दिल्ली में इस बार भी दिवाली पर पटाखे नहीं जलेंगे। राजधानी में 1 जनवरी, 2023 तक पटाखों पर पूर्ण प्रतिबन्ध रहेगा। आम आदमी पार्टी (AAP) सरकार के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने ट्वीट कर यह जानकारी दी।
हर बार की तरह इस बार भी दिवाली आने से पहले चारों तरफ वायु प्रदूषण पर कोहराम मचना शुरु हो गया है। आने वाले कुछ दिनों में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) सुप्रीम कोर्ट, पर्यावरणविद, तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता, पीआईएल लॉबी, एनजीओ और बॉलीवुड के वोक सितारे दिवाली को शोर, वायु प्रदूषण का पर्याय बताने में लग जाएंगे।
अब सवाल उठता है, ये पूरी लॉबी जो दिवाली-दशहरा पर ही पर्यावरण को लेकर आवश्यकता से अधिक सक्रिय होती है। क्या इसे पूरे साल वायु प्रदूषण नहीं दिखता है? दिवाली और दशहरा तो पूरे वर्ष नहीं मनाया जाता है।
तो फिर क्या कारण हैं, जिनसे वायु प्रदूषण हो रहा है? इसको कम करने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं, इस पर पूरे सालभर ये लॉबी इतनी सक्रिय क्यों नहीं दिखती?
क्या है, वायु-प्रदूषण का मुख्य कारण
वायु प्रदूषण को लेकर दुनिया की तमाम रिपोर्ट बताती है कि सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने के मुख्य कारकों में वाहन, उद्योग, कृषि, पावर प्लांट, अपशिष्ट और बायोमास को जलाना इत्यादि शामिल है।
मार्च 2017 की टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में वायु प्रदूषण के सात मुख्य कारक इस तरह हैं। पटाखे तो आठवें नंबर पर हैं-
- पराली (यानी फसल कटने के बाद की ठूंठ जलाना)
- दिल्ली में अत्यधिक वाहनों का होना
- ठंड में चूंकि धूलकण वगैरह नीचे नहीं बैठ पाते, तो प्रदूषण बढ़ता है
- दिल्ली में बहुत अधिक आबादी का होना
- पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान न देने की वजह से भी प्रदूषण बढ़ता है
- दिल्ली में बहुत अधिक निर्माण-कार्य और उससे होने वाली धूल भी कारण है
- औद्योगिक प्रदूषण और कूड़े का डंपिंग यार्ड
- पटाखे
दिवाली पर पटाखे बैन का सुनियोजित खेल
साल 1998 में अनिल कुमार मित्तल सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करते हैं। 3 जनवरी, 1998 की एक खबर का हवाला देते हुए याचिका दायर की जाती है। खबर यह है कि 13 साल की लड़की से दुष्कर्म होता है, लड़की मदद के लिए आवाज लगाती है, लेकिन पड़ोस में लाउडस्पीकर के शोर के कारण उसकी आवाज किसी को नहीं सुनाई देती है। इस घटना के बाद पीड़िता उसी शाम यानी (3 जनवरी, 1998) को आत्महत्या करती है।
यह घटना इतनी बड़ी थी कि इसके बाद भारत सरकार को समय-समय पर शोर प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए संशोधन करना पड़ा। नई-नई गाइडलाइन आती-जाती रहीं। यह सिलसिला चलता रहा।
27 सितम्बर, 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने अनिल कुमार मित्तल की याचिका वाले केस को आधार बनाते हुए पटाखों पर बैन लगा दिया। कोर्ट ने पटाखों को जलाने का समय और सीमा दोनों तय कर दी।
आर सी लाहोटी और अशोक भान की 2 जजों की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि ध्वनि प्रदूषण से मुक्ति संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है। कोर्ट ने आगे अपने आदेश में कहा कि शोर प्रदूषण के पीड़ित पहले भी रहे हैं और आज भी हैं। इस तरह की तमाम दलीलें देते हुए कोर्ट ने पटाखों पर बैन लगने का सिलसिला शुरु कर दिया।
यह पहली बार था जब पटाखों पर किसी तरह का बैन लगा हो। चौंकाने वाली बात तो यह है कि 13 साल की लड़की के दुष्कर्म का मामला पटाखों से संबंधित नहीं था बल्कि लाउडस्पीकर से संबंधित था। बावजूद कोर्ट ने दिवाली पर जलने वाले पटाखों को ध्वनि प्रदूषण के सबसे बड़े कारकों में से एक कारक माना।
आवाज फाउंडेशन, सुनियोजित षडयंत्र
यह सिलसिला साल दर साल चलता रहा। इस दौरान एक मशहूर पर्यावरणविद् सुमैरा अब्दुल अली 21 फरवरी, 2006 को आवाज फाउंडेशन की स्थापना करती हैं। यही फाउंडेशन आगामी कुछ सालों में पटाखों के खिलाफ सबसे बड़ी आवाज बनकर उभरी।
आवाज फाउंडेशन ने विभिन्न राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ काम करते हुए एक एजेंसी शुरू की, जिसने पटाखों की ध्वनि के स्तर का परीक्षण करना शुरु किया और पटाखों को बैन करने के इस अभियान का नेतृत्व करना शुरु किया। इस तरह के कई अभियान आज भी चलते हैं। आए दिन सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल गैंग इस पर याचिका दायर करती रहती है।
दिल्ली से शुरु हुआ यह सुनियोजित षडयंत्र आज भारत के कई प्रमुख शहरों तक पहुंच गया है। भारत के शहरों से लेकर गांवों तक दिवाली-दशहरा आते ही ध्वनि और वायु प्रदूषण के नाम पर जगह-जगह ज्ञान परोसा जाता है। पटाखों के जलने से लेकर उनके बुझने तक के नुकसान से अखबारों के पन्ने भरे रहते हैं।
इस तरह के सुनियोजित अभियान मात्र दिवाली-दशहरा पर पटाखों के बैन तक नहीं रुकते हैं। यहां तो हिंदू-प्रतीकों को ही हर तरफ से हटाने और उनके प्रति हीन भावना पैदा करने की तैयारी चल रही है। हाल ही में ओणम के मौके पर भी हिंदू प्रतीकों को हटाने से लेकर दही-हांडी की ऊंचाई कितनी होगी, कितनी नहीं, यह तय करने का काम भी यही लॉबी कर रही है। जलीकट्टू में क्या होना चाहिए क्या नहीं, तथाकथित पशुप्रेमी लॉबी इस बात को तय कर रही है। इन सभी षडयंत्रों का परिणाम आज हम सभी के सामने है।