पहाड़ मे जिस वसंत का आगमन बसंत पंचमी से होता है, वो होली में विदा ले लेता है। इसके कुछ क्षण बाद तमाम तैयारियों और सजावट से एक सौंदर्यविषक पर्व आता है, इस पर्व का नाम है फुलदेई। चैत्र-सक्रांति में आने वाला ये पर्व स्वयं में सम्मिलित करता है उत्तराखंड के फूलों का आयोजन से लेकर व्यवस्थापन
जो इस पर्व को परिभाषित करते हैं, वो हैं पहाड़ों से सुबह की धूप के छनने से पूर्व ही नए-नए रंग के फूलों को चुनने वाले पहाड़ों के शिशु, जिन्हें सर्वाधिकार प्राप्त हैं इन फूलों को सजाने के, बांटने के, घर-घर देहरी तक पहुंचाने और फिर प्रसाद ग्रहण करने के भी। लोकगीत गाते हुए बच्चे जब खोली (दरवाज़ों की चौखट) के गणेश को फुलपाती चढ़ाते हैं तो उसके बदले ग्रहणी परंपरानुसार उनको दाल-चावल, गुड़ एवं शगुन हेतु कुछ रुपये-दक्षिणा भी देती हैं।
चूंकि उत्तराखंड का समाज विभिन्नताओं से भरा हुआ है, अतः ये पर्व भी विभिन्न जगहों मे विभिन्न नाम से कहलाया जाता है। कुमाऊँ-गढ़वाल में फुलदेई, जौनपुर में फुल्यारी, जौनसार-बाबर रंवाई में फुलयात/बिससु तो वहीं रोंगपा-भोटिया इत्यादी जनजातियों में फूल संग्रान्द के नामों से ये प्रचलित है। फुलदेई के आयोजन की बेला 1 हफ्ते पूर्व से ही दिखने लगती है और अंतिम दिवस होता है इस पूरे पर्व के पूर्णत: समापन का।
सुनकर थोड़ा अचरज हो परंतु फुलदेई उत्तराखंड के उन गिने चुने त्योहारों में से है जो एक क्षेत्र विशेष में नहीं अपितु समस्त उत्तराखंड में अलग-अलग शैली और विविधता से मनाया जाता है।
उत्तराखंड के लोकसांस्कृतिक बैंड ‘पांडवाज’ द्वारा कुछ सालों पहले ही एक गीत भी इस पर्व पर जारी किया था। वास्तव में यह गीत उत्तराखण्ड के आंचलिक हिस्सों में सदियों से फुलाई के दौरान गूंजने वाले लोकगीतों का ही आधुनिक संस्करण है। यह गीत बहुत प्रचलित भी हुआ। इस गीत को उत्तराखण्ड के गढ़वाल-कुमाऊँ ही नहीं बल्कि देशभर के कई मीडिया संस्थानों द्वारा भी सराहना मिली। ये गीत था ‘फुलारी’।
गीत के प्रारम्भिक बोल कुछ इस प्रकार-
“चला फुलारी फूलों कोसौदा सौदा फूल बिरौलाभौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां, म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ”
(चलो फुलारियों , फूलों का ताजे ताजे फूल लाएँ, भँवरों के जूठे फूल न लाना, मधुमखियों के जूठे फूल मत लाना)
फुलारी से तात्पर्य फूलों को एकत्रित करने वालों से है। फुलदेई मात्र एक त्योहार नहीं है, ये एक साक्षात्कार है। नन्हें बच्चों का प्रकृति से। उनका अपने नयनों से दुनिया को समझने का, प्रकृति को पढ़ने का। बाल्यावस्था में ही उनका पर्यावरण में ‘फील्डसर्वे’!
आज पीछे मुड़के देखता हूँ तो वो धुंधला परिदृश्य सामने आता है जब अभिभावक हम पहाड़ी बच्चों को विशेष तौर पर फुलदेई के आज के दिन के लिए तैयार करते थे। बच्चों की जमघट पास के रिक्त स्थानों से लेकर बगीचों-जंगलों मे फूल चुनने के अपने अभियान के लिए प्रभातफेरी पर निकल जाते थे। उस पूरे अनुभव का सारथी होता था एक लोकगीत, जो बचपन से ही जीवा में परंपरागत तौर पर चढ़ने के कारण आज भी स्मरणीय है।
“फूल देई, छममा देई, देणी द्वार, भर भकार, ते देली सा बारम्बार नमस्कार”
जो लोग अपने बचपन में इस त्योहार को मना पाए हैं, वह शायद इन पंक्तियों का अभिप्राय समझ पाएँ। जो पहाड़ी पृष्ठभूमि से नहीं आते हैं, तो उनके लिए इस प्रकृतिपूजन पर्व की इन पंक्तियों को समझा दें।
फूल देई – देहरी फूलों से भरपूर और मंगलकारी हो। छम्मा देई – देहरी, क्षमाशील अर्थात सबकी रक्षा करें। दैणी द्वार- देहरी, घर व समय सबके लिए दांया अर्थात सफल हो। भरि भकार – सबके घरों में अन्न का पूर्ण भंडार हो। ते देलि सा बारम्बार नमस्कार – हर बार इस दहलीज पर आप (इष्ट देवी-देवता) विराजें और सुख-समृद्धि प्रदान करें।
