सुरों के सरताज उस्ताद अलाउद्दीन खान की आज 50वीं पुण्यतिथि है, पर उनका संगीत अभी भी ताजा है। मध्यप्रदेश के सतना जिले में एक जगह का नाम है ‘मैहर’, और वहाँ की हवा में आज भी घुले हुए हैं, उस्ताद अलाउद्दीन की सरोद के राग और सुर।
उस्ताद अलाउद्दीन खान जितने बड़े सुर साधक थे, उतने ही महान गुरु थे, जिनके शिष्यों ने देश-विदेश में बढ़ाया था हिन्दुस्तानी सुरों का गौरव। बात कर रहे हैं भारत के महान सितार वादक और संगीतज्ञ पण्डित रविशंकर की जिनके संगीत शिक्षक उस्ताद अलाउद्दीन खाँ थे।
भारत में माना जाता है कि एक शिक्षक और छात्र का रिश्ता जब आत्मिक हो जाता है, तो वह गुरु शिष्य के रिश्ते में बदल जाता है। जब पूरे समर्पण के बिना भारत के शास्त्रीय संगीत की शिक्षा अधूरी ही रहती है, तब ये और भी जरूरी हो जाता है।
भारत के संगीत घरानों की इस रवायत का जैसा शानदार रूप पण्डित रविशंकर और उस्ताद अलाउद्दीन खां की इस मुलाकात में दिखता है, वो हर किसी को भावुक कर जाता है। आप वह भावुक कर देने वाला वीडियो नीचे क्लिक कर देख सकते हैं।
रविशंकर ने 1938 से 1944 तक मैहर में अलाउद्दीन खान से सितार सीखा था। 24 साल बाद भी जब रविशंकर उनके घर जाते हैं, तो एकदम से उनके पैरों में गिर जाते हैं, तभी उस्ताद खान उन्हें उठाकर अपने सीने से लगा लेते हैं। उनसे गले मिलकर रविशंकर की आँखों में पानी आ जाता है, और वो तुरंत अपना चश्मा उतारकर जेब में रख लेते हैं। कहीं न कहीं वो अपने आंसू गुरु से छिपाने की कोशिश भी करते हैं।
तभी उस्ताद की पत्नी आती हैं, जिन्हें देखते ही रविशंकर के मुँह से निकल पड़ता है, “ओ माँ…”। माँ भावुक होकर रोने लगती हैं और रविशंकर उन्हें थपथपाकर शान्त करने लगते हैं। रविशंकर चाहे देश और दुनियाभर में एक बहुत बड़ी हस्ती बन चुके थे, पर इसके बाद भी वे उस्ताद अलाउद्दीन खान से नीचे ही बैठते थे, हमेशा!
और बैठे भी क्यों न! उस्ताद अलाउद्दीन का कद ही कुछ ऐसा था, कि आज भी संगीत का हर साधक उन्हें नमन करता है। संगीत के इस महापुरुष का जन्म ब्रिटिश बंगाल में हुआ था। शुरुआत में तो वो सरोद बजाते थे, पर धीरे धीरे बांसुरी, सितार और शहनाई पर भी उनका अधिकार हो गया।
साधना से सीखा दो सौ वाद्ययंत्र बजाना
इतना बड़ा संगीत गुरु बनने से पहले उस्ताद अलाउद्दीन खान ने खुद कितनी साधना की यह जानकर आज के संगीत वादक भी हैरान रह जाते हैं। एक ही समय खाना खाने वाले उस्ताद अलाउद्दीन के गुरु थे गोपाल कृष्ण भट्टाचार्य। उनसे उस्ताद ने 7 साल तक सुरों की बारीकियां सीखीं। इसके बाद अमृतलाल दत्त ने उन्हें संगीत सिखाया।
पखावज, मृदंग और तबला उन्होंने नंदाबाबू से सीखा। इस दौरान जब सरोद में उनकी दिलचस्पी बढ़ी, तो अहमद अली खान से उन्होंने 5 साल तक सरोद सीखा। अलाउद्दीन खान यहीं नहीं रुके, बाद में वह राजा यतीन्द्र मोहन ठाकुर के दरबार में वजीर खान से वीणा सीखने लगे। वाद्ययंत्रों और संगीत के सिवाय उन्होंने योग, प्राणायाम और ध्यान भी सीखा था।
इस दौरान मैहर के महाराज बृजनाथ सिंह अलाउद्दीन के संगीत पर मोहित हो गए। बस फिर क्या था, उन्होंने उस्ताद अलाउद्दीन को अपना गुरु बना लिया। उस्ताद मैहर में आकर बसे और संगीत की अनवरत यात्रा शुरू की, जो फिर कभी नहीं रुकी। महाराज बृजनाथ सिंह ने ही अलाउद्दीन खान की बेटी, जो स्वयं संगीतकार बनीं, उनका नाम ‘अन्नपूर्णा’ रखा था। यहीं पर उस्ताद ने संगीत के मैहर घराने की स्थापना की।
