पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार द्वारा लोकतांत्रिक संस्थाओं में जो अविश्वास दर्शाया गया है वह उनकी कमजोर राजनीतिक जमीन के कारण है। जांच एजेंसियों के साथ असहयोगात्मक रवैए एवं लगातार केंद्र सरकार के साथ खींचतान में बंगाल की बिखरती शासन व्यवस्था को अब न्यायिक संस्थाओं से लगातार चुनौती मिल रही है। हाल ही में कलकत्ता हाईकोर्ट ने शिक्षक भर्ती घोटाले को लेकर सीबाआई एवं ईडी की पूछताछ रोकने की अभिषेक बनर्जी की याचिका को खारिज कर दिया और साथ ही उनपर 25 लाख रुपए का जुर्माना भी लगा दिया। इस फैसले पर टीएमसी और उनके नेतृत्व द्वारा जो प्रतिक्रिया आने की संभावना है उसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
अभिषेक बनर्जी का कहना तो है कि वे जांच में पूर्ण सहयोग करेंगे और ईडी एवं सीबीआई के बुलाने पर अपनी चुनावी यात्रा को बीच में छोड़ कर पहुँच जाएंगे। हालांकि यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि अभिषेक बनर्जी या उनके दल का रवैया जाँच एजेंसियों के साथ सहयोगात्मक था तो पूछताछ रोकने के लिए बार-बार सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? यही टीएमसी एवं ममता बनर्जी सरकार का दोहरा व्यवहार है जिनके लगभग हर निर्णय में संभावित वोट बैंक का दृष्टिकोण रहता है।
अपनी चुनावी यात्रा से जिस नई ऊर्जा का संचार अभिषेक बनर्जी करना चाहते हैं वो दरअसल पार्टी में पश्चिम बंगाल के नागरिकों की जगह मतदाताओं के खोए विश्वास को पाने के लिए है। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव नजदीक हैं और उसके बाद लोकसभा चुनावों का सामना भी करना है। हालांकि, हिंसा आधारित शासन, भ्रष्टाचार और लचर कानून व्यवस्था के कारण ममता सरकार पर लंबे समय से प्रश्न खड़े होते रहे हैं। 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। ऐसे में दीदी को अपनी सत्ता जिस तेजी से खिसकती प्रतीत होती है उतनी ही अधिक वो केंद्र का विरोध करती हैं।
बारह वर्षों तक राज्य की सत्ता में जमें रहने का परिणाम यह है कि ममता बनर्जी के शासन और उनके निर्णयों का अंदाजा अब आसानी से लगाया जा सकता है। अब हाल यह है कि किसी विषय पर पार्टी और उसके नेता की संभावित प्रतिक्रिया पहले से पता रहती है, फिर मामला शासन या प्रशासन का हो या राजनीति का। जैसे जब तक सुप्रीम कोर्ट और जांच एजेंसियां केंद्र सरकार के विरुद्ध फैसला दे तभी तक उनको प्रासंगिक माना जा सकता है, अन्यथा उनका दुरुपयोग किया जा रहा है।
ममता बनर्जी द्वारा अपने दायित्वों को पीछे फेंकने की क़ीमत क्या है?
न्यायालय एवं जांच संस्थाएं अपना कार्य करती रहेंगी पर राष्ट्रीय संस्थाओं पर आरोप लगाकर ममता बनर्जी जो राजनीतिक समीकरण बैठाना चाह रही हैं वो संभव नहीं है। इसका कारण जनता है, जो पार्टी के भ्रष्टाचारी तंत्र एवं हिंसा की राजनीति को अब अधिक समझ सकती है। पार्टी के बड़े बड़े नेता भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल में बंद है। कोयला तस्करी घोटाला, गौ तस्करी घोटला हो या हाल ही में सामने आया शिक्षक भर्ती घोटाला, ममता बनर्जी स्वयं की स्वच्छ छवि को बरकरार रखने के लिए निज को बाक़ी नेताओं से भले अलग रखती आई हैं पर अब जनता बहुत कुछ समझती है। पार्टी में भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर नहीं बल्कि ऊपर से नीचे की ओर बह रहा है।
2024 के लोकसभा चुनाव पूर्व पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव होने हैं। बंगाल में बदलते परिवेश को भांप कर ममता बनर्जी ने अपनी पारंपरिक राजनीति को बढ़ाना शुरू भी कर दिया है। केंद्र का लगातार विरोध हो या मुस्लिम तुष्टिकरण, उनकी सरकार सारे हथकंडे को इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करती।
केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ जनता तक नहीं पहुँचाकर ममता बनर्जी सरकार यह संदेश देने में लगी है कि केंद्र सरकार राज्य में विकास योजनाओं का पैसा नहीं देना चाहती। हालांकि सामने यह आया है कि केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ टीएमसी मंत्रियों और उनके सहयोगियों को अधिक दिया जा रहा है। इसी तरह की धांधलियों के कारण केंद्र ने जांच पूरी होने तक बजट पर रोक लगा दी है। भ्रष्ट तंत्र वाली सरकार के कारण आम जनता को योजनाओं से वंचित रहना पड़ रहा है। क्या ममता बनर्जी इसके लिए जवाबदेह होगी?