फूलदेई पर्व का एक महत्वपूर्ण पहलू, एक शर्त से अवगत करवा दें। फूल सूर्यास्त के बाद और अगले सूर्योदय से पहले तोड़ दिए जाएँ, नहीं तो जूठे कहलाये जाएँगे। पहले सात दिन तो ऐसी भी छूट नहीं है। इन दिनों में आपको ये फूल सुबह सूर्योदय से पहले ही तोड़कर लाने होते हैं। क्यारी-पुंगड़े (खेत -खलिहान) और गमलों से फूल तोड़ना भी जूठा कहलाएगा। अगर महत्व है तो सिर्फ़ जंगलों में उगे प्राकृतिक फूलों के तोड़े जाने का।
फूलों मे भी असीम विविधता देखी जा सकती है। बुरांश, सरसों, फ्योंली, कठफ़्योंली, मिझोल, सिलफोड़, साकीनी इत्यादि उत्तराखंड के जनम्ज फूल इस अवसर पर संजोए भी जाते हैं, पूजे भी जाते हैं। फुलकंडी मे मेळू, आ़ड़ू, चुल्लू, बुरांस, सिल्पाड़ी जैसे रंगबिरंगे फूल भी सम्मिलित होंगे। और उस पर चार चाँद लगता हुआ होगा सबसे महत्वपूर्ण फूल, फ्योंली। जिन क्षेत्रों में पैंया की पाती (पत्तियाँ) प्रचलन मे होती है, वहाँ यह त्योहार फुलपाती कहलाता है।
अलग-अलग क्षेत्रों मे अलग अलग प्रकार से एक ही त्योहार मनाने की मान्यता। कुछ एक क्षेत्रों का पुन: स्मरण करूँ तो रुद्रप्रयाग-चमोली की अपनी बचपन की यात्रा याद आती है जब इस अवसर पर ‘घोगा माता’ की डोली हर्षोल्लास से ले जाई जाती थी। वह घोगा माता जिन्हें प्रकृति की देवी कहा गया है। फूल माई भी उन्हीं के पर्याय हैं।
फूलों के इन सब समूह से सुशोभित होती है घर की दहलीज/मुख्य द्वार, जहां पर विराजमान रहते हैं गणेश और भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी। परंतु यह पर्व सिर्फ सौन्दर्य तक ही सीमित नहीं रहा है। आज इस पर्व का महत्व क्या हो चला है इसे हम शायद व्यक्त करने के लिए उचित व्यक्ति न हों। परंतु पहले के समय या कम से कम हमारे समय में माता-पिता कहते थे कि अगर हम फूलों का सम्मान करेंगे, उनका संरक्षण करेंगे तभी जीवन में भी सम्पन्न होंगे। एक चेतना भी होती थी कि फूलों,फलों, हरियाली से अभिभूत इन पहाड़ियों के संरक्षण का दायित्व तुम बच्चों के हाथ में हैं।
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आज फुलदेई है। फूलों का त्योहार है। वर्षों से ही इसकी प्रासंगिकता रही है। बसंत भी हर बार की तरह आता है। बस हमेशा की तरह उसका स्वागत करते उन नन्हें बच्चों की ना ही टोली दिखती है, ना ही फूलों की आस मे लहराती वो टोकरी। घुगुती त्योहार भी यही दंश झेल रहा है। इसी तर्ज पर अन्य त्योहार भी जो कभी हम पहाड़ियों की संस्कृति का हिस्सा थे, आज विलुप्ति की कगार पर हैं। इस बीच कुछ परिवर्तन हुआ और कटाक्ष करें तो ‘क्रांति’ हुई है।
एक विशेष वर्ग तैयार हुआ है। शहरों-कस्बों में विशेष रूप से पाया जाता है। सांस्कृतिक संकट पर अपना दुख व्यक्त करता है। सोशल मीडिया पर अपना आक्रोश जताता है। वही अगर युवा से परे अधेड़ निकलें तो सेमीनार-संगोष्ठी हो जाती है और अगर दून-हरिद्वार या अन्य मैदानी बेल्ट का कलाकार होता है तो एक गाना बना दिया जाता है नोस्टालजिया हेतु।
आज शायद वैश्वीकरण, पहाड़ी संस्कृति पर कुछ ऐसे हावी हो गई है कि विभिन्न पूंजीवादी माध्यम हमारी दिनचर्या पर सीधा असर कर गए हैं और फुलदेई सरीखे पर्वों का महत्व दिन-प्रतिदिन कम होता हुआ ही दिखता है। बड़ी बड़ी एमएनसी आज बशर्ते अपने कार्य के लिए मुनाफा कमाती हों और कर्मचारियों के लोभ को बड़े बड़े वेतन देकर पूर्ण करती हों, मगर इस सब की क़ीमत पर्वतीय अंचलों ने चुकाई है। पहाड़ रिक्त हैं, फुलारी मनाने के लिए गाँवों में चहचहाता शैशव विलुप्त है।
प्रतीत होता है शायद इन त्योहारों को बचाने का जिम्मा भी शायद पहाड़ी रहवासियों के हिस्से ही मढ़ दिया गया है। हां, इन सब से अलग एक बात उन तथाकथित पहाड़ियों के लिए। आज भी आपके द्वार पर फूल अर्पित करने बच्चे आएं, तो उन्हें अनदेखा ना करें। ये मासूम संस्कृति के संवाहक हैं और पर्यावरण के मौन सचेतक।
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