दीपावली के बाद आती है एक और दीपावली। इस दीवाली का नाम है – इगास बग्वाल। मूलतः इगास बग्वाल उत्तराखंड राज्य में मनाई जाती है। इसी दिन गो-वंश को पौष्टिक आहार, बर्त खिंचाई, भैलो/भैलू खेलना होता है। यह त्योहार मुख्य दीवाली से अपने उत्सव की परिपाटी में ज़रा सी इतर है, लेकिन है यह भी प्रकाशपर्व की ही परम्परा। इगास-बग्वाल स्वयं में एक अनूठा पर्व है जो दर्शाता है पहाड़ के अस्तित्व को और इसकी पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा को!
कब मनाई जाती है इगास बग्वाल
गढ़-कुमाऊँ में यूँ तो मुख्यतः चार बग्वाल होती है। पहली बग्वाल जो आती है कार्तिक मास के कृष्णा पक्ष की चतुर्दशी को। दूसरी वो जो समस्त भारत के राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी मनाई जाती है – अमावस के दिन। तीसरी बग्वाल या कहें बड़ी बग्वाल, आती है 11 दिन बाद और मनाई जाती है कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को। चूँकि गढ़वाल-कुमाऊँ में एकादशी का उच्चारण इगास कहकर होता है। इसलिए ये पर्व इगास बग्वाल कहलाता है।
एक चौथी दीपावली भी होती है। नाम है – ‘रिख बग्वाल’ जो बूढी दिवाली भी कही जाती है और आती है दीवाली के ठीक एक महीने बाद।
इगास-बग्वाल का महत्व
इगास के बारे में अनेकों किंवदंतियाँ हैं, अनेकों मान्यताएं हैं, तमाम किस्म के प्रचलन हैं जो प्रचलित हैं।
एक मान्यता कहती है कि जब भगवान श्री राम अयोध्या वापस लौटे थे तो उत्तराखंडवासियों को सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए दीवाली का सदैव आयोजन 11 दिन बाद होता है।
एक दूसरी मान्यता है जो कहती है कि दीवाली के समय गढ़वाल की सेना वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में सामना कर रही थी दापाघाट में तिब्बत की सेना का। परन्तु 10 दिनों तक उनकी कोई सूचना नहीं मिली।
ऐसे में कहा जाता है कि किसी ने मान लिया कि इस सेना का तिब्बत के हाथों बलिदान हो गया तो किसी को लगा कि हिमस्खलन में यह सेना दब गई। बताया जाता है कि दिवाली के 11 दिन बाद माधो सिंह की सेना आई युद्ध फतह कर के और फिर मनाई गई इगास।
हालाँकि इस क़हानी पर भी विरोधाभास हैं और यह किंवदंती एक पुर्तगाली मिशनरी के प्रभाव में गढ़ी गई हैं।
एक तीसरी मान्यतानुसार, एक रंवाई क्षेत्र का व्यक्ति भैला मनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया लेकिन वो लौटा 1 महीने उपरांत। इसलिए वहां के लोगों ने 1 महीने बाद ही दिवाली मनाई। हालाँकि, इनमें से कई कहानियाँ स्थानीय लोगों द्वारा ही रची जाती हैं या फिर आगे बढ़ाई जाती हैं लेकिन आज भी उत्तराखंड के जौनपुर, प्रतापनगर, थौलधार, रंवाई आदि इलाकों में इस पर्व को मनाने के पीछे एक वजह यह भी मानी जाती है।
इगास और रिवाज़
किसी भी पहाड़ी व्यक्ति के लिए इगास बहुत ख़ास है। दिए की जगमहाहट, नए-नए पकवान बनना, खेत खलिहान, जिन्हे उत्तराखंड में बाड़-सगोड़े कहते हैं, उनसे फल सब्ज़ी इगास के उपलक्ष पर निकाले जाते हैं। इस समय को पहाड़ी मान्यताओं में शुभ व धन-धान्य का प्रतीक माना जाता है। अमूमन एक चलन रहा है गढ़वाल कुमाऊँ में इगास के दिन। वह है, रक्षाबंधन में पहनी राखी को निकालकर गाय की पूँछ में बांधना ताकि सुख-समृद्धि आए।
मुझे याद है अब भी वो इगास की बर्त परंपरा। जब बर्त खींचा जाता था। ‘बर्त’- एक प्रकार की मोटी रस्सी जो गढ़वाली में कसेटा (कुशा, जो कि यज्ञ, हवन आदि में भी प्रयोग की जाती है) और बबेड़ू या ऊलेंडु घास से बनती है। लोकपरम्परा से इसे जोड़ूँ तो बर्त खींचना समुद्र मंथन से जबकि स्वयं बर्त को वासुकि नाग से जोड़ा जाता है। इसका एक सिरा नाग का मुँह तो दूसरा इसकी पूँछ माना जाता है और फिर शुरू होती है रस्सा-कस्सी!