सरोद और बांसुरी से लेकर शहनाई तक पर अपना जादू बिखेरने वाले उस्ताद अलाउद्दीन खान कुल 200 प्रकार के वाद्ययंत्र बजाना जानते थे, जिनमें से अधिकांश भारत की ग्राम्य लोकसंस्कृति का हिस्सा थे। आज इनमें से बहुत से वाद्ययंत्र लुप्त होने की कगार पर हैं। उस्ताद अलाउद्दीन ने ‘चन्द्रसारंग’ और ‘सुरशृंगार’ नाम के वाद्ययंत्रों का अविष्कार भी किया। उन्होंने बंदूक से भी एक वाद्ययंत्र बनाया ‘नालतरंग’।
‘रागों’ के एकछत्र अधिकारी
उस्ताद के संगीत में ऐसा जादू था कि उनके बनाए सभी राग लोकप्रिय हुए। उनका संगीत जितना हिन्दुस्तानी था, दिल भी उतना ही भारतीय था। उस्ताद ‘ध्रुपद’ और ‘खयाल’, गायकी की दोनों विधाओं में पारंगत थे। उन्होंने स्वयं अनेक राग रचे और भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया।
उनके रचे रागों में प्रमुख हैं, ‘हेमंत’, ‘दुर्गेश्वरी’, ‘मेघबहार’, ‘प्रभाग-केलि’, ‘हेम-बिहाग’, ‘सरस्वती’, ‘धनकोष’, ‘शोभावती’, ‘राजश्री’, ‘चन्द्रिका’, ‘दीपिका’, और ‘भुवनेश्वरी, इसके अलावा और भी बहुत से राग उन्होंने रचे।
मैहर की शारदा माई को सब समर्पित
देश विदेश में बाबा की ख्याति फ़ैल गई और उनके बड़े-बड़े संगीत आयोजन होने लगे, पर उनका मन तो मैहर में रहकर संगीत से मैहर की शारदा माई की भक्ति करने में ही लगता था। मन्दिर में बैठकर कितने ही साल उन्होंने एक-एक राग माँ को सुनाया था। इसलिए उस्ताद ने संगीत की शिक्षा देने के लिए, मैहर में शासकीय संगीत महाविद्यालय का निर्माण किया। आज भी उनके शिष्य और उनके परिवार के कई लोग यहाँ देशभर के संगीत छात्रों को प्रशिक्षण दे रहे हैं।
विरासत में सौंपी ‘संगीत’ की जायदाद
उनका मानना था कि शास्त्रीय संगीत दुनिया में हमेशा रहना चाहिए, उनके साथ भी और उनके बाद भी। इसलिए खुद से ज्यादा उन्होंने अपने शिष्यों पर ध्यान दिया। और इसी बदौलत दुनिया को संगीत के नायाब सितारे मिले। जिनमें पण्डित रवि शंकर (सितार वादक), बसंत राय, पण्डित निखिल बनर्जी (सितार वादक), पन्नालाल घोष (बांसुरी वादक), सरन रानी(सरोद वादक) और बहादुर खान बहुत प्रसिद्ध हैं।
इसके अतिरिक्त उस्ताद अलाउद्दीन खान के शिष्यों में उनके बेटे उस्ताद अली अकबर खान, उनकी बेटी अन्नपूर्णा देवी जिनके शिष्य पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया हैं, और खादिम हुसैन खान, रौशन आरा बेगम, इन्द्रनील भट्टाचार्य, फूलझुरी खान, खुर्शीद खान, जतिन भट्टाचार्य, आशीष खान, ध्यानेश खान समेत कई नामचीन संगीतकार शामिल हैं।
भारत सरकार द्वारा उन्हें 1958 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था और 1971 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 1954 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। इसके आलावा उन्हें जितने अवार्ड, प्रशंसा और लोगों द्वारा सम्मान मिला उसकी गिनती नहीं की जा सकती है। भारत का शास्त्रीय संगीत बचा रहे और आगे बढ़े, यही इस संगीत गुरु को उनकी 50 वींपुण्यतिथि पर वास्तविक श्रद्धांजलि हो सकती है।