इसमें कोई दो राय नहीं है कि उत्तराखंड ने देश को बहुत से प्रतिभावान फुटबॉल खिलाड़ी दिए हैं। गढ़वाल से लेकर कुमाऊँ तक, उत्तराखंड गढ़ रहा है बहुत से युवा खिलाड़ियों का जिन्होंने देश का नाम अपने हुनर से रौशन किया है।
मुनस्यारी का वो छोटा सा हेमराज, जिसकी इसी साल जून माह में एक वीडियो चर्चित हो गई थी हेमराज ने अपनी कॉर्नर किक से ओलम्पिक गोल को अंजाम दिया। उसकी प्रशंसा स्वयं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी की थी।
आज मनीष मैठानी मोहन बगान से खेल रहे हैं, दीपेन्द्र नेगी भी टॉप टियर इंडियन सुपर लीग में हैदराबाद से खेल रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ये सभी लोग उत्तराखंड से नहीं खेल रहे हैं। तो फिर उत्तराखंड में फुटबॉल के नाम पर चल क्या रहा है? यदि फुटबॉल इस पहाड़ी राज्य का राज्य खेल है तो फिर इस खेल की अवनति क्यों?
उत्तराखंड में फुटबॉल से जुड़े कारनामों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि इस राजकीय खेल का पूरी तरह से इस्लामीकरण किया जा रहा है। सारे प्रयोजन, तमाम प्रक्रियाएँ और सरकारी मशीनरी इसके इस्लामीकरण के लिए लगाई गई हैं। अब जब सारी शक्ति उत्तराखंड राज्य ने अपने राजकीय खेल फुटबॉल की इस्लामियत को क़ायम करने में झोंक रखी हो तो फिर खेल पर ध्यान कैसे दिया जा सकता है?
उत्तराखंड तो वास्तव में लंबे समय से भ्रष्टाचारी एवं इस्लामी फुटबॉल खेल रहा है। सुन कर ताज्जुब हो पर आज उत्तराखंड फुटबॉल की फ्रैन्चाइजी तो दूर, खुद की राज्य स्तर की एक बड़ी प्रतिस्पर्धा तक नहीं है। खेल स्तर के नाम पर जो मजहबी राजनीति हो रही है वो और भी सवाल खड़े करती है।
बृहस्पतिवार (29 दिसंबर, 2022) को उत्तराखंड की फुटबॉल टीम का मुकाबला हुआ दिल्ली से। मौक़ा था संतोष ट्रॉफी का, जिसमें दिल्ली ने बड़ी आसानी से 2-1 से यह मैच अपने नाम कर दिया।
यहाँ लाइनअप के बाद, खेल शुरू होने से पहले की जर्सी देखने लायक थी। जहाँ दिल्ली नारंगी में नज़र आया, वहीं उत्तराखंड के फुटबॉल खिलाडियों ने पहनी थी हरी जर्सी। सवाल यह उठता है कि बात जर्सी के रंग पर आ कर क्यों ठहर गई?
इसके लिए इस पूरी पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक है। दो जर्सी एक फुटबॉल टीम को प्रदान होती हैं उनके एसोसिएशन के द्वारा। लेकिन उत्तराखंड की दोनों जर्सी हरे रंग की ही थीं।

इस जर्सी के हरे रंग के पीछे का कारण विचलित करने वाला है। दरअसल, यह सब कुछ जानबूझ कर एक लंबे अरसे से सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। हरा रंग इस परिपेक्ष में मात्र एक रंग नहीं बल्कि एक एजेंडा है। या कहें कि सॉफ्ट एजेंडा!
