पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव से संबंधित राजनीति इस समय देश भर के लिए उत्सुकता का विषय बनी हुई है। चुनावी प्रक्रिया में होने वाली हिंसा पर न्यायपालिका के आदेशों को लेकर राज्य चुनाव आयोग द्वारा की जाने वाली हठधर्मिता रोज रोज नया रूप ले रही है। इससे न केवल राज्य चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर आम भारतीय के मन में तरह तरह की शंका भी उत्पन्न हो रही है। राज्य में सत्ताधारी दल के राजनीतिक आचरण को लेकर अब तक ऐसा कुछ नहीं बचा है, जो पहले नहीं कहा गया है।
प्रश्न यह है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में न्यायपालिका द्वारा उठाये गये कदम, चाहे उनका पालन हो या न हो, क्या न्यायपालिका को उसकी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर देते हैं? या यदि मैंने अपने प्रश्न को परिवर्तित कर दूँ तो; कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जो निर्णय या आदेश दिये हैं, क्या उसमें देर नहीं हो गई है?
ऐसे प्रश्न का औचित्य यह है कि; न्यायपालिका के उन आदेशों, टिप्पणियों या वक्तव्यों का क्या महत्व जिन्हें संवैधानिक संस्थाएँ या राज्य सरकारें लागू न करना चाहें?
जहाँ तक राज्य में राजनीतिक या चुनावी हिंसा की बात है, ऐसा तो है नहीं कि आज जो हो रहा है, वह पहले नहीं हुआ या पहली बार इसी वर्ष के पंचायत चुनावों में हो रहा है। ऐसा इस राज्य में पिछले तीन दशकों से हो रहा है। बहुत पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है। 2018 के पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा को लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने टिप्पणियाँ तो बहुत की लेकिन ऐसे कौन से ठोस कदम उठाये जो सत्ताधारी दल या राज्य सरकार को इस बात के लिए विवश करते कि वे 2023 के पंचायत चुनावों में हिंसा नहीं होने देते? फिर, 2021 के विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद हुई राज्यव्यापी हिंसा को लेकर ही उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय ने कौन से कदम उठाये जो यह सुनिश्चित करते कि ऐसा फिर कभी न हो? क्या विधानसभा चुनाव के दौरान या उसके परिणाम के बाद हिंसा को लेकर किसी को ज़िम्मेदार ठहराया गया? क्या राज्य सरकार पर किसी तरह की ज़िम्मेदारी डाली गई? जहाँ तक सर्वोच्च न्यायालय की बात है, उसके तो दो न्यायाधीशों ने पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा संबंधित मामलों की सुनवाई से ही निज को अलग कर लिया था।
यदि कोई यह प्रश्न करता है कि चुनावी प्रक्रिया में न्यायपालिका का हस्तक्षेप क्यों होना चाहिए, तो उसे याद कराने की आवश्यकता है कि न्यायपालिका ने अन्य राज्यों में हुई हिंसा को लेकर पहले किसी भी तरीक़े का स्वतः संज्ञान लिया है। अभी हाल ही में 2021 में त्रिपुरा में हुई हिंसा को लेकर ऐसा देखा गया था। यदि राजनीतिक हिंसा की कसौटी पर सभी राज्यों को कसा जाए तो इस बात से शायद ही कोई इनकार कर सके कि पश्चिम बंगाल इस मामले में सबसे अलग है। चुनावी और राजनीतिक हिंसा को लेकर चुनाव आयोग के कदम पिछले लगभग ढाई दशकों में उठाये गये कदम अन्य राज्यों में तो कारगर साबित हुए लेकिन पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जहाँ उनका कोई खास असर नहीं पड़ा और राजनीतिक हिंसा कम होने की बजाय केवल बढ़ी ही है। ऐसे में क्या व्यावहारिकता का तकाज़ा नहीं है कि न्यायपालिका राज्य में लगातार हो रही हिंसा को लेकर दायर मुक़दमों की सुनवाई न केवल जल्द से जल्द करे बल्कि निर्णय भी सुनाए ताकि उन हिंसा के लिए किसी न किसी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सके। आखिर, ऐसा कैसे हो सकता है कि राजनीतिक हिंसा का जो रूप दुनिया को दिखाई दे रहा है वह राज्य सरकार या सत्ताधारी दल को दिखाई नहीं दे रहा?
