साँस फूली हुई थी। हाँफते-हाँफते हेलंग की चढ़ाई पार कर जोशीमठ पहुँचा ही था कि अँधेरे में किसी के सिसकने की आवाज़ आई। टीवी और अख़बारों में देखी त्रासदी को सामने से महसूस कर रहा था। पास जाकर देखा तो एक व्यक्ति बैठा मिला। पूछने पर पता चला कि दिल्ली की मीडिया कम्पनी में नया-नया इंटर्न है और बॉस के आदेश के बावजूद अभी तक किसी के रोने बिलखने की फुटेज उठा नहीं पाया है इसलिए हताश निराश बैठा है।
उसको ढांढस बंधाते हुए मैंने उत्तराखंड में ही रहने की सलाह दी और नई आपदाओं की उम्मीद में आँसू पोंछते हुए उसने भी इस प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त की।
रात घनी हो रही थी और ठंड भी बढ़ रही थी। चाय की एक दुकान खुली मिली। वहीं जाकर बैठ गया और पकौड़ी का स्वाद लेने लगा। अक्सर हम जैसे लोग हर स्थिति में स्वाद ढूंढ ही लेते हैं। यह गुण अधिकतर लोगों के जीवन में कोरोना काल में घुसा था लेकिन मुझमें यह गुण बचपन से ही रहा है।
खैर, चाय पीते-पीते ध्यान उस कागज़ पर गया जिसमें पकौड़ी दी गई थी। अंग्रेजी के मुश्किल शब्द छानकर देखा तो उस पर मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट छपी थी। मैंने चौंकने के भाव बना कर दुकानदार की तरफ देखा ही था कि उसने बगल में बैठे व्यक्ति को पांडे कमेटी की रिपोर्ट के साथ पकौड़ी पकड़ा दीं। दुकानदार का मानना था कि रिपोर्ट जो भी हो वह जनहित में काम आनी चाहिए।
अब सोने का समय नज़दीक आने लगा तो होटल की छानबीन शुरू करने लगा। एक होटल के नीचे भीड़ दिखी। सभी शायद उचित कमरे की तलाश में थे। मैं भी इसी उम्मीद में भागकर पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि वह होटल ढहने वाला है इसलिए सब होटल को गिरते देखने की उम्मीद लगाए खड़े हैं।
जैसे-तैसे मंदिर के पास में एक जगह रहने को मिल गई। पहाड़ में जाने का यह सुखद पहलू है कि आपको रहने के लिए जगह मिल ही जाती है। सुबह नींद हल्ले से खुली। बाहर के कमरे में जाकर देखा तो तीन चार पत्रकार कैमरामैन के साथ कमरे में गोल-गोल घूम रहे थे।
कमरे में दरारें पड़ी हुई थी लेकिन शायद वह दरार को लाइव पड़ते देखना रिकॉर्ड करना चाहते थे। मैं उस घर के मालिक को धन्यवाद कहने के लिए ढूंढ ही रहा था कि वहीं पास में रह रहे एक व्यक्ति से पता चला कि आजकल पत्रकारों के आने से पहले ही लोग अपने काम पर सुबह ही निकल जाते हैं।
आपदा पर्यटन के लिए धीरे-धीरे शहर की ओर निकला। खेतों में सड़कों पर दरारें दिख रही थी। टूटे हुए बिखरे मकान दिख रहे थे। गरीबी का नज़ारा तब देखने को मिला जब एक व्यक्ति खेत में ही सोया हुआ था। भावुकता के भाव से बंधा हुआ मैं उसके पास ही बैठ गया। 5 मिनट बाद उसकी नींद खुली तो उस व्यक्ति ने अपना परिचय भू-वैज्ञानिक के रूप में दिया। वहाँ की मिट्टी पर रिसर्च करते-करते उसकी आँख लग गई थी।
मैंने उनका कर्तव्य जब याद दिलाया तो उनका मानना था कि बिना जमीन से जुड़े आप मिट्टी को समझ ही नहीं सकते। जमीन से फूट रहे मटमैले पानी का शोध करते हुए वैज्ञानिक कैसे उसमें डूब कर शोध करते होंगे यह सोच कर ही मैं सिहर गया था।
आगे बढ़ा तो एक और वैज्ञानिक मिले। आप किस बात पर शोध कर रहे हैं? मेरा सवाल था। उन्होंने कहा मैं जमीन पर शोध कर रहा हूँ। मैंने पिछले भू-वैज्ञानिक की ओर इशारा करके पूछा कि वह भी तो वही कर रहे हैं तो इन वैज्ञानिक ने तुच्छता का भाव भरते हुए बोला कि वो, हमारी तुलना उनसे मत करो हम हेलीकॉप्टर से आए हैं और वह सड़क के रास्ते। वैसे भी वह रुकी हुई जमीन पर शोध करते हैं और हम धँसती हुई जमीन पर।
