अमेरिका से लौटने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का जिक्र कर विपक्षी दलों को व्यस्त कर दिया है। यूसीसी भाजपा के मेनिफेस्टो में लंबे समय से है। इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि यूसीसी की अवधारणा बीजेपी की देन है। समान नागरिक संहिता का जिक्र संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में है और इसे लागू करने की मांग सबसे अधिक किसी ने उठाई है तो वो संस्था न्यायपालिका है। एक प्रबुद्ध वर्ग यूसीसी की अवधारणा को मुस्लिम विरोधी बताकर टालने की कोशिश करता हुआ आया है। फिर भी अगर यूसीसी अभी तक लागू नहीं हो पाई है तो इसका मात्र यह एक कारण नहीं है। दरअसल यूसीसी पर मुस्लिम हितों को आगे रखकर जो वर्ग इसका विरोध करता हुआ आया है वो प्रगतिशील समाज का भी विरोधी है। यूसीसी को सबसे अधिक चुनौती भी कथित प्रगतिशील संस्था या व्यक्तियों से मिली है। विविधता और धर्मनिरपेक्षता के बीच में फंसे यह तर्क सामाजिक हित और न्याय को झुठलाने की कोशिश करते हुए आए हैं।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा यूसीसी का एक बार जिक्र होने पर सबसे पहली प्रतिक्रिया कांग्रेस से ही आई है। कांग्रेस के लिए यूसीसी का विरोध नया नहीं है। दरअसल पार्टी संविधान में उल्लेखित नियमों को लागू करने के प्रति कभी गंभीर नहीं रही है। कांग्रेस के 55 वर्षों से भी अधिक सत्ता काल में संविधान में बहुत सारे संशोधनों का उद्देश्य तुष्टिकरण करना और वोट बैंक सुरक्षित रखना रहा है, न कि परिवर्तन और सामाजिक न्याय।
समान नागरिक संहिता के विरोध में कई तर्क प्रस्तुत किए जाएंगे। हालांकि जब तक कानून का ढ़ांचा सामने नहीं आ जाता यह कहना मुश्किल है कि यह किसके लिए नुकसानदेह है और किसके लिए फायदेमंद लेकिन इसके मूल में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है; समान नागरिक अधिकार और यदि स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद किसी क़ानून की आवश्यकता समान नागरिक अधिकार लाने के लिए है तो फिर यह अवश्य कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं अभी तक नागरिक अधिकार समान नहीं थे।
कांग्रेस पार्टी या अन्य दल भले ही कम्यूनल बताकर इसे टालने का प्रयास करें पर बहुसंख्यक समाज समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर लंबे समय से जोर देता रहा है। शायद इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हिंदू कोड बिल तो लेकर आए थे पर समान नागरिक संहिता को लेकर उन्होंने न तो कोई कदम उठाया और न ही उसे देश में सार्वजनिक बहस का हिस्सा बनने दिया।
देखा जाए तो समान नागरिक संहिता बहुसंख्यक के लिए जो भी नए प्रावधान लाए, इसका सबसे अधिक फायदा शायद मुस्लिम समुदाय को ही मिलेगा। अल्पसंख्यकों के तौर पर पूर्ववर्ती सरकारों ने इस समुदाय के लिए कई योजनाओं का निर्माण तो किया पर यह भी सच है कि समान नागरिक संहिता से वंचित रखकर उन्हें पिछड़ा भी बनाए रखा है। स्वतंत्रता के बाद से बहुसंख्यकों द्वारा अपने धर्म को पिछड़ा बताकर कई सुधार किए गए हैं ताकि समाज प्रगतिशील बन सके पर यही बात अल्पसंख्यक और मूलतः मुस्लिम समाज के लिए नहीं कही जा सकती। प्रश्न यह है कि क्या रूढ़िवादी परंपराओं से बंधी मुस्लिम महिलाओं का शिक्षा, समानता, संपत्ति, वैवाहिक सुरक्षा और अवसरों की समानता पर उतना अधिकार नहीं है जितना बहुसंख्यक समाज की महिलाओं का है?