इसे सीधे तौर पर उत्तराखंड फुटबॉल के इस्लामीकरण से जोड़ा जा रहा है और इसके लिए ज़िम्मेदार बताया जा रहा है उत्तराखंड स्टेट फुटबॉल संगठन के प्रबंधन को।
उत्तराखंड स्टेट फुटबॉल संगठन वर्तमान में नैनीताल में स्थित है। और इसके जनरल सेक्रेटरी रहे हैं एस अख़्तर अली। मात्र इतना ही नहीं, अगर हम एक नज़र सिर्फ 2014 से 2018 के समिति सदस्यों को देखें तो इस दौरान सुल्तान खान इस संगठन के उपाध्यक्ष रहे हैं और कोषाध्यक्ष थे मोहम्मद इदरीस। एक बार के लिए इस संगठन को अगर उत्तराखंड के कुमाऊँ मण्डल से भी जोड़ कर देखें तो इसमें संदेह की गुंजाइश फिर भी थोड़ी कम लगती क्योंकि गढ़वाल मण्डल के मुक़ाबले कुमाऊँ मण्डल में मुस्लिम समुदाय की तादाद पिछले कुछ समय में बड़े स्तर पर बढ़ी है। उत्तराखंड में मुस्लिम आबादी एवं जनसांख्यिकी का मुद्दा अक्सर खबरों में बना भी रहता है।
आधिकारिक वार्तालाप में 786 की भूमिका
देवभूमि उत्तराखंड की आधिकारिक कार्यवाही पर अगर ध्यान दें तो उत्तराखंड फुटबॉल संगठन एक ‘विशेष संख्या’ का उपयोग अपने हर लेखन सम्बन्धी कार्यों में करता है। अमूमन, लेटरपैड में अनुक्रमांक संख्या ज़रूर होती है, लेकिन उत्तराखंड राज्य के इस फुटबॉल संगठन पर नज़र डालें इस कार्यकारी सदस्यों की सूची वाले लेटरपेड पर तो ‘REF नं 786 /USFA’ से ही शुरुआत होती है।
यह प्रचलन ऐसा है कि साल 2014 की नियुक्तियों के बाद से उनके हर लेटरपेड पर ‘786’ छपा हुआ रहता है। 786, जिसका सूत्र है इस्लाम की आसमानी किताबों में। पर इसका देवभूमि उत्तराखंड में प्रयोग? वह भी तब, जब खेल में आचार संहिता के सख्त दिशा-निर्देश हैं कि खेल गतिविधियों को धार्मिक-मज़हबी प्रवर्तन से अलग रखा जाएगा।

बहरहाल, इन मज़हबी गतिविधियों से जुड़ी हर कारस्तानी को सूची पर संगठन के पदाधिकारियों के नाम स्पष्ट कर ही देते हैं। यह सब तब भी हो रहा है जब राज्य सरकार की बागडोर भाजपा के हाथों में है।
आरटीआई के माध्यम से कई बार इस प्रकरण से जुड़ी सूचनाएँ माँगी गई हैं। वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं ने संगठन की कार्य प्रणाली में पारदर्शिता की मांग की थी। अलबत्ता! उनके अनुसार, उन्हें कभी भी कोई सार्थक उत्तर नहीं मिला। बल्कि साल 2020 से तो इस पूरे प्रकरण को और हवा मिली है।
संगठन की बदहाली का आलम ये है कि उत्तराखंड फुटबॉल संगठन ने राज्य स्थापना से लेकर अब तक इन 22 सालों में एक भी फुटबॉल लीग का आयोजन नहीं किया है। फिर कठघरे में आते दिखते हैं संगठन के बड़े आयोजनकर्ता और चयनकर्ता।