मेरे अन्दर के जिज्ञासु ने एक सवाल और फेंका, यह कौन तय करेगा कि कौन सी जमीन रुकी है कौन सी नहीं।
उन्होंने कहा, इसके लिए फलाने भू-वैज्ञानिक की रिपोर्ट आती है और वह हमसे सीनियर हैं।
‘तो फिर तो वे प्राइवेट जेट से आते होंगे’ मैंने मजाक में पूछा।
उन्होंने भी मजाकिया अंदाज़ में जवाब दिया कि “वो तो आज तक यहाँ आए ही नहीं हैं।”
पास में ही कई लोग अपनी माँगों को लेकर धरना दे रहे थे। वहीं कुछ लोग उन्हें सम्बोधित करने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ सम्बोधन करने वाले आस-पास के जिलों से भी पहुँचे थे। जब उनसे उनके जिले की समस्या के बारे में मैंने अवगत कराया तो उन्होंने बताया कि वे फिलहाल तो जोशीमठ के लोगों के साथ खड़े हैं। उनके जिले में अभी वे आपदा का इंतज़ार कर रहे हैं ताकि अपने जिले के लोगों के साथ भी खड़े हो सकें।
तब तक वहाँ फेसबुक लाइव करने वालों की भीड़ उमड़ गई और धरना देने वाले मेरी नज़रों से ओझल होते चले गए।
पास में ही पीड़ितों को एक अस्थाई केंद्र में विस्थापित किया जा रहा था। वहीं उसके पास में एक स्थायी केंद्र का निर्माण पत्रकारों के लिए किया जा रहा था।
तभी खबर आई कि शहर का सबसे बड़ा पाँच मंजिला होटल तिरछा हो गया है। साथ ही पता चला कि होटल के अंदर क्षेत्र के विधायक जी फंस गए हैं जो विपक्षी पार्टी के हैं। बड़ी मशीनें बुलाई गई और कमरे से तीन-चार लोगों को रेस्क्यू किया गया। देखा गया कि विधायक जी के साथ मंत्री जी भी बाहर आ रहे हैं।
दोनों को साथ आते देख भीड़ में खुसफुसाहट तेज़ हो गई। विधायक जी ‘मतभेद नहीं मनभेद’ वाली लाइन बोलने वाले ही थे कि मंत्री जी ने मुस्करा कर कहा, “ऐसे मुश्किल वक़्त में राजनीति उचित नहीं।”
खैर, समाज हित में अच्छी राजनीति के दबाव से अक्सर ‘लोकतंत्र’ के होटल तिरछे हो ही जाते हैं।
दिलचस्प घटना यह रही कि मुझे एक 22 वर्षीय युवा भी मिला। अच्छे कपड़े पहना हुआ। तंदरुस्त लेकिन हाथों और पाँव पर चोट खाया हुआ। उसे किसी ने बताया था कि व्यायाम से स्वस्थ रहते हैं लेकिन वह सुबह शाम दौड़ने ही जाया करता था। इस वजह से कई बार वह चोटिल भी हो चुका था। बातों-बातों में उसने अपना नाम ‘विकास’ बताया।
सब कुछ देखने के बाद वापस जा ही रहा था कि पहाड़ों के ऊपर एक बुजुर्ग व्यक्ति एक पगडण्डी पर बैठे हुए मिले। वह शहर को एकटक निहार रहे थे। मन ही मन बुदबुदा रहे थे और एक चिट्ठी में कुछ लिखे जा रहे थे। ऐसी ही उनके पास कई चिट्ठियाँ हो चुकी थी।
इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा बाजार में उनकी ‘कहानी’ नहीं बिकी क्योंकि वे हकीकत लिख रहे थे। नेताओं ने उनकी बात नहीं सुनी क्योंकि वह बात वोट दिलाने के लिये काफी नहीं थे। क्रांतिकारियों ने अपने जनगीतों में उन्हें जगह नहीं दी क्योंकि उनके बोल गीत की तुकबंदी में फिट नहीं बैठ पा रहे थे। पत्रकारों ने उनको टीवी, मोबाइल पर नहीं बिठाया क्योंकि वे विशेषज्ञ के तौर पर कोई नई जानकारी नहीं दे पा रहे थे।
ऐसे में उनकी आखिरी इच्छा थी कि कुछ सालों बाद, उनके मरने के बाद, भू-वैज्ञानिक, पत्रकार, नेता और क्रांतिकारी की मौजदूगी में उनका झोला खँगाला जाए ताकि वह देख सकें कि “एक जोशीमठ और था।”