यूसीसी का आगमन किस स्थिति और किन प्रावधानों के साथ होगा इसका इंतजार करते हुए यह स्वीकार करना जरूरी है कि मोदी सरकार अगर इस कानून को लागू करने का माध्यम बनती भी है तो इस कानून का थोपना नहीं कहा जाना चाहिए। आखिर सर्वप्रथम यूसीसी संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लेखित है और संविधान सरकार को यूसीसी लागू करने की जिम्मेदारी देता है। डॉ. अंबेडकर भी यूसीसी के समर्थन में रहे हालांकि इसे लागू करने की प्रक्रिया में उन्हें प्रधानमंत्री नेहरू के विरोध का सामना करना पड़ा। इसके अलावा समय-समय पर न केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा बल्कि कई राज्यों के हाईकोर्ट द्वारा भी यूसीसी लागू करने पर जोर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि समान नागरिकत संहिता एक अनसुनी संवैधानिक अपेक्षा है। उम्मीद है कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
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ऐसे में एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा को समान नागरिक संहिता को लंबे समय से अपने घोषणापत्र में रखने के लिए ज़िम्मेदार तो बताया जा सकता है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि केवल वही इसे लागू करने के पक्ष में है। इसे लागू का करने का दिशा निर्देश मूल संविधान के अलावा न्यायपालिका के निर्देशों में भी परिलक्षित होता है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाएगा कि संविधान एवं न्यायपालिका भारत की विविधता और बहुलवाद के विरोधी हैं?
दरअसल कुछ राजनीतिक दलों द्वारा विविधता और बहुलवाद को आगे रखकर लंबे समय तक विजयी राजनीतिक समीकरण बनाए गए हैं और इसमें आज भी इन राजनीतिक दलों को संभावनाएं दिखती हैं। यही कारण है कि यूसीसी का विरोध बार-बार किया जाता, वरना यह संभव नहीं था कि सभी के लिए समान दंड व्यवस्था करने वाली सरकार समान नागरिक संहिता न लागू कर पाती। साथ ही यह भी स्वीकार्य नहीं कि समान दंड व्यवस्था को स्वीकार करने वाला समुदाय समान नागरिक संहिता को अस्वीकार कर देता। यह स्वीकार भले ही न किया जाए पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और वोट बैंक को जाने न देना इसके पीछे प्रमुख कारण रहे हैं।
आजादी के बाद से कांग्रेस ही सत्ता में रही पर संविधान में वर्णित सभी प्रावधानों के प्रति दल ने कभी समान भाव नहीं रखा और इनका इस्तेमाल अपनी राजनीतिक विचारधारा के सरलीकरण के लिए ही किया है। उदाहरण के तौर पर आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में भारत के लिए धर्मनिरपेक्ष और सोशलिस्ट जैसे शब्द जोड़कर न केवल बदलाव किया बल्कि इसके उपरांत लगातार पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत का भरपूर राजनीतिक दोहन किया।
कांग्रेस के लक्ष्यों में यूसीसी के लिए कभी स्थान नहीं रहा। यहां तक कि इसकी पहल न्यायपालिका से भी हो तब भी कांग्रेस सरकार से विरोध का सामना ही करना पड़ा है। 1980 के दशक में शाह बानो केस में आया सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला इस मामले की सबसे बड़ी नजीर है। यह केस राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को भी दर्शाता है और वोट बैंक की रक्षा में व्यावहारिकता के नाम पर राजनीतिक बेशर्मी को भी। 2019 में आए मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकार का संरक्षण) यानि तीन तलाक कानून के विरोध में कांग्रेस उसी प्रकार हावी रही जिस प्रकार यूसीसी को लेकर रहती है।
यूसीसी किन कानूनों को खत्म करेगी और किन्हें बनाए रखेगी इसकी सूची बहुत लंबी है। साथ ही कानून का ड्राफ्ट सामने आए बिना इसपर अंदाजन टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी। फिर भी यह कहना उचित है कि लोकतांत्रिक देश में एक कानून को न मानकर पर्सनल लॉ को बढ़ावा देना संविधान की सर्वोच्चता पर सवाल खड़े करने जैसा है।
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