देश के दूसरे कई शहर-कस्बों-गावों की ही तरह पटना में भी विजयदशमी पर रावण दहन की तैयारी थी। पिछले करीब सात दशकों से जैसा होता आया है, वैसे ही हिन्दुओं के इस त्यौहार पर पटना के गाँधी मैदान में रावण को सजा कर तैयार कर दिया गया था।
इस वर्ष सभी जगह रावण जलकर नहीं मरा। कई जगहों पर बारिश इतनी होती रही कि रावण को डूबकर मरना पड़ा। कथित तौर पर साहित्य से जुड़े कुछ लोगों ने इस विषय में बात करते हुए यहाँ तक कह दिया कि जिन राजनीतिज्ञों को रावण पर तीर चलाने बुलाया जाता है, उनका चरित्र कई बार रावण से भी गया-गुजरा होता है।
ऐसे में जब रावण को “अपने अन्दर के रावण को मारो” का सेकुलर उद्घोष सोशल मीडिया पर सुनाई दिया, तो वह बेचारा शर्म से डूब मरा था।
खैर, हमलोग पटना में मनाये जा रहे हिन्दुओं के त्यौहार विजयदशमी पर थे और वहीं वापस चलते हैं। इसे हिन्दुओं का त्यौहार कहने से याद आया कि पटना में इस रावण दहन की परम्परा को हिन्दुओं ने नहीं, बल्कि सिखों ने शुरू किया था।
जब 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान बन गए इलाके से धर्म बचाकर सिखों को पलायन करना पड़ा, तो उनमें से कुछ पटना आये। ऐसे करीब 350 सिखों ने 1954 में दशहरा कमिटी का निर्माण किया और 1955 से रावण दहन शुरू हुआ।
बख्शी राम गाँधी इस कमिटी के कर्ता-धर्ता थे, जिनके नेतृत्व में काम शुरू हुआ। इस काम के लिए चंदा इकठ्ठा करना था। आज जो पटना का चाणक्य होटल है, उसी परिवार के पास उस दौर में आइस फैक्ट्री (कोल्ड स्टोरेज) हुआ करता था। यहाँ आलू-प्याज रखने आने वाले किसानों ने चंदा देना शुरू किया और इस तरह रावण दहन की परंपरा शुरू हुई।
राजनैतिक नेतृत्व की बात करें तो पटना के इस रावण दहन का आमंत्रण दशहरा कमिटी नेताओं को भेजती है। जैसा कि आज लगता है, वैसा ये कोई सरकारी कार्यक्रम नहीं, लोगों के चंदे से चलने वाला आयोजन ही है। इसमें लालू यादव को जब 1990 में आमंत्रण मिला तो वो (संभवतः अन्दर से हिन्दुत्ववादी होने के कारण) आयोजन में आने लगे। तबसे बिहार के मुख्यमंत्री का आयोजन में आना और रावण पर तीर चलाना जारी है।
इस वर्ष भी नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव आयोजन में पहुंचे थे। उनके आने की खबर भर मिलनी थी कि गाँधी मैदान, पटना का रावण रावण बच्चों की तरह रूठ कर जमीन पर लोटने लगा! लोग घबराए कि ये क्या मामला है? वैसे ही दो वर्षों से कोविड-19 लॉकडाउन के कारण रावण दहन नहीं हुआ था।
उससे पहले भीड़ और भगदड़ को नियंत्रित कर पाने में ‘सुशासन’ असमर्थ रहा था और कई लोग कुचले गए थे। इस वर्ष भी जलने से इनकार करते रावण का जमीन पर लोटकर हाथ-पैर पटकना लोगों की समझ में नहीं आया।
जनता के स्वयंभू पत्रकार, श्री “कौन जात हो” कुमार ने मौके की नजाकत को समझते हुए रावण से बात की। अपने प्राइम टाइम में उन्होंने बताया कि जैसा ‘सुशासन’ कहता है “बिहार में बहार है”, बिलकुल वैसा ही है। सामाजिक न्याय को साथ लेकर वह और भी मजबूत हो गया है। हमारे बागों में बहार तो है, लेकिन इससे पहले कि जनता जनार्दन बहारों के मजे लूट पाती, बागों में दबे पाँव घुसे आ रहे फासीवाद की आहट सुनाई दे गयी। उसी आहट से डरकर रावण जमीन पर लोटने लगा था।
जनता को ये बात कुछ हजम नहीं हुई क्योंकि हाल ही में पटना के पास अवैध बालू खनन के वर्चस्व के लिए सिपहिया और फौजिया गैंगों में भिड़ंत हो गयी थी। सरकारी हिसाब से इस गैंग-वॉर में 200 और लोगों के हिसाब से 1000 से अधिक गोलियां दिन दहाड़े चलीं। जो रावण इतनी गोलियों की आवाज से नहीं डरा वो फासीवाद की आहट से क्या घबराता?
आजकल पत्रकारों को गोदी-पत्रकार बुलाने की परंपरा भी एक इनामी पत्रकार ने शुरू कर दी है, इसलिए जनता जनार्दन ने ‘सुशासन’ और सामाजिक-अन्याय की गोदी में बैठे हुए भोंपुओं पर कोई ध्यान नहीं दिया। सुना है कि जनता की नाराजगी के बाद बागों से बहार के निकल जाने के बाद से घबराए हुए इनामी पक्षकार ने अपना खुद का यू-ट्यूब चैनल शुरू कर लिया है। कल को बेरोजगारी की सी स्थिति में भूखे मरने की नौबत न आए, इसलिए उठाए गए इस कदम को समझदारी भरा मानना चाहिए।
जनता की बात के बारे में बटेसर महतो और घूरन राय की आपसी बातचीत चल रही थी। उसमें निष्कर्ष निकला है कि पिछले वर्ष बिहार में दुर्गा पूजा के ही अवसर पर एक बड़े नेता की पुत्री, मुंगेर एसपी थी। जब भीड़ पर चली गोलियों में एक युवा मारा गया और इस नेता की सरकार कुछ न कर पायी तो रावण को लगा कि ये उसका वध करने लायक है ही नहीं।
रावण को लगा कि इस ‘सुशासन’ के सामाजिक-अन्याय में तो बड़े लोगों के बच्चों को सजा नहीं होती, भले ही उनके पाप कितने भी बड़े हों। छोटी-मोटी बातों को छोड़िए, यहाँ के मुजफ्फरपुर जिले में तो एक बड़ा कांड हुआ था, जिसपर मीडिया के कुछ भी बोलने पर बाद में अदालत ने ही प्रतिबंध लगा दिया।
जिस राज्य में बच्चियों के यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाना भी प्रतिबंधित हो, उसके मुखिया के हाथों मरने के नाम पर रावण अगर जमीन पर लोट कर हाथ-पैर पटकने लगा भी तो आश्चर्य कैसा? जो भी हो, पता चला है कि रावण का इनकार भी उतना ही सुना गया जितना ‘सुशासन’ में जनता की बात सुनी जाती है। क्रेन के जरिए रावण को जबरन दोबारा खड़ा किया गया और रावण दहन की प्रक्रिया पूर्ण कर ली गयी।
बाकी तथाकथित हिंदी साहित्यकारों वाला अन्दर का रावण मरा है, या नहीं, इसपर विश्वस्त सूत्रों ने भी कोई रिपोर्ट नहीं दी है।