकलने वाले राजनीतिक विरोध को धार्मिक और सामाजिक विरोध का मुखौटा पहनाने का प्रयास भी किया गया पर ऐसा करने वालों के हाथ अक्सर विफलता ही लगी।
शायद यह ऐसे विरोध की असफलता है या फिर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सांस्कृतिक योजनाओं में आम हिंदू का विश्वास कि उनके विरोधियों ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के बाद बने किसी भी कॉरिडोर या सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ऐसी किसी योजना के सार्वजनिक विरोध का प्रयास नहीं किया। यह बात सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का संदेश देती है। संदेश यह कि भारत के राजनीतिक विमर्श में हिंदू आस्था का सार्वजनिक अपमान सस्ती बात नहीं रही और राजनीतिक तौर पर ऐसे किसी भी प्रयास की भारी कीमत है और राजनीतिक दल वह कीमत देने के लिए तैयार नहीं हैं।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण के प्रधानमंत्री के प्रयासों को लेकर हो रहे विमर्शों में भले ही इन प्रयासों को कम करके आंकने का उदाहरण बार-बार दिखाई दिया, पर सच यही है कि ऐसा करना कुछ लोगों की मज़बूरी है। ये लोग विरोध के अपने-अपने व्याकरण में बंध कर रह गए हैं। वे यह विश्वास नहीं कर पा रहे कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जिन योजनाओं को वे धार्मिक स्थलों पर किया जाने वाला खर्च बताते हैं, उन्हीं स्थलों पर देश भर से पहुँच रहे सनातन के अनुयायियों और उससे परिणामस्वरूप स्थानीय अर्थव्यवस्था को होने वाले लाभ को हर प्रयास के बाद भी वे नकार नहीं पा रहे। सच यह है कि इस विरोध हेतु उन्हें शब्द नहीं मिल रहे।
दरअसल सनातन संस्कृति के स्थलों का पुनरुद्धार केवल सांस्कृतिक पुनर्जागरण का द्योतक नहीं है। यह सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था के पुनर्जागरण का भी द्योतक है। ऐसी अर्थव्यवस्था जिसने सदियों तक एक वृहद समाज को न केवल धार्मिक बल्कि आर्थिक स्थिरता प्रदान की थी। उत्तराखंड में चारधाम और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन के बाद इन तीर्थस्थलों पर बढ़ी तीर्थयात्रियों की संख्या यही संदेश देती है। यही बात भविष्य में महाकाल मंदिर में दिखाई देगी। दरअसल यह इन स्थलों पर पुनरुज्जीवित हो रही यह सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था है जो मोदी विरोधियों को परेशान कर रही है।
ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन से मोदी को क्या मिलेगा? इस प्रश्न का उत्तर भी अलग-अलग लोग अपनी तरह से देंगे। किसी को इसमें मोदी का राजनीतिक लाभ दिखाई देगा। किसी को इसमें धर्म जनित राजनीति दिखाई देगी। कुछ समर्थन करेंगे और कुछ विरोध। जो इसे संस्कृति से जोड़ते हैं उन्हें निज से यह प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए कि किन परिस्थितियों में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य एक प्रधानमंत्री को अपने कंधों पर लेना पड़ा? इसी तरह इसे धार्मिक समझने वाले निज से प्रश्न अवश्य करें कि धर्म गुरुओं या धार्मिक संस्थाओं की जिम्मेदारी का वहन एक प्रधानमंत्री को क्यों करना पड़ रहा है?
हाँ, जिस वृहद समाज के लिए मोदी यह कर रहे हैं, उसे पता है कि उसके लिए इन प्रयासों का अर्थ क्या है।