14 जनवरी से उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में उत्तरायणी मेला शुरू हो रहा है। हर साल मकर संक्रांति के पवित्र अवसर पर जनवरी के दूसरे सप्ताह में यह मेला आयोजित किया जाता है। यह बागेश्वर, रानीबाग और हंसेश्वरी सहित उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में कई स्थानों पर आयोजित किया जाता है। हालाँकि ऐतिहासिक रूप से सबसे बड़ा कौथिग बागेश्वर का रहा है।
बागेश्वर में सरयू नदी के तट पर पवित्र बागनाथ मंदिर का मैदान एक सप्ताह तक चलने वाले कौथिग का स्थान बन जाता है। दरअसल जिन्हें शहरों में मेला कहा जाता है, उसे ही उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कौथिग कहा जाता है।
आखिर कौथिग के आयोजन का उद्देश्य क्या होता है? आंचलिक संस्कृति को या हेरिटेज की याद दिलाना, उसे याद करना जिसे हम भागते लाइफस्टाइल में कहीं दूर छोड़ आए हैं। इसमें स्थानीय कला, बोली भाषा, गीत संस्कृति आदि पर चर्चा होती है ताकि कम से कम एक याद ही सही मगर ये सब कुछ बचा रहे।
अब ऐसे कौथिग में तो आवश्यकता उन्हीं लोगों की होगी जो इस सब चीज से जुड़े हुए हैं, यानी स्थानीय कलाकार, गायक, नर्तक आदि, लेकिन इस बार के बागेश्वर के उत्तरायणी कौथिग में Officers, bureaucrats, ने कुछ हटकर करने के चक्कर में बागेश्वर और कुमाऊं की संस्कृति को एक किनारे डाल दिया है और एक कंट्रोवर्सिअल सिंगर जस्सी गिल को कौथिग का हिस्सा बनाया है। इतने पवित्र अवसर पर ऐसे गाने और ऐसे गायक जिनके गानों में लड़की, दारू, सुट्टा ही होता है, क्या उन्हें ऐसे अवसर और ऐसे मंच पर लाया जाना चाहिए?
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कुमाऊनी और गढ़वाली भाषा खुद स्ट्रगल कर रही है , यूनेस्को ने स्वयं कहा है की यह भाषाएं एक्सटिनट होने की कगार पर हैं। रीजनल लोग जो आज के समय में झोरा चांचरी, बैठकी होली तक भूल गए हैं, और तो और खुद के सांस्कृतिक गीतों से वंचित हैं, क्या ऐसे में अपने रीजनल आर्टिस्ट को एक साइड में रख के ऐसे ही बाहर की संस्कृति को प्रोमोट करना कितना सही है कितना गलत?
जहाँ लोकल लोग खुद इन सबसे ही अवेयर नहीं हैं क्या उन्हें पंजाबी गाने सुनाए जाने के लिए कौथिग का आयोजन किया जा रहा है?
आप बॉलीवुड गाने तो सुनते ही हैं, क्या वहाँ पर कुमाऊनी गीतों को प्रोमोट किया जाता है? क्या कभी पंजाब में चल रहे फेस्ट ने कुमाऊँ या गढ़वाल के सिंगर्स को बुलाया? लेकिन मेरे जैसे हर उस व्यक्ति की समस्या पहाड़ी संस्कृति, कलाकारों को ignore कर एक ऐसे पंजाबी गायक को इन्वाइट करना है जिसका नाम अक्सर विवादों में रहता है।
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इस कौथिग में उत्तराखण्ड की संस्कृति और कला को आगे बढ़ाने वाले स्थानीय कलाकारों को न्योते दिए गए हैं, साथ ही बाहरी राज्यों के कलाकारों जस्सी गिल और बब्बल राइको भी बुलावा भेजा गया है। तो क्या उत्तराखंड के अधिकारी उत्तराखंड को भी उड़ता उत्तराखंड बनाने का कारनामा करना चाहते हैं? अब तक हम उड़ता पंजाब देख रहे थे, अब उड़ता बागेश्वर भी दूर नहीं अगर ऐसे ही गायकों को कौथिग के नाम पर प्लेटफार्म दिया जाता रहा।
जिस संस्कृति और कला से विश्व प्रभावित हो रहा है, वहीं उत्तराखंड का शासन और प्रशासन को शायद पहाड़ी संस्कृति में कंटेंट नजर नहीं आ रहा होगा? मेले में राज्य के बाहर से कुछ कमर्शियल कलाकारों को बुलाया जाए, एक दम गूची के सूट-बूट पहने वो कलाकार जब आएंगे तो मेले को चार चांद लगेंगे। स्थानीय कलाकार तो कुर्ता-पायजामा, सदरी, टोपी वाले हैं। अपने कलाकार तो सस्ते में निपट जाते हैं, जब तक शासन के राजकोष से मोटी रकम कमर्शियल कलाकारों को ना जाए तब तक थोड़े ना महसूस होता है कि कुछ जश्न हुआ है।
जब तक जस्सी गिल जैसे कुछ क्रांतिकारी कलाकार जो किसान आन्दोलन के समय ‘हम आतंकवादी नहीं है’ की तख्तियाँ लटकाए हुए थे, वो उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं होते हैं, तब तक कहाँ उत्तराखण्ड की संस्कृति को चार चांद नहीं लगने वाले।