चयनकर्ताओं पर यह आरोप तक लगे हैं कि इन्होने एक विशेष समुदाय के खिलाड़ी को दूसरे खिलाड़ियों के ऊपर वरीयता दी है। यह घटनाक्रम हमें एक बार फिर स्मरण करवाता है अभी से लगभग 2 वर्ष पूर्व घटित वासिम जाफर प्रकरण का। एक सत्र के लिए उत्तराखंड क्रिकेट टीम के मुख्य कोच चयनित हुए थे दिग्गज बल्लेबाज़ वसीम ज़ाफ़र। उनकी नियुक्ति को भी उत्तराखंड क्रिकेट के विकास में देखा जा रहा था कि तभी एकदम से उनकी मज़हबी गतिविधियों पर आरोप उजागर हुए। उत्तराखंड क्रिकेट संघ सचिव महिम वर्मा ने यह तक बोल डाला था कि जाफर ने कुणाल चंदेला की जगह इक़बाल को कप्तान चुना। सहयोगी स्टाफ के बयान जारी हुए थे जब कैंप के दौरान जाफर मौलवियों को बुलाते थे। टीम स्लोगन ‘हनुमान की जय’ को बदलकर ‘गो उत्तराखंड’ करवाना और फिर जाफर का अपने बचाव में तत्यागपत्र इस पूरे मामले में और संदेह पैदा करता है।
‘होटल में जाते हैं और अध्यक्ष बन जाते हैं’
संगठन के इस्लामीकरण के प्रकरण को दरकिनार करके सिर्फ उनके प्रबंधन को ही देखें तो भी निराशा भाव ही मन में उत्पन्न होता है। खेल पत्रकार राजू गुसाईं अपने ट्वीट में कहते हैं कि हर चार साल में फुटबॉल फील्ड की दुनिया से अपरिचित व्यक्ति राज्य फुटबॉल का अध्यक्ष बन जाता है। पहले रविकिशन गायकवाड़, फिर 2018 में अमनदीप संधू और अब हाल ही में निर्वाचित हुए सुबोध उनियाल।
उन्होंने व्यंग्य करते हुए लिखा कि ये सब लोग होटल में जाते हैं और अध्यक्ष नियुक्त हो जाते हैं। पारदर्शिता की जनरल सेक्रेटरी- एस ए अली ने कुछ ऐसे धज्जियाँ उड़ाईं कि उत्तराखंड फुटबॉल संगठन अभी भी भ्रष्टाचार में लिप्त लगता है। अभी जब कैबिनेट मंत्री सुबोध उनियाल अध्यक्ष चुने गए तो आल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन का सदस्य इस तथाकथित चुनाव में उपस्थित नहीं था। तो फिर यह चुनाव मान्य कैसे हुए? पारदर्शिता कितनी ज़्यादा पार हो गई पता ही नहीं चला। यह कुछ अनुत्तरित सवाल हैं।
साल 2013 में जब उत्तराखंड फुटबॉल संगठन के राजीव मेहता भारतीय ओलिंपिक महासंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए, तब रविंद्र किशन गायकवाड़ को नियुक्त कर दिया गया। परन्तु इन महाशय की पृष्ठभूमि, इनका दूरभाष और पता नदारद था।

7 महीने लग गए इस पूरे मसले की छानबीन करते हुए। फिर जाकर किच्छा तहसील के नारायणपुर निवासी वीरेंदर कुमार सिंह के नाम पर दिखाया गया। लैंडलाइन नंबर किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर दिखा। और सबसे अनोखी बात कि साल 2007 और 2011 राज्य फुटबॉल संघ के समय तो ये व्यक्ति मौजूद ही नहीं था।
मोहम्मद इदरीस के कार्यकाल में उत्तराखंड फुटबॉल फेडरेशन का फुटबॉल रेफ़री टेस्ट में फर्जीवाड़ा (2016) भी सामने आया था। फुटबाल रेफरी का चयन फुटबॉल आइडेंटिफिकेशन से होता है। लेकिन ये टेस्ट पूरे फ़र्ज़ी तरीके से ही करा दिया गया। और तो और AIFF से टेस्ट हेतु कोई अनुमति तक नहीं ली गई। लेकिन जब महीनों तक नतीजे जारी नहीं हुए तो फिर खेल पत्रकार राजू गुसाईं की एक और आरटीआई से इस प्रकरण का भंडाफोड़ हुआ।