मामला योजनाओं तक ही नहीं, जांच और सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का भी है जिसके जरिए वे स्वयं को और अपने मंत्रियों को क्लीन चिट देती आई हैं। अपने दाहिने हाथ और टीएमसी सरकार के मंत्री रहे अनुब्रत मंडल को गौ तस्करी मामले से बचाने के लिए ममता बनर्जी उन्हें बंगाल से बाहर भेजने को तैयार ही नहीं थी और इसके लिए कई जतन भी किए गए पर आज मंडल तिहाड़ जेल में बंद है। समस्या भी यही है कि अब जांच एजेंसियों की रडार पर टीएमसी कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि नेतृत्वकर्ता भी आ रहे हैं। भ्रष्टाचार की जांच में टीएमसी सरकार का असहयोग उसके असंतोष का नतीजा है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने अपने शासन को पूर्ण स्वायत्त बनाने की कोशिश है जिसमें वे निर्णय नियम और कानून के तहत नहीं बल्कि वोट बैंक के तहत लेते आए हैं। हालांकि बीते दिनों माननीय न्यायालयों ने अपने फैसलों से यह संदेश दिया है कि हर फैसले में आप राजनीतिक नहीं हो सकते। द केरल स्टोरी पर सरकार का लगा बैन हटाना हो या रामनवमी हिंसा पर ममता बनर्जी सरकार को फटकार, न्यायालयों ने ममता सरकार के फैसलों को कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया है।
अब कितना आसान होगा ममता बनर्जी का राजनीतिक सफर?
राजनीति का तकाजा है कि इसका आरोप भी ममता बनर्जी केंद्र सरकार पर ही लगाएंगी। केंद्र के साथ अपनी चूहे बिल्ली की लड़ाई में वह जनता को किस प्रकार संसाधन उपलब्ध करवाएगी, इसके बारे में उन्होंने कोई रोडमैप तैयार नहीं किया है। विपक्ष की एकता को समर्थन देकर कहीं न कहीं ममता ने स्वयं को प्रधानमंत्री की दावेदारी से दूर कर लिया है। हालांकि अपने राज्य की कानून व्यवस्था के विफल रहने एवं भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे नेताओं के साथ ममता की विधानसभा में कैसे पार लगेगी यह देखना दिलचस्प होगा।
पश्चिम बंगाल देश का हिस्सा है। ममता बनर्जी यह भूल रही है। ईडी और सीबीआई के खिलाफ आरोप, बाहरी लोगों पर कटाक्ष उन्हें एक औसत राजनेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रीय राजनीति में जाने की चाह रखने वाली ममता दीदी के पास राजनीतिक पेशकश के लिए भ्रष्ट राजनीति, विफल कानून व्यवस्था और हिंसा का सहारा ही है। उन्हें स्वयं हिंसा की राजनीति के साथ दिखने में कोई समस्या नहीं है। यही कारण है कि सत्ता में बने रहने के लिए हिंसा को बढ़ावा देना उन्हें जरूरी भी लगने लगा है।
बहरहाल, अभिषेक बनर्जी को अपनी चुनावी यात्रा में पार्टी के गलत फैसलों का असर नजर आने लगा है। इसलिए वह जांच एजेंसियों के सहयोग की बात कर रहे हैं। दीदी और भतीजे के लिए समय और संभावनाएं दोनों कम है और अव्यवस्था अधिक। अब यह तो तय है कि अगर ममता बनर्जी को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करनी हैं तो लोकसभा चुनावों पूर्व अपना फैलाया रायता समेटना पड़ेगा।