सोमवार (20 फ़रवरी, 2023) को पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने विधानसभा में अलग राज्य की मांग के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया। इस मुद्दे को बंगाल विभाजन से जोड़कर मुख्यमंत्री ममता कहती हैं, “बंगाल एक है और उनके रहते इसका विभाजन नहीं हो सकता है।”
बंगाल का विभाजन कौन कर रहा है?
ममता बनर्जी और उनके दल के नेताओं का कहना है कि भाजपा बंगाल के विभाजन की माँग कर रही है पर ऐसी कोई माँग भाजपा की ओर से उठाई नहीं गई। हाँ, भाजपा नेता और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सुवेंदु अधिकारी ने समय-समय पर उत्तर बंगाल के ज़िलों के लोगों को राज्य सरकार की योजनाओं से वंचित रखने का आरोप अवश्य लगाया है पर इसे राज्य के विभाजन की माँग कैसे कहा जा सकता है? राज्य में जनता को सहूलियतों और सरकारी योजनाओं का लाभ दिए जाने की मांग को राज्य के विभाजन की मांग बता कर विवाद बनाना क्या उचित है?
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अगर भाजपा की तरफ से कोई मांग होती भी तो इसका संकेत केंद्र में बैठी भाजपा सरकार से भी मिलता लेकिन केंद्र सरकार की ओर से भी ऐसी कोई बात नहीं कही गई। फिर ममता सरकार ने किस वजह से जल्दबाजी में यह प्रस्ताव विधानसभा पटल पर रख दिया?
हाँ, केंद्र सरकार चुनावी मोड के लिए अवश्य तैयार दिख रही है और शायद ममता बनर्जी सरकार पंचायत चुनावों में ख़ुद को असहज पा रही है। यही कारण है कि इसकी काट ढूंढने के लिए यह विभाजन का मुद्दा उठाया गया और इसे 1905 के बंगाल विभाजन से भी जोड़ दिया गया।
लोकसभा चुनाव का ममता के मन में अभी से भय किसलिए
पिछले आठ वर्षों में उत्तर बंगाल में भाजपा का जनाधार मजबूत हुआ है। वर्ष 2019 के आम चुनावों में भाजपा ने उत्तरी बंगाल की 8 सीटों में से 7 पर जीत दर्ज़ की। वहीं यही प्रदर्शन बरक़रार रखते हुए वर्ष 2021 के विधानसभा चुनावों में यहाँ की 54 विधानसभा सीटों में 29 भाजपा के खाते में गई। तृणमूल कांग्रेस को उत्तर बंगाल में समर्थन पहले जैसा नहीं मिल रहा है। शायद यही कारण है कि भाजपा पर राज्य के बँटवारे की माँग का आरोप लगाया जा रहा है। वहीं, यदि उत्तर बंगाल के नागरिकों को सरकारी योजनाओं का लाभ न मिलने या अपेक्षाकृत कम मिलने की बात हो रही है तो ममता बनर्जी को इस पर विचार करने की जगह इस तरह के प्रस्ताव पारित करना आसान क्यों दिखाई दे रहा है?
पिछले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी और उनका दल भाजपा को पश्चिम बंगाल के बाहर का बता चुके हैं। ममता बंगाली अस्मिता की बात को पिछले चुनाव में इस्तेमाल कर चुकी हैं। पिछले चुनावों की सफलता को देखते हुए शायद उसी का सहारा लेकर अभी से पंचायत चुनाव के साथ-साथ लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ शायद शुरू कर दी गई हैं।
वैसे भी उत्तर बंगाल के विभाजन और गोरखालैंड की माँग से निपटने के लिए ख़ुद ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनावों के समय बिमल गुरुंग के साथ न केवल समझौता किया बल्कि उनके ऊपर किए गए तमाम मुक़दमे वापस ले लिये थे। वैसे भी केंद्र सरकार के विरुद्ध बांग्ला अस्मिता की बात करना क्या अलगाववाद का द्योतक नहीं है? जब चुनाव के बाद उत्तर बंगाल के लोगों को सिर्फ इसलिए मारा और जलाया जा रहा था क्योंकि उन्होंने ममता दीदी को वोट नहीं दिया था तो ऐसा करके किस बंगाल को एकजुट रखने की कोशिश हो रही थी?
ममता बनर्जी के सबसे निकट और वरिष्ठ मंत्री फिरहाद हकीम ने तो अति उत्साह में हद ही कर दी। उन्होंने 1905 में बंगाल के बँटवारे के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक को दोषी बता डाला। दरअसल विरोध जब अंधा हो जाता है तो विरोध करने वाले को न तो तथ्य का ध्यान रहता है और न ही इतिहास का।
विधानसभा में प्रस्ताव पास करना ममता दीदी के लिए सबसे आसान कार्य हो चुका है। पिछले वर्षों में वह केंद्रीय एजेंसियों जैसे सीबीआई ईडी के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर चुके हैं। दरअसल यह उपलब्धि हासिल करने वाला पश्चिम बंगाल पहला राज्य था। इसके बाद संवैधानिक पद पर बैठे बंगाल के राज्यपाल के खिलाफ भी प्रस्ताव लाया गया। ऐसे में प्रश्न यह उठना चाहिए कि अब दीदी चुनाव परिणामों का इंतज़ार करेंगी या शासन करने का अधिकार विधानसभा पटल पर प्रस्ताव लाकर तय हो जाएगा?