‘वो तो आलू जैसा है, सब कहीं फिट हो जाता है’, ये पंक्ति आपने कई बार किसी वस्तु या व्यक्ति के अन्य के साथ मिलनसार स्वभाव के लिए सुनी होगी। वैसे आलू भले ही सब कहीं फिट हो जाता हो लेकिन आजकल उत्तर प्रदेश की मंडियों और राजनीतिक मैदान में आलू को फिट करने को लेकर खूब खींचतान हो रही है।
मुद्दा यह है कि इस वर्ष उत्तर प्रदेश में आलू की बम्पर पैदावार हुई है और अब मांग कम और आपूर्ति ज्यादा होने के कारण उसके भाव में गिरावट देखी जा रही है। इस मामले को लेकर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 650 रुपए प्रति क्विंटल के भाव से खरीद करने का ऐलान किया है।
उत्तर प्रदेश के विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल सिंह यादव सरकार से 1500 रुपए में आलू खरीद करने की मांग कर रहे हैं। इन सब के बीच आलू बेल्ट कहे जाने वाले फर्रुखाबाद, कन्नौज, आगरा, मथुरा और इटावा समेत अन्य कई जिलों के लाखों किसान अपनी उपज को लेकर परेशान हैं।
ऐसे में किसान हितों के लिए वर्ष 2020 में लाए गए उन किसान कानूनों का महत्व सामने आता है जो किसानों को अपने उत्पाद की बिक्री को लेकर अन्य मंडियों की सहूलियत देने के लिए लाया गया था।
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, इस बार उत्तर प्रदेश में आलू की बम्पर पैदावार हुई है। एक अनुमान के अनुसार इस वर्ष प्रदेश में 242 लाख टन आलू की पैदावार हुई है। पिछले वर्ष यह 240 लाख टन रहा था। इतनी बम्पर पैदावार होने के कारण आलू की मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर आ गया है।
समस्या यह है कि इतना आलू यदि मंडियों में एक साथ आता है तो इसके भाव और नीचे चले जाएंगे और किसानों को लागत निकालना भी मुश्किल हो जाएगा। वहीं दूसरी ओर समस्या यह है कि यदि आलू को अभी किसान नहीं बेचते तो वह खराब हो जायेगा और उन्हें अभी अपनी उपज कोल्ड स्टोरेज में रखनी होगी।
उत्तर प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज की कुल क्षमता 162 लाख टन की है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इनमें से अभी 52% ही भरे हुए हैं।
हालाँकि, कई जगहों पर किसान कोल्ड स्टोरेज की समस्या बता रहे हैं और कई किसान अपनी उपज को बेच कर उसका मूल्य पाना चाहते हैं। इतनी तगड़ी उपज के मुकाबले उत्तर प्रदेश में प्रति माह मात्र लगभग 10 लाख मीट्रिक टन की अनुमानित खपत है और इतना ही आलू बाहर के प्रदेशों में भेजा जाता है। अब बड़ी मात्रा में आलू बाजार में आने से इसके भाव घट रहे हैं।
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देश में सर्वाधिक आलू उत्पादन वाले जिले का तमगा रखने वाले उत्तर प्रदेश के जिले फर्रुखाबाद में 12 मार्च को आलू के भाव 540-560 रुपए प्रति क्विंटल हैं, जबकि आगरा में यह भाव लगभग 600 रुपए प्रति क्विंटल है। यह भाव सरकारी ऑनलाइन मंडी ‘ई-नाम’ के हैं।
अन्य प्रदेशों की बात करें तो पश्चिम बंगाल में यह भाव 750 रुपए प्रति क्विंटल और पंजाब में 600 रुपए प्रति क्विंटल है। पश्चिम बंगाल में भी इस बार 110 लाख टन के मुकाबले 130 लाख टन उत्पादन की संभावना है और वहां की मंडियों में भी आलू का भाव कुछ ज्यादा नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों का नुकसान ना हो और उन्हें उपज का सही भाव मिले इसके लिए घोषणा की है कि वह चरणबद्ध तरीके से प्रदेश में आलू खरीद करेगी। प्रदेश सरकार ने इसके लिए आलू का भाव 650 रुपए प्रति क्विंटल रखा है। यह भाव वर्तमान के अधिकांश मंडी रेट से अधिक है।
