1960 के दशक के बाद पश्चिम बंगाल के चुनावों में क्या हुआ? वर्ष 1977 में क्या हुआ, 2007 में क्या हुआ या 2014, 2015, 2016 और यहाँ तक की 2018 के पंचायत चुनावों में क्या हुआ?
जवाब है राजनीतिक हिंसा एवं हत्याएं। पश्चिम बंगाल में वर्ष, 1977 से 2007 तक 28 हजार से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। राजनीतिक हत्याओं, उपद्रवों का यह सिलसिला वर्तमान में भी बिना किसी अवरोध के जारी है। पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों से लेकर हर छोटे बड़े चुनावों में हिंसा, हत्याएं और उपद्रव सामने आते रहे हैं। कई क्षेत्रों से बम बनने की जानकारी और आतंकी घटनाओं की खबरें सुनाई देना आम बात हो गई है।
राजनीतिक लाभ के लिए की जाने वाली हत्याओं में पश्चिम बंगाल का देश में प्रथम स्थान है। 1999 से 2016 के बीच राज्य में हर वर्ष औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। राज्य में पहले कांग्रेस और फिर भारतीय जनता पार्टी जैसे दलों के विरोध में वामपंथी दलों और तृणमूल कांग्रेस ने दमन की राजनीति अपनाई। राजनीतिक प्रभुत्व के लिए हिंसा का सहारा लेना एक तरह से राजनीतिक दर्शन हो चुका है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से टीएमसी और भाजपा कार्यकर्ताओं को मिलाकर कुल 47 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं, जिनमें से 38 दक्षिण बंगाल में हुई हैं।
सबसे समसामयिक घटना आदिवासी महिलाओं से जुड़ी हुई है। जिसमें पश्चिम बंगाल के बालुरघाट के तपन की तीन आदिवासी महिलाओं ने बीजेपी पार्टी की सदस्यता ली थी। यही उनकी गलती भी थी। अपनी गलती के सुधार के लिए उन्हें अपने घर से टीएमसी कार्यालय तक के लिए दंडवत करने आना एवं पार्टी की सदस्यता लेने की ‘सजा’ मिली थी। यह है बंगाल के शासन तंत्र एवं लोकतंत्र की तस्वीर और यह वर्षों से ऐसी ही है। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक हिंसा के लंबे इतिहास की चर्चा ऊपर की गई है। राजनीतिक लाभ के लिए हिंसा का अर्थ साफ है कि या तो सत्ता स्वीकार करो या दबने के लिए तैयार रहो, संभवतया मरने के लिए भी।
वर्ष, 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन की बात हो या मार्च 1970 को पूर्व बर्धमान जिले में हुए सैनबाड़ी नरसंहार की, जिसमें कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हत्या की गई, 27 फरवरी 1971 को कोलकाता में ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के अध्यक्ष हेमंत बसु की हत्या, इन सभी घटनाओं ने ‘बंदूक संस्कृति’ को बढ़ावा दिया है।
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पंचायत चुनावों में भी हिंसा का असर स्थानीय स्तर से ही प्रभुत्व स्थापित करने का साधन है। राज्य में धाक जमाने से पूर्ण पंचायतों पर अधिकार करना अधिक सरल उपाय है। सामाजिक सुधार योजनाएं, दल सुधारक योजनाओं में तब्दील हो गईं। विपक्षी पार्टी के नेताओं का घर जलाना, उनकी हत्याएं करना और चुवाव पूर्व आगजनी जैसी घटनाएं पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र का गला घोंट रही हैं।