एक विशेष रिवाज़ और है इगास पर। ये रिवाज़ है इगास पर भैला खेलने का। भैला चीड़ की लकड़ी से तैयार होता है। जहाँ चीड़ के पेड़ नहीं होते वहां देवदार या भीमल की लकड़ी से भैला बनता है। लकड़ी के छोटे छोटे अवशेष को बांध दिया जाता है जंगली भैलों से और फिर शुरू होता है जला कर घूमने का सफर।
गाँव के जनमानस सार्वजनिक स्थल में एकत्रित होते हैं, उत्तराँचल के वाद्य यंत्र- ढोल दमों में नृत्य करते हैं अलग अलग मुद्राओं में और उत्सव के उपलक्ष पर लोकगीत गाते हैं, व्यंग करते हैं । जैसे ‘फलां गौं वाला रावण की सेना,अर हम छाँ राम की सेना’
अर्थात –
कुछ लोग खुद को राम की सेना बताते हैं और दूसरे को रावण की सेना बता कर हास्य करते हैं।
गाँव में, क्षेत्र में विभिन्नता बहुत दिखती है। कहीं पर मंडान , कहीं पर चांचड़ी थड्या लगाना , कहीं पर उत्सव स्थल में कद्दू मुंगरी को एकत्रित करना तो कहीं पर देव रूपी भीम का मनुष्य पर अवतरित होना।
जो पहाड़ी समुदाय पिछड़े हुए हैं, आज भी जनजातीय परम्पराओं से बंधे हुए हैं, या मुख्यधारा के अधिकारों से वंचित हैं, राज्य सरकार उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का अविरल प्रयास कर रही है। इस वर्ष प्रदेश में बग्वाल का आधिकारिक अवकाश इस अनूठी पहल को दर्शाता है।
इगास और आज
सच कहूं तो इगास वंचितों को समर्पित एक पर्व है। फिर चाहे युद्धोपरांत अयोध्या लौटे राम चंद्र की सूचना से वंचित ग्रामवासी, या युद्ध में फंसा महाबली भीम जो वंचित था दीवाली से। चाहे अपने अधिकारों से अछूते पितामह भीष्म या गढ़रत्न वीर शिरोमणि माधो सिंह, जो सोलह श्राद्ध से वंचित रहकर गढ़वाल लौते।
इगास समर्पित है उन कालखंड की बहु बेटियों को जो अन्न से वंचित रही हों और इगास में पूर्ण रूप से पूर्ति करती थीं, उन प्रजनन में असमर्थ गायों को, और तो और उन असमर्थ बैलों को जिन्हें मान्यतानुसार ब्रह्मा ने स्वयं शेर से ऊपर माना व सत्कार किया।
वास्तव में इगास उत्तराखंड का विशिष्ट त्योहार है। ऐसा पर्व, जो भौतिकवाद पर नहीं चलता। जहाँ अपना सुख दूसरे के आभाव से ऊँचा नहीं दिखता। और जो पिछड़े वंचितों को भी पूर्ण अवसर देता है हर्षोल्लास का। इगास एक ऐसा लोकपर्व है जो प्रकृति में समावेशी है, सर्वहितैषी है, प्राकृतिक न्याय के लिए उत्कृष्ट है।
इगास-बग्वाल पहाड़ का प्रतिनिधि खेल और उत्सव है। यह हिंदुत्व की उस महान परम्परा को आपस में जोड़ता है, जिसमें देश के एक हिस्से में देव-दीपावली की तैयारियाँ चल रही हैं, तो दूसरी ओर पहाड़ बग्वाल मना रहा है।