फर्जीवाड़े की एक और दुर्लभ तस्वीर सामने आई। उत्तराखंड फुटबॉल संगठन उत्तराखंड की फुटबॉल राजधानी काशीपुर में एक फ़र्ज़ी प्रतियोगिता आयोजन करते दिखा। इसे हास्यास्पद बनाती है ये बात – 24 फुटबॉल क्लब काशीपुर के एक सरकारी विद्यालय में शिरकत करेंगे। कोई तत्पर्य है इस बात का? उत्तराखंड फुटबाल संगठन आयोजकों को तब उत्तराखंड फुटबॉल संगठन बड़ी लग रही थी। सीधे तौर पर समझें तो ये काशीपुर मे आयोजित ये फर्जी प्रतियोगिता एआईएफ़एफ़ के संज्ञान मे तस्वीरें और औपचारिक जानकारी डालने के लिए थीं ताकि अपने स्वार्थ के लिए अपनी कुर्सियों को सरकने से बचाया जा सके।
16 साल तक मोहम्मद इदरीस अपने कोषाध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे हैं। इनकी शैक्षणिक योग्यता देखेंगे तो शायद मेट्रिक पास भी ना दिखाई दे। साल 2018 में तत्कालीन खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने सभी प्रदेश के राज्यपालों को स्पोर्ट्स कोड लागू करवाने के निर्देश दिए थे।
जवाब में आल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन ने भी उत्तराखंड स्टेट फुटबॉल एसोसिएशन को पत्र भेजकर नियमावली में बदलाव कर स्पोर्ट्स कोड लागू करने के निर्देश दिए। यह तो सुनिश्चित्त हो चुका था कि राज्य गठन के समय से एसोसिएशन पर काबिज सचिव अख्तर अली और उनके साथी सदस्यों की छुट्टी तय है।

चूँकि नेशनल स्पोर्ट्स कोड के मानकों में 8 साल से ऊपर संघ के प्रमुख वरिष्ठ सदस्यों में चाहे सचिव हों या कोषाध्यक्ष, कोई भी 8 वर्ष से ऊपर पदासीन नहीं रह सकता था। स्वयं संघ अध्यक्ष की 12 वर्ष तक की अवधि सीमित है।
हालाँकि, धरातल पर इन सभी नियमों की भी अनदेखी कर दी गई। जहाँ मानदंड पूरे नहीं हुए, तो वहां अपना ही वर्ग विशेष का जानकार स्थापित कर दिया जाए। स्पोर्ट्स कोड के मानक के हनन की ही परिकाष्ठा हुई है कि सुबोध उनियाल, जो कि पहले से ही राज्य कृषि मंत्री हैं और दूर-दूर तक फुटबॉल का ‘ऍफ़’ नहीं जानते, अब अध्यक्ष चुन लिए गए हैं। ये जानते हुए भी कि एक कैबिनेट / संघ में कार्यरत व्यक्ति दूसरे संघ में पदाधिकारी नहीं बन सकता।

बदहाली की स्थिति बिलकुल साफ़ दिखाई देती है। राज्य के फुटबॉल संगठन का प्रबंधन तो खस्ताहाल है ही और ऊपर से इस्लामीकरण की होड़।
इसका एक और पहलू भी सामने लाएँ तो यहाँ भ्रष्ट उत्तराखंड फुटबॉल फेडरेशन से अपेक्षा करना तब और भी हास्यास्पद लगता है, जब उसे मॉनिटर करने वाले आल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (AIFF) को खुद तीसरे पक्ष के प्रभाव व भ्रष्टाचार के कारण बैन कर दिया गया था। यह बैन उस ‘फीफा’ द्वारा आरोपित किया गया जो वैश्विक आंकड़ों में फुटबॉल की सबसे बड़ी भ्रष्ट संस्था साबित हुई है।