देश में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए त्रिस्तरीय चुनाव की व्यवस्था की गयी थी। राज्य के संसाधनों और कार्यों पर अधिकार निचले स्तर यानी पंचायतों तक स्थानांतरित किये गए। शासन में नागरिकों की भागीदारी को बढ़ाना इसका उद्देश्य था।
पश्चिम बंगाल में ये व्यवस्था शक्ति को बांटने की प्रक्रिया के बजाय शक्ति के लिए राज्य को खत्म करने की प्रक्रिया सी प्रतीत होती है। राज्य की अवधारणा खत्म हो चुकी है क्योंकि लोग खत्म हो रहे हैं। व्यावहारिक रूप से यह चुनाव प्रत्याशियों का नहीं है, यह चुनाव जीवन के अधिकार एवं वोट के अधिकार के बीच है। अगर आप पश्चिम बंगाल में हैं तो आपको दोनों में से एक ही अधिकार की गारंटी होगी।
यहाँ किसी भी अधिकारों की चर्चा छेड़ना बेईमानी होगी क्योंकि आप कोई भी हों, पक्ष या विपक्ष, पश्चिम बंगाल के लोकतंत्र में आपके वोट को बन्दूक से गुजरना ही होगा। चाहे वो वोट लूटने वाले की बन्दूक हो या फिर वोट बचाने वाले सुरक्षा बलों की बन्दूक।
यह सब जिस सत्ता के लिए हो रहा है लोगों का उस सत्ता तक पहुंचने के बाद कैसा कार्यकाल होगा यह अंदाज़ा लगाना किसी के लिए मुश्किल नहीं है।
प्रश्न यह है कि क्या कोई महाआपदा आन पड़ी है? बंगाल के लिए सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार, केंद्रीय सुरक्षा बल, राज्यपाल एवं राज्य के संसाधन, सभी क्यों जुटे हैं? पूरी प्रणाली जुटी है ताकि पंचायत चुनाव में मतदान हो पाये।
ऐसी स्थिति इसलिए आई है क्योंकि पश्चिम बंगाल का शासन और प्रशासन एक पंचायत चुनाव की प्रक्रिया को पूर्ण करने में असफल हो चुका है। इसका आभास ममता बनर्जी को भी है लेकिन वे यह भी समझ चुकी हैं कि यह बात स्वीकार न करने में भी कोई बड़ा नुकसान नहीं होने वाला है। विपक्षी दल कांग्रेस भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए इस मुद्दे पर अधिक विरोध करेगा नहीं और लेफ्ट के लिए उनके कार्यकाल को गिनाने का विकल्प ममता के पास है ही।
ममता बनर्जी वोटिंग चाहती हैं लेकिन सिर्फ अपने पक्ष में। अगर ममता बनर्जी नहीं चाहती कि सरकारें वोट से तय की जाएँ तो उनके पास क्या विकल्प हैं? हिंसा के अलावा उन्हें विकल्प तलाशने चाहिए और एक नए लोकतंत्र का ढांचा पेश करना चाहिए। इस ढांचे में सिर्फ स्वयं को वोट देने वालों के बारे में सोचा जाएगा और कल्पना कीजिये यही मॉडल पूरे देश में लागू किया गया तो फिर?
अब देश की नज़रें इन्हीं पंचायत चुनाव पर हैं जिस कारण देश भर में ममता बनर्जी के बारे में भी बातें हो रही हैं लेकिन यह कारण उन्हें राष्ट्रीय नेता नहीं बना सकता।
वे स्वयं को प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार मानती हैं लेकिन क्या वे उन लोगों की पीड़ा समझ पा रही हैं जो रोते बिलखते सड़कों पर अपने मृत परिजनों के लिए न्याय ढूंढ रहे हैं। जो व्यक्ति एक सुखी राज्य के लिए नहीं बल्कि कष्टकारी एवं दुःख से परिपूर्ण राज्य के लिए कार्य करता हो, जहाँ स्वयं का जीवन बचाना ही लोगों का एक मात्र उद्देश्य बन जाता हो, उस राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कैसे प्रधानमंत्री बन सकती हैं?
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