विरोधी दलों को दबाने के लिए वामपंथी दलों ने दमन की जो नीति अपनाई वो चुनाव सुधार के बाद भी निरंतर जारी रही। 1990 के दशक में हुए टीएन शेषन द्वारा चुनाव सुधारों का असर पूरे देश में देखा गया सिवाय बंगाल के। बदलाव का स्वागत न करना भी लोकतंत्र को समाप्त करने के समान ही है।
पश्चिम बंगाल की यह स्थिति सुधार की ओर बढ़ती नजर नहीं आती है। मात्र दूसरी पार्टी की सदस्यता मिलने पर आदिवासी महिलाओं का अपमान करना शर्मनाक है पर इससे अधिक खतरनाक यह है कि इसका सामान्यीकरण कर दिया गया है। देश की राष्ट्रपति आदिवासी समुदाय से आती हैं। मोदी सरकार द्वारा आदिवासी वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई योजनाओं का संचालन किया जा रहा है पर बंगाल इन सब से अछूता है। रामनवमी हिंसा हो या चुनावी हिंसा, राज्य सरकार निर्णय लेती है तो सत्ता बनाए रखने के लिए न कि न्याय और शासन के लिए।
हालाँकि जनमानस सब देखता है। ममता बनर्जी को बदलाव दिखाई दे भी रहा है इसलिए उन्होंने अपनी तुष्टिकरण की राजनीति को और चमकाना शुरू कर दिया है। बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रदेश में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। संभव है कि अगले चुनावों में बंगाल की जनता हिंसा, हत्या, राजनीतिक प्रभुत्व, धार्मिक तुष्टिकरण जैसे हालातों से स्वतंत्रता के लिए वोट करे।
विधानसभा चुनाव के बाद टारगेट हिंसा पर जांच एजेंसियों को असहयोग ममता बनर्जी सरकार का शासन मॉडल दर्शा रहा है। आदिवासी महिलाओं को बीजेपी से जुड़ने पर मिली सजा पर बुद्धिजीवी एवं विपक्षी पार्टियां मौन हैं तो इसलिए क्योंकि यह उनके एजेंडे में शामिल नहीं है। यह वर्ग कभी बंगाल की बात नहीं करता वहां के हालातों की बात नहीं करता है। क्योंकि यह उनके किसी राजनीतिक लाभ का हिस्सा नहीं है। हाँ, यह तस्वीर पश्चिम बंगाल की न होकर बीजेपी शासित राज्य की होती तो ममता बनर्जी एवं अन्य नेता इसे लोकतंत्र की हत्या बता चुके होते। ठीक उसी तरह जिस तरह उमेश पाल मर्डर केस के बाद के हालात उत्तर प्रदेश में सामने आए हैं।
आदिवासी महिलाओं को मिली सजा एवं राजनीतिक हत्याएं वो तरीका है जिससे बताया जाता है कि हमें नहीं चुनोगे तो कुचल दिए जाओगे। भय की इस राजनीति में जातिगत संघर्ष और सांप्रदायिक हिंसा सबसे बड़े हथियार होते हैं। बंगाल में हो रही यह घटनाएं बेशक दलगत राजनीति से प्रेरित हैं। अन्य राज्यों में इसका सुधार देखने को मिला है पर बंगाल में आजादी पूर्व से शुरू हुआ राजनीतिक हिंसाओं का चलन आज भी अपराजित हथियार बना हुआ है।
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बंगाल में हो रही सांप्रदायिक एवं जातीय हिंसाओं को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। आदिवासी महिलाओं के साथ हुई घटना को छोटी मानवीय भूल का तमगा नहीं देना चाहिए। इस एक घटना से महिला, आदिवासी एवं लोकतंत्र सबका अपमान किया गया है।
ऐसी घटनाएं राज्य में राजनीति हिंसा की संस्कृति को फलने-फूलने में मदद कर रही है। राज्य सरकार द्वारा घटनाओं के प्रति लापरवाही एवं केंद्रीय जांच एजेंसियों के साथ लगातार असहयोग का रवैया हिंसा के स्वरूप को और बढ़ावा दे रहा है। राजनीतिक हिंसा से जुड़ी बंगाल की स्थिति पूरे देश में असाधारण है। जनता यह समझ चुकी है। इसी डर के कारण यूपी के कानून व्यवस्था पर शोर मचा रही ममता बनर्जी को पैरों में लगी आग दिखाई नहीं दे रही है।