युद्ध में अपराजय अमेरिकन पेटन टैंक लेकर पाकिस्तान युद्ध की धरती पर उतरा था। जीत का सेहरा बाँधने को अमेरिका से हथियार जो लाया था, लेकिन, उसे कहाँ पता था कि गाजीपुर का एक रणबाँकुरा अकेले उसके विदेशी ‘अपराजित’ टैंकों के परखच्चे जीप से ही उड़ा देगा।
हम बात कर रहे हैं गाजीपुर, उत्तरप्रदेश के वीर अब्दुल हमीद की, जिन्होंने 10 सितंबर 1965 को युद्ध भूमि में आखिरी सांस ली थी। भारत-पाक युद्ध में अपने असाधारण शौर्य और वीरता के लिए उन्हें महावीर चक्र और परमवीर चक्र प्राप्त हुआ था। सेवाकाल के दौरान वो सैन्य सेवा मेडल, समर सेवा मेडल, रक्षा मेडल से भी सम्मानित हो चुके हैं।
शुरुआती जीवन
अब्दुल का जन्म गाजीपुर के धरमपुर गाँव के साधारण दर्जी परिवार में 1 जुलाई, 1933 को हुआ था। बालपन से ही अब्दुल ने अपनी बहादुरी का परिचय दिया था। 21 वर्ष की आयु में रेलवे में भर्ती होने गए थे लेकिन, नियति उन्हें सेना में देश सेवा के लिए ले गई।
1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के दौरान वो नेफा में तैनात रहे इसलिए अपना पराक्रम दिखाने का मौका नहीं मिला हालाँकि, मौके की फिराक में बैठे पाकिस्तान ने अब्दुल हमीद को ज्यादा इंतजार नहीं कराया और आक्रमण कर दिया। युद्ध पर जाने से पहले अब्दुल हमीद ने अपने भाई से कहा था..
“पल्टन में उनकी बहुत इज्जत होती है जिन के पास कोई चक्र होता है, देखना झुन्नन हम जंग में लड़कर कोई न कोई चक्र जरूर लेकर लौटेंगे”
असल उत्तर का युद्ध
अमृतसर की दक्षिण दिशा में एक छोटा सा गाँव है जो कि ‘असल उत्ताड़‘ के नाम से जाना जाता था। यही वो जगह थी जहाँ 1965 के युद्ध में भारत ने पाक को जवाब दिया था, इसलिए इसे इसका नाम ‘असल उत्तर’ निकाल दिया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से किसी युद्ध में टैंकों का इस्तेमाल नहीं हुआ था। भारत और पाक के बीच युद्ध छिड़ा और पाकिस्तान अपने विदेशी हथियारों की गुमानी में सीमा पार कर गया। हालाँकि, जल्द ही पाक को मुँह की खानी पड़ी.
जब पाकिस्तान को लगा कि कश्मीर तो नहीं मिला लेकिन, लाहौर भी जा रहा है तो उसने नया ऑपरेशन लॉन्च कर दिया जिसका नाम ऑपरेशन ‘ग्रैंड स्लैम’ था। इस ऑपरेशन के जरिए चेनाब पर स्थित अखनूर ब्रिज को कब्जे में लेना था।
7 सितंबर तक खेम करण में पाकिस्तानी सेना को रोकने के लिए भारतीय सेना ने असल उत्तर में 1/9 गोरखा राइफल्स के जवानों की तैनाती की गई थी। दुश्मन सेना ने 100 अमेरिकन पेटन टैंकों के साथ धावा बोला था। माउंटेन बिग्रेड ऊंचे इलाकों में लड़ाई के लिए प्रशिक्षित थी लेकिन, बख्तर बंद टैंकों के सामने उनकी एक नहीं चली।
7 सितंबर को 4 ग्रेनेडियर को भारी RCL गन मिली थीं, जिन्हें जीप में तैनात किया जाता था और उस दिन ऐसी ही जीप में सवार थे अब्दुल हमीद। इस गन की खासियत यह भी थी कि जब यह चलती थी तो पीछे की ओर धक्का नहीं लगता था लेकिन, आग का गोला निकलता था, जिससे चलाने वाले के स्थान का पता चल जाता था।
अब्दुल की ‘वीर’ बनने की कहानी
असल उत्तर के आस-पास गन्ने के खेत थे और इनके बीच से बचकर निकला जा सकता था। हालाँकि, पाक ने चालाकी दिखाते हुए अपने टैंक एक किनारे पर तैनात किए थे। भारतीय सेना को कोई जल्दी नहीं थी, उन्होंने तबतक इंतजार किया जब तक पाकिस्तानी टैंक करीब नहीं आ गए।
अब्दुल हमीद जो जीप के साथ पाकिस्तानी टैंकों को नेस्तनाबूद करने के लिए तैनात थे ने 180 मीटर की दूरी से निशाना साधा और पहले टैंक को निशाना बनाकर उड़ा दिया और दिन खत्म होने से पहले दो टैंकों को धूल में मिला दिया।
पाक सेना जिन टैंकों के दम पर अंदर घुस आई थी ने अपने टैंक वहीं छोड़कर भाग खड़ी हुई। अगले दिन पाकिस्तान ने 4 ग्रेनेडियर की पोजिशन पर जोरदार धावा बोल दिया, जिसके सामने भारतीय सेना, जिसके पास उपयुक्त हथियारों की भी कमी थी कमजोर पड़ने लगी थी।
जब अब्दुल ने 6 पाकिस्तानी टैंकों को अपने साथियों की ओर बढ़ते देखा तो वो तुरंत जीप मे बैठे और RCL गनों से टैंकों पर निशाना लगाना शुरू कर दिया। खेत में छुपने का फायदा उठाकर हमीद ने आगे के टैंक को उड़ाया और उसके पीछे 2 और टैंक को धूल में मिला दिया।
हालाँकि, इसी बीच दुश्मन की नजर उनपर पड़ गई और पाकिस्तानी टैंक का एक गोला सीधा आके उन्हें लग गया। हमीद का शरीर युद्ध भूमि में ही क्षत-विक्षत हो गया उनके शरीर के हिस्सों को इकठ्ठा कर वहीं दफना दिया गया। इस अकेले जांबाज ने दुश्मन सेना के 7 टैंकों को अकेले ही धूल जो चटा दी थी।
आखिरी टैंक को उड़ाते हुए 32 वर्षीय वीर अब्दुल हमीद ने अपनी जान देश के लिए दे दी। अपने भाई से उन्होंने जो वादा किया था वो भी पूरा किया, उन्हें मरणोपरांत उनके अदम्य शौर्य के लिए सर्वोच्च सैनिक सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।