आलू को लेकर विपक्ष की अतार्किक मांग
उत्तर प्रदेश सरकार ने जहाँ आलू खरीद के लिए 650 रुपए प्रति क्विंटल का भाव रखा है, वहीं विपक्ष का कहना है कि सरकार ने द्वारा दी गई कीमत सही नहीं है। समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल सिंह यादव का कहना है कि सरकार को आलू की खरीद 1500 रुपए/कुंतल रखे।
विपक्ष की यह मांग भले ही किसानों के हित में बड़ी-बड़ी बातें करने वाली लगे लेकिन इसका जमीन पर उतारा जाना बिलकुल असंभव है। यदि सरकार 1,500 रुपए में आलू की खरीद करती है तो इसका खुदरा बाजार पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव होगा।
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सामान्य ग्राहक को मिलने वाले आलू का मूल्य काफी ऊंचा पड़ेगा क्योंकि 1500 रुपए में खरीदा जाने वाला आलू बाजार में पहुँचते-पहुँचते और भी महंगा हो जाएगा। सरकार स्वर दिया जाने वाला 650 रुपए का समर्थन मूल्य वर्तमान में बाजार भावों से ऊंचा ही है।
क्यों ऐसी स्थिति में ‘कृषि कानून’ होते सहायक?
आज जब आलू की बम्पर पैदावार के चलते किसान मंडी के उतार चढ़ाव की वजह से कम भाव पाने को मजबूर हैं तो ऐसी ही जगह पर रद्द कर दिए गए किसान कानूनों की भूमिका होती।
दरअसल, तीनों कृषि कानूनों में से कानून संख्या 2 देश के किसानों को यह छूट देता था कि वह अपनी उपज का कॉन्ट्रेक्ट किसी से भी कर सकते थे और उसमें लिखी कीमत कॉन्ट्रेक्ट करने वाले को अदा करनी ही पड़ती।
फसल के पहले ही होने वाले इस समझौते में किसान को उसकी उपज का भाव निश्चित तौर से मिलता। उपज के पैदा होने के बाद ना ही उसे आढ़तियों के चक्कर काटने पड़ते और ना ही सरकार की तरफ ताकना पड़ता। फसल की कटाई के बाद तुरंत किसान को उसकी उपज का मूल्य मिलता जिससे वह आगे की तैयारी करने में सक्षम होता।
अब जब किसान मंडी के उतार चढ़ावों से परेशान हैं तब वही विपक्ष कह रहा है कि सारी फसल सरकार खरीदे। किसी भी व्यवस्था में सरकार का कार्य है उत्पादक और उपभोक्ता के बीच एक सिस्टम तैयार करना ना कि खुद ही महाजन बन जाना।
मात्र अपनी राजनीतिक जमीन चमकाने के लिए विपक्ष ने ना केवल किसान कानूनों का समर्थन के बजाय विरोध किया बल्कि वह आज भी जमीनी सच्चाई से दूर हैं और ऐसी मांगे उठाया करते हैं जो कि तार्किक नहीं हैं।
शिवपाल यादव की समाजवादी पार्टी भी उत्तर प्रदेश में लम्बे समय तक सत्ता में रही है लेकिन उसके कार्यकाल में कोल्ड स्टोरेज क्षमता को किसानों के हित के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक आर्थिक हित साधने के लिए बनाया जाते थे।
दूसरी तरफ, आलू किसानों के लिए कोई ख़ास उद्योग ना लगाए गए और ना ही उनकी उपज के भाव को लेकर काम किया गया। अब जब उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार इस को लेकर गंभीरता से कदम उठा रही है तो उनका प्रश्न उठाना उचित जान नहीं पड़ता।