यदि न्यायपालिका ऐसे आदेश देती है जिसका पालन राज्य चुनाव आयोग या राज्य सरकार नहीं करना चाहती तो इस समस्या का न्यायपालिका के पास कोई तो समाधान होगा? आखिर, ऐसे आदेशों का महत्व ही क्या जिनका न तो पालन हो और न ही उसके लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सके?
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जो आदेश अभी तक दिए हैं, राज्य चुनाव आयोग उनके पालन को लेकर गंभीर दिखाई नहीं दिया है। न्यायपालिका के लिए भी यह समझना कठिन क्यों है कि जिस स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान के लिए वह केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती का आदेश दे रहा है, वह पूरी चुनावी प्रक्रिया का मात्र एक पहलू है। आखिर, मतदान एकमात्र ऐसा पहलू नहीं है जिसमें हिंसा होती है। पश्चिम बंगाल में चुनाव के घोषणा के बाद लगभग हर प्रक्रिया के दौरान हिंसा होती है। नामांकन दाखिल करने से लेकर चुनाव परिणाम तक, कोई ऐसा पहलू नहीं जिसे प्रभावित करने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लिया जाता। प्रश्न यह है कि सही ढंग से नामांकन हो, इसके लिए उच्च न्यायालय ने जो आदेश जारी किए थे, क्या उन आदेशों का पालन हुआ? नामांकन की प्रक्रिया के दौरान क्या हिंसा नहीं हुई? क्या उम्मीदवारों को नामांकन करने से नहीं रोका गया? ऐसे में यदि उच्च न्यायालय के आदेशों का पालन नहीं हुआ तो इसके लिए किसी को जिम्मेदार ठहराया गया? नामांकन के दौरान हुई हिंसा को निष्प्रभावी करने के लिए ऐसा कोई आदेश तो आया नहीं कि नामांकन की प्रक्रिया फिर से की जाए।
राज्य चुनाव आयोग और राज्य सरकार ने अभी तक केंद्रीय सुरक्षा बलों की आवश्यक उपस्थिति को लेकर वैसे ही कोई कदम नहीं उठाए हैं। खबर तो यह भी है कि केंद्रीय सुरक्षा बलों की कितनी यूनिट बुलाई जानी चाहिए, उसे लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ राज्य चुनाव आयोग फिर से सर्वोच्च न्यायालय जाने के लिए तैयार है। अच्छा, यदि राज्य चुनाव आयोग और राज्य सरकार आदेश का पालन करते हुए सुरक्षा बलों की तैनाती कर भी देते हैं, तो क्या यह इस बात की गारंटी होगी कि हिंसा नहीं होगी? याद करें कि 2021 के विधानसभा चुनावों के समय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा के संभावित वोटर से क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि; चुनाव के बाद तो सुरक्षा बल चले जाएँगे, फिर तुम्हें कौन बचाएगा?
चुनाव परिणाम के बाद क्या हुआ, सबके सामने है। ऐसा भी नहीं कि ममता बनर्जी की पार्टी चुनाव हार गई थी। भारी मतों से जीती थी फिर भी एक बड़े मतदाता समूह का राज्य में जीना मुश्किल कर दिया गया। दो वर्ष से अधिक हो गए और आज तक चुनाव के बाद हुई हिंसा को लेकर मामलों की केवल सुनवाई हो रही है। न तो किसी ने ज़िम्मेदारी क़बूल की और न ही किसी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सका। इसी का असर आज पंचायत चुनावों पर दिखाई दे रहा है। राजनीतिक हिंसा की कुटिलता और न्याय व्यवस्था की लाचारी का रोलिंग प्लान निरंतर चला जा रहा है।
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