यहाँ तो स्थिति यह है कि कलाकारों के पैसों पर 2 से 3 साल तक संस्कृति विभाग कुंडली मार के बैठा रहता है। कलाकारों को अपने हक के पैसे माँगने के लिए बार-बार शासन-प्रशासन के दरवाजा खटखटाने पड़ते हैं कि साहब प्रोग्राम करवाए तो साल बीत गए। कई बार तो स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि प्रशासन फ्री में ही स्थानीय कलाकारों से प्रस्तुतियाँ दिलवाता है और इसके एवज में यह कह देता है कि “हम आपको प्रोमोट कर रहे हैं।” “इस मंच पे आपको खड़े होने का मिल रहा है वो भी बड़ी बात है।”
गढ़वाल क्षेत्र में इसी से जुडी एक कहावत भी है लेकिन उसमें कुछ शब्द अन्पर्लियामेंटरी हैं जिस कारण हम वो यहाँ नहीं बोलने वाले हैं। लेकिन उसका आशय भी कुछ ऐसा ही है जैसा यहाँ के कलाकारों की अनदेखी कर शासन-प्रशासन पंजाबी गायकों को मंच दे रहे हैं। इसके पीछे अधिकारियों की क्या मजबूरी हो सकती है इसका ठीक ठीक अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल भी नहीं है।
अब सोचिए जिस शासन और प्रशासन की अपने स्थानीय कलाकारों के प्रति यह स्थिति, यह सोच है, वे ही लाखों रुपए देकर ‘तक-तक तैनूँ गोरिए, निकले करंट तेरे यार तों’ जैसे गानों पर थिरकते हुए देखे जाते हैं।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर दें कि विरोध किसी व्यक्ति या राज्य का नहीं है। यहाँ बात अपनी संस्कृति की उन्नति की है, उसके विकास की है, उस संस्कृति, कला को बचाए और बनाए रखने वाले लोगों के जीवनयापन की है।
बागेश्वर की डीएम साहिबा ने तो इस आयोजन से जुड़ी जानकारी साझा की है। वे कह रही हैं कि मेले ऐसे अवसर होते है जिनमें ना केवल अपनी संस्कृति बल्कि आस-पड़ोस के राज्यों की संस्कृति का भी प्रदर्शन किया जाता है। उत्तरायणी कौतिक 2023 में उत्तराखंड राज्य के सभी प्रसिद्ध लोक कलाकार अपनी प्रस्तुति दे रहे हैं।
वे यह भी कह रही हैं कि बागेश्वर का उत्तरायणी मेला विश्व प्रसिद्द है। उत्तरायणी कौतिक से जनपद के व्यापर एवं पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा एवं भविष्य में व्यापारिक एवं सांस्कृतिक मेलजोल के अवसर भी बढ़ेंगे। वे यह भी कहते हुई नजर आ रही हैं कि हमारा लक्ष्य बागेश्वर को ना केवल देश बल्कि विश्व में संस्कृतिक पर्यटन के मानचित्र में स्थापित करने का है, जिससे उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत का प्रचार-प्रसार हो सके एवं स्थानीय लोगो को लाभ मिल सके।
डीएम साहिबा की यह तमाम ज्ञानवर्द्ध, तार्किक दिखने वाली और दार्शनिक बयानबाजी का जवाब सीधा उन तक पहुंच रहा है, लोगों ने उनका रिप्लाई भी किया है।
मोटा-मोटी बात यह है कि जिस संस्कृति और व्यापार की बात उत्तराखंड प्रशासन कर रहा है वह तो बागेश्वर की है, कुमाऊँ क्षेत्र की है, उत्तराखंड की है। ना कि किसी अन्य राज्य की।
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यहाँ कलाकारों के जीवनयापन की बात इसलिए उठ रही है क्योंकि सभी जानते हैं कि स्थानीय कलाकारों की आर्थिक स्थिति क्या है? जिस कला, संस्कृति के नाम का दंभ भरकर हम उत्तरायणी मेले पर गौरवान्वित हो रहे हैं, वहाँ हमारे कलाकारों को जो तरजीह मिलनी चाहिए वो नहीं मिलती।
स्थानीय लोग कह रहें कि इसमें विभिन्न संस्कृतियों के विचारों का आदान प्रदान होता है, प्राचीन काल से ही न केवल उत्तराखंड बल्कि देश भर के राज्यों से भी लोग इस मेले का आनंद उठाते हैं। संस्कृति एवं व्यापारिक आदान-प्रदान भी मेलों का एक लक्ष्य है। फिलहाल जस्सी गिल , जो कि पिछले साल अन्नदाताओं के लीडर बने हुए थे और केंद्र सरकार के खिलाफ फार्मर्स बिल के अगेंस्ट किसानों को भड़काने का काम कर रहे थे, उत्तराखंड सरकार के मेहमान बनने जा रहे हैं. ये विवाद सोशल मिडिया पर जोर पकड़ रहा है , इसका क्या समाधान उत्तराखंड सरकार निकालती है यह देखना बाकी है।