यूक्रेन में भयंकर नुकसान के अलावा, युद्ध के कारण यूरोप के बाकी हिस्से भी बुरी तरह “आहत” हुए हैं क्योंकि यूरोप अपनी सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी ऊर्जा आपूर्ति खो रहा है, अपने मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की बढ़त से समझौता कर रहा है। इसी के साथ ऊर्जा की बढ़ी हुई लागत के कारण पूरे महाद्वीप में महंगाई की भयंकर लहर को बढ़ने दे रहा है जो आने वाली सर्दियों में यूरोप की बड़ी आबादी को गम्भीर रूप से प्रभावित करने वाली है।
यूरोप अपने ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने के लिए वर्षों से प्रयास कर रहा है, लेकिन यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद रूस के तेल और गैस की अचानक आपूर्ति बंद होने के दुष्प्रभाव का सामना करने के लिए उसके पास कोई बैकअप प्लान नहीं था।
यूरोपीय राजनेता अन्य ऊर्जा स्रोतों (जैसे एलएनजी) की प्रतिस्थापन क्षमता को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते रहे जबकि संकट आने पर सच्चाई इसके उलट निकली। इसलिए अब यूरोप को वो विकल्प याद आ रहे हैं जिन्हें पहले राजनीतिक कारणों से दरकिनार कर दिया था, जैसे जर्मनी में कोयला उत्पादन को फिर से खोलना।
आकलन में इतनी बड़ी चूक कैसे हुई?
हकीकत यह है कि, यूरोपीय नेतृत्व रूस के खिलाफ शुरू किए गए अपने आर्थिक युद्ध के यूरोप पर और विश्व पर पड़ने वाले सही आर्थिक परिणामों की भविष्यवाणी करने में विफल साबित हुआ है। युद्ध की शुरुआत में रूस के खिलाफ यूरोपीय देशों के खड़े होने के साहस और आत्मविश्वास के पीछे उनका यह मजबूत विश्वास था कि रूस विरोधी प्रतिबंध और यूक्रेन को सैन्य समर्थन रूस के राजनीतिक, सामाजिक और सैन्य बल को कमजोर कर देगा और रूस को हार की ओर ले जाएगा। जैसा कि मार्च में यूरोपियन यूनियन के विदेश मामलों के प्रतिनिधि जोसफ बोरेल ने आत्मविश्वास से कहा था कि, “युद्ध केवल युद्धक्षेत्र में हल किया जाएगा।”, उसका कारण यही आत्मविश्वास था। यह पूरी तरह गलत साबित हुआ।
यह तर्क दिया जा सकता है कि युद्ध के परिणाम के गलत आकलन का असली जिम्मेदार यूएस-ब्रिटिश खूफिया विभाग हैं, जिसने आर्थिक युद्ध द्वारा रूस की हार का अनुमान लगाया था और इसलिए ऐसा नहीं होने के कारण अब यूरोपीय नेतृत्व समाधान के लिए माथापच्ची कर रहा है।
इस बीच, राजनीतिक विकेट गिरना पहले ही शुरू हो चुके हैं, ब्रिटेन और इटली के प्रधानमंत्री अपने द्वारा लगाए गए रूस विरोधी प्रतिबंधों की वजह से पैदा हुई घरेलू राजनीतिक घटनाक्रम से सबसे अधिक कमजोर हुए हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि ऐसा लगता नहीं कि शेष यूरोपीय नेतृत्व (वॉन डेर लेयेन, मैक्रॉन और स्कोल्ज़ के नेतृत्व में) भी अपनी बची खुची विश्वसनीयता खोए बिना सुधरने को तैयार है।
इसलिए अब यूरोप में असंतोष और अपरंपरागत यूरोपीय राजनीतिक विचार जोर लेने लगे हैं, जैसा कि हंगरी के प्रधानमंत्री ओर्बन ने अपने हालिया भाषण में साहस दिखाकर कहा कि, “रूसी प्रतिबंध और यूक्रेन को हथियार देना विफल हो गया है, यूक्रेन युद्ध नहीं जीत सकता है। जितने अधिक हथियार यूक्रेन को दिए जाएँगे वह उतना ही ज्यादा क्षेत्र खो देगा इसलिए पश्चिम को अब यूक्रेन को हथियार देना बंद कर देना चाहिए और कूटनीति पर ध्यान देना चाहिए।”
यूरोप की वर्तमान समस्याओं के केन्द्र में अपनी पर्याप्त स्वायत्तता के साथ अपने स्वयं के हितों की देखभाल करते हुए अपने आर्थिक और सुरक्षा हितों को संतुलित करने में रही असमर्थता है। यूरोपीय अस्पष्टता नई नहीं है, इसकी जड़ें द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था और सोवियत संघ के पतन के बाद की परिस्थिति में छिपी हैं। और यूक्रेन के संबंध में, यह यूक्रेन-रूस शान्ति के हिमायती मिन्स्क समझौतों को लागू करने में यूरोप की अक्षमता के रूप में प्रकट हुई जिसे अमेरिका और यूक्रेन के ज़बरदस्त दबाव के कारण फ्रांस और जर्मनी द्वारा लागू नहीं किया जा सका।
ऐसा लगता है कि केवल फ्रांस, जर्मनी और इटली ही हैं जो यूरोपीय देशों के महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन में मायने रखते हैं – और यह रूस के साथ टकराव से अंततः आर्थिक आत्म-विनाश के वर्तमान मार्ग से बचने की एक सार्थक पहल कर सकते हैं।
अन्यथा, युद्ध को सुलझाने की दिशा में सभी राजनीतिक पहल के मार्ग अमेरिका के हाथों में छोड़ दिए जाएँगे और अगर ऐसा हुआ, तो किसी भी स्थायी समझौते में यूरोप या बाकी एशिया का कोई हित नहीं होगा। यूरोप के लिए यह ज्यादा दुखद होगा कि यूक्रेन युद्ध जैसी मुख्यतः यूरोप से जुड़ी समस्या का अंतत: अमेरिकी शक्ति के माध्यम से हल किया गया।