समाज में समानता व्याप्त हो और सभी सम्मान के अधिकार के साथ जी रहे हों इससे किसे परेशानी हो सकती है? शायद उसे, जिसे इसका विरोध करने से फायदा मिले? वर्ष 2019 में महिला अधिकारों को शक्ति देने एवं समाज में समानता के अधिकार के पक्ष में मोदी सरकार द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया था। मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2019 द्वारा तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं को सरंक्षण प्रदान किया गया था। हालाँकि ऐसा प्रतीत होता है कि समाज भले ही इस कानून के साथ आगे बढ़ गया हो पर इस मुद्दे से राजनीतिक दुकानें चलाने की कोशिश आज भी जारी है।
केरल के मुख्यमंत्री विजयन का कहना है कि तलाक सभी धर्मों में होते हैं तो मुस्लिम पुरुषों को इसके लिए सजा क्यों दी जाती है? इस दौरान उन्होंने सीएए पर भी बात की। केरल के मुख्यमंत्री शायद इस विषय पर ध्यानाकर्षण कर सभी धर्मों के लिए समान कानूनों की पैरवी कर रहे थे। हालाँकि समानता पर उनके विचार स्पष्ट नजर नहीं आते हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 21 सभी को समानता से जीवन जीने का अधिकार देते हैं तो अनुच्छेद 25 सभी को अपने-अपने धर्म को अबाध रूप से मानने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। क्या इन दोनों में विरोधाभास नहीं है? संविधान प्रदत्त समानता एवं धर्म बाधित स्वतंत्रता में विरोधाभास हो सकता है पर बात यदि न्याय करने की हो तो आप किसे उचित ठहराएंगे? विजयन जब कहते हैं कि तलाक देने पर मुस्लिम पुरुषों को सजा मिलती है तो शायद वो भूल जाते हैं कि कानून द्वारा उन्हें भी एक प्रक्रिया के तहत तलाक लेने का अधिकार है और इसके लिए किसी सजा का प्रावधान नहीं है। क्या ये समानता का अच्छा उदाहरण नहीं है?
जिस शरीयत कानून के संरक्षण की विजयन बात कर रहे हैं वो 20 इस्लामी देशों में अवैध घोषित है। ऐसे में उसे एक लोकतांत्रिक, संविधान संचालित देश में सरंक्षण प्राप्त क्यों रहे? इस प्रश्न का उत्तर विजयन के पास मिलना संभव नहीं है। हाँ, केरल के मुख्यमंत्री को अगर विश्वास है कि ये कानून मुस्लिम पुरुषों के साथ अन्याय है तो जिस समय शीर्ष अदालत ने इसे असंवैधानिक और कुरान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ बताया था तब उन्होंने इसे अदालत में चुनौती क्यों नहीं दी?
तीन तलाक का उन्मूलन महिला उत्थान की दिशा में उठाया कदम है न कि धार्मिक दमन का प्रतीक। मार्क्सवादी नेता ने यही समझने में भूल की है। तीन तलाक सरकार द्वारा उठाया गया कानून सम्मत सुधारात्मक कदम है और सामाजिक सुधार की ओर मात्र पहली सीढ़ी है। देश जिन विविधताओं को लेकर खड़ा है उनमें ऐसी कई सामाजिक सुधारों की गुंजाइश होगी और कई कानूनों में बदलाव भी देखने को मिलेगा।
कई बार बुद्धिजीवियों की समस्याएं कपोल कल्पित नजर आती हैं। ये अपने संसार में विचरण करते हैं और उसी के अनुसार दूसरे के अधिकारों की पैरवी भी। क्या इन्होंने जमीनी हकीकत पर नजर डाली है?
देश की मुस्लिम आबादी में महिलाओं की साक्षरता दर केवल 25.29% है। वर्ष 2017 में हुए एक सर्वे के अनुसार अन्य धर्मों की तुलना में मुस्लिम समाज में 40 प्रतिशत तलाक के मामले अधिक हैं। इसका दंश कौन झेलता है? मशहूर प्रागतिवादी और कम्युनिस्ट शायर फैज अहमद फ़ैज़ की पंक्तियां थी कि बोल कि लब आजाद हैं तैरे, बोल ज़ुबाँ अब तक तेरी है.. पर तीन तलाक के वैध होते हुए क्या मुस्लिम महिलाएं बोल सकती थीं? तीन तलाक द्वारा जब मुस्लिम महिला के अधिकार को छीना जाता था तब विजयन ने उनके अधिकार की बात क्यों नहीं की और क्यों नहीं उनके समानता के अधिकार की और ध्यानाकर्षण किया?
संभव है कि अब सीएए एवं तीन तलाक के मुद्दे पर बात कर विजयन कट्टर धर्मनिरपेक्ष नेता की अपनी छवि को मजबूत करना चाह रहे हों। ऐसे में उनके लिए कुछ सुझाव हैं जिसके जरिए वो असमानता के शिकार लोगों के लिए अपनी आवाज उठा सकते हैं।
अपने अगले आख्यानों में विजयन को हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट एक्ट पर बात करनी चाहिए और इस बात को मुखरता से उठाना चाहिए कि चर्च और मस्जिद की तरह हिंदू मंदिरों के कोष भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त हों। साथ ही वो समान नागरिक संहिता पर बात करके भी सभी धर्मों के लिए समान कानून की पैरवी कर सकते हैं। इसके साथ ही मुस्लिम पुरुषों से संवेदना रखने के साथ ही वो ‘तलाक-ए-हसन’ एवं ‘खुला’ जैसे नियमों पर मुस्लिम महिलाओं के दमन का विरोध भी अगले आख्यानों में दर्ज करवा सकते हैं।
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देश में राजनीति और विचारधारा की लड़ाई में कई ऐसे अवसर आए हैं जब सामाजिक संवेदनाओं की तिलाजंलि दे दी गई है। मार्क्सवादी नेता ऐसे मामलों पर बयान देने वाले प्रथम व्यक्ति नहीं है और आखिरी भी नहीं होंगे। उनका बयान किन श्रोताओं के लिए है, वो यह जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता पर बात करते हुए समानता का जो विरोधाभास नजर आता है, वो इसे नजरअंदाज कर देते हैं। हालाँकि, मुख्यमंत्री जी से इतनी उम्मीद लगाई जा सकती है कि जब वो शीर्ष अदालत द्वारा दिए फैसले पर विरोध दर्ज करवाएं तो अपने पक्ष को तथ्यों के साथ पेश करे जिससे उनकी चिंताएं मात्र राजनीतिक कदम नहीं बल्कि सामाजिक सुधार का प्रतीक नजर आएं।