हिन्दी दिवस के अवसर पर विभिन्न राज्यों की भाषाई विषमता का मुद्दा भी जरुर उठता है, हालाँकि आधुनिक हिन्दी को उन्नत करने में कुछ अहिन्दी भाषी महापुरुषों का अभूतपूर्व योगदान रहा है। इनमें से एक बहुत बड़ा नाम हैं वीर सावरकर, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने मूल संस्कृत शब्दों से अनेक नए व आवश्यक शब्दों का निर्माण व आयात कर हिन्दी को एक परिपूर्ण स्वरूप देने की कोशिश की थी।
शहीद की जगह ‘हुतात्मा’ और मेयर की जगह ‘महापौर’ जैसे अनेक शब्द वीर सावरकर ने ही प्रवर्तित और प्रचलित किए थे। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की उनकी आधारशिला ही बाद में रघुवीरी हिन्दी की आधार बनी जो प्रशासनिक कार्यों में प्रचलित है। हिन्दी को लेकर वीर सावरकर का आग्रह इतना था कि अपनी विचारधारा की दिग्दर्शक और प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’ में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की स्थापना को उन्होंने हिन्दुत्व का एक ‘प्राण’ माना था।
यह भी उल्लेखनीय है कि ‘हिन्दुत्व’ शब्द का प्रवर्तन भी उन्हीं की देन है, जिसने राष्ट्र को आच्छादित किया हुआ है। उनकी पुस्तक ‘हिन्दुत्व के पंच प्राण’ में हिन्दी पर उनका क्या अभिमत है, आज हिन्दी दिवस के अवसर पर यह जानना प्रासंगिक होगा।
सावरकर की हिन्दी प्रतिज्ञा

देश में उस समय गांधीजी और अन्य ‘सेकुलर’ नेताओं द्वारा राष्ट्रीय भाषा के लिए ‘हिन्दुस्तानी’ का नाम चल रहा था। ‘हिन्दुस्तानी’ क्या थी? जबरन ठूंसे गए उर्दू शब्दों के भरमार वाली हिन्दी। क्यों? तुष्टीकरण ही एकमात्र कारण था। यह तब हो रहा था जब उन विदेशी अरबी शब्दों से भारत की अधिकांश जनसंख्या अनभिज्ञ थी। इसका सावरकर ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने लिखा –
“हिन्दू-मुसलमानों की एकता के विचार से बावले बने लोग कितना भी त्याग क्यों न करें, उससे मुसलमानों को सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। अतएव राष्ट्रीय भाषा एवं राष्ट्रीय लिपि के प्रश्न को सुलझाने का इष्टतम एवं एकमेव मार्ग यही है कि प्रत्येक हिन्दू प्रकट रूप से एवं निर्भयता से यह प्रतिज्ञा करे कि : “संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही हम हिन्दुओं की राष्ट्रभाषा है एवं संस्कृतनिष्ठ नागरी लिपि ही हम हिन्दुओं की राष्ट्रलिपि है !”
हिन्दी को नष्ट करने वाला था गाँधी जी का समझौता

मुसलमान उर्दू को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की जिद कर रहे थे, यहाँ तक कि देवनागरी का भी विरोध कर रहे थे। जबकि हिन्दी और अरबी से बनी नकली भाषा उर्दू से हिन्दी लाखों गुणा श्रेष्ठ और मौलिक है व अनन्त शब्दों की निर्माण शक्ति रखती है। इसपर ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में गांधीजी ने अजीबोगरीब उपाय सुझाया, जो केवल हिन्दी को ही नष्ट करता था। उन्होंने कहा,
“सब-कुछ करने पर भी जब मुसलमान नागरी लिपि को मान्यता नहीं देते तो लिपि के ‘एक’ ही होने का विचार त्याग दिया जाय। राष्ट्रभाषा हिन्दी को हिन्दू नागरी में लिखें तथा मुसलमान ‘अलेफबे’ की उर्दू लिपि में — एवं दोनों लिपियों को राष्ट्रीय लिपि की पदवी प्रदान की जाये – समस्त राष्ट्रीय शासकीय लेखन दोनों लिपियों में प्रकाशित किया जाये तथा हिन्दी भाषा में संस्कृतोत्पन्नता एवं संस्कृतनिष्ठता की जो दुर्गंध मुसलमानों को आती है उसे यथासम्भव कम किया जाये और इसीलिए हिन्दी भाषा में संस्कृतोत्पन्न शब्दों के समान ही सैकड़ों अरबी, फारसी आदि उर्दू शब्द भी मिलाये जाएँ। तीसरी बात यह है कि हिन्दी का नाम भी ‘हिन्दी’ ऐसा न रखते हुए, ‘हिन्दी यानि हिन्दुस्तानी’ ऐसा रखा जाये !”
राष्ट्रभाषा का अर्थ और हिन्दी भाषा का उन्नत क्षेत्र
सावरकर ने हिन्दी भाषा को ‘भाषा’ माना व उर्दू जैसी विकलांग और मिलावटी बोलियों को सिरे से नकार दिया। उन्होंने कहा,
“किसी भी देश की राष्ट्रभाषा तो वह होती है जिसमें उस राष्ट्र का सारा उच्च साहित्य होता है। भारत की राष्ट्रीय भाषा वह हो सकती है, जिसमें भारत के प्रत्युच्च विचार, दर्शन, काव्य, रसायन, वैद्यक, पदार्थविज्ञान, यन्त्रशिल्प, भूगर्भ आदि अनेक विज्ञानों का एवं राजकीय, सामाजिक, धार्मिक जीवन का व्यक्तीकरण सम्भव हो सके, ऐसी सम्पन्नता, प्रौढ़ता तथा प्रगतिशीलता उसमें हो, ऐसे विभिन्न विचारों को, भावों को, भावनाओं को व्यक्त करने का सामर्थ्य क्या सड़कछाप बाज़ारू बोली में भी कभी हो सकता है ?

रसायन या गणित या वैद्यक या ज्योतिष या यन्त्र आदि विज्ञानों में आवश्यक हज़ारों पारिभाषिक शब्द क्या ऐसी सड़कछाप बोली में भी कभी मिल सकते हैं ? वह सर्वथा असम्भव है। पारिभाषिक नूतन शब्दों को हमें हमारी उस सुसम्पन्न संस्कृत भाषा से ही प्राप्त करना चाहिए— साध्य करना चाहिए, जो मानो शब्द रत्नों का रत्नाकर ही है, हिन्दी की प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है।
इतना ही नहीं तो उसकी वह जननी भी है शब्द प्रसवक्षमता में संस्कृत से बढ़कर कोई भी भाषा संसार में प्राज दिखाई नहीं देती। उस संस्कृत का शब्दरत्नाकर एवं साहित्य-क्षीरसागर जब द्वार पर है तब कृपणता की नारियली हाथ में लेकर मरुभूमि के अरबी रेगिस्तान में ‘पानी ! पानी !‘ करते हुए हम क्योंकर भटकें ?“
हिन्दी भाषा की देवी सरस्वती हैं
वीर सावरकर ने हिन्दी भाषा को ही राष्ट्रभाषा के अनुकूल मानकर माँ सरस्वती को हिन्दी की देवी माना और कहा –
“हम हिन्दुओं की राष्ट्रभाषा जो हिन्दी है, उसके विश्वविद्यालयों पर, हम हिन्दुओं की संस्कृति की अधिष्ठात्री देवता सरस्वती है उसी का ध्वज निःसंकोच रूप से एवं निर्मुक्तता से फड़कता रहेगा। संस्कृत शब्दरत्नाकर से आवश्यक नव- नवीन पारिभाषिक शब्द उसे अनिरुद्धता से प्राप्त होते रहेंगे।”

बहुसंख्यकों की भाषा से नहीं होना चाहिए खिलवाड़
सावरकर ने हिन्दी के शुद्धतम रूप को प्राथमिकता दी और उसकी समृद्धि का स्रोत संस्कृत व भारतीय भाषाओँ को माना, उन्होंने हिन्दी भाषा में उर्दू व अंग्रेजी मिलावट का तीव्र विरोध किया और इसे हटाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा –
“वही भाषा राष्ट्रभाषा का स्थान पा सकती है जो बहु संख्यकों के लिए सुलभ तथा अनुकूल हो—इसीलिए बहुसंख्यक हिन्दुओं के हिन्दुस्थान में जो भाषा संस्कृतनिष्ठ होगी वही राष्ट्रभाषा के स्थान को सहज ही प्राप्त होगी। इसीलिए वह हिन्दी भाषा जितनी संस्कृतनिष्ठ होगी उतना ही उसका राष्ट्र भाषाक्षमत्व अधिक हो होगा।
अतएव हिन्दी प्रदेशों में भाषा-शुद्धि पर गर्व रखने वाला जो पक्ष है उसे चाहिए कि वह अब हिन्दी को पूर्णतः संस्कृतनिष्ठ बनाने का और गतकालीन मुस्लिम वर्चस्व के द्योतक होने वाले उर्दू शब्दों को कंकड़ के समान बीन-बीनकर निकाल फेंकने के बहिष्कार आन्दोलन का प्रकट निश्चय करें और एक भी अनावश्यक अंग्रेजी या उर्दू शब्द हिन्दी में प्रयुक्त न होने दें।”
दुःख की बात है कि आज हिन्दी में अंग्रेजी व उर्दू का अनावश्यक प्रयोग बिना किसी रोकथाम के हो रहा है जिस कारण हिन्दी के सरल सहज व सामान्य शब्द भी अपना अस्तित्व खो रहे हैं। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी राष्ट्र की एकता का सूत्र है, यह मराठी के महान साहित्यकार वीर सावरकर को अच्छे से पता था।