वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों से लेकर हिमाचल और गुजरात चुनावों में विपक्ष जीतने के लिए पुरानी पेंशन स्कीम, डायरेक्ट नगद मदद, मुफ्त बिजली और अन्य वादे करता आया है। इसको प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘रेवड़ी राजनीति’ का नाम भी दिया है। अब त्रिपुरा विधानसभा चुनाव और कर्नाटक विधानसभा चुनाव को लेकर इस ‘रेवड़ी राजनीति’ का फिर से आगमन हो गया है।
प्रधानमंत्री ने इस विषय में देश की संसद में भी राज्यों को चेताया है। कॉन्ग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने फिर विधानसभा चुनावों में वही रेवड़ी देने के वादे करने की शुरुआत कर दी है। इसका सबसे पहला उदारहण त्रिपुरा बना है जहाँ इसी माह की 16 तारीख को वोट होना है। त्रिपुरा में वर्तमान में मानिक साहा कि अगुवाई वाली भाजपा कि सरकार है।
इसके अतिरिक्त इसी माह पूर्वोत्तर के दो और राज्यों मेघालय और नागालैंड में चुनाव हैं। इसके पश्चात आने वाले 2-3 माह के भीतर भाजपा के लिए दक्षिण का प्रवेशद्वार कहे जाने वाले राज्य कर्नाटक में भी चुनाव हैं।
त्रिपुरा से हो गई रेवड़ी की शुरुआत
त्रिपुरा में वर्ष 2018 से ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। यह सरकार त्रिपुरा में तीन दशक से काबिज वाम दलों का शासन उखाड़ कर आई थी। इस बार वामदल अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने के लिए कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन करके राज्य में चुनाव लड़ रहे हैं। इसके लिए राज्य के विपक्ष में बैठे हुए दल हर तरह के प्रयास कर रहे हैं।
त्रिपुरा में कॉन्ग्रेस समेत वाम दलों ने अपना मेनिफेस्टो जारी कर दिया है। इन दलों ने जहाँ राज्य में 80 वादे किए हैं वहीं कॉन्ग्रेस ने 20 वादों का घोषणा पत्र जारी किया है।
इसमें दोनों दलों के एजेंडे में पुरानी पेंशन स्कीम को फिर से लागू करना और फ्री बिजली देने जैसे वादे शामिल हैं जिनको गुजरात जैसे राज्यों में पहले ही मतदाता नकार चुके हैं।
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कॉन्ग्रेस ने राज्य में पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने के साथ प्रति माह 140 यूनिट मुफ्त बिजली, 6 सिलेंडर सिलेंडर पर 500 रुपए की सब्सिडी जैसे वादे किए हैं। कॉन्ग्रेस अकेले अपने दम पर राज्य में सत्ता नहीं आ सकती इसलिए वह ऐसे वादे कर रही है जिनके पूरे ना होने या उनके वित्तीय नुकसान होने की स्थिति में वह अपना सारा बोझ वाम दलों के सर पर डाल सके। हालांकि, वाम दलों के साथ उसके गठबंधन के त्रिपुरा में सत्ता में आने की संभावनाएं काफी क्षीण हैं।
वहीं, वामदलों ने त्रिपुरा में जारी किए गए घोषणा पत्र में 2.5 लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने, मुफ्त बिजली देने और पुरानी पेंशन स्कीम को वापस लाने का वादा किया है।
त्रिपुरा के आर्थिक गणित में कहाँ फिट बैठते हैं विपक्ष के वादे?
कॉन्ग्रेस समेत विपक्षी दलों ने भले ही अपने घोषणा पत्रों में कितने ही वादे कर दिए हों, उनका असल में पूरा कर पाना असंभव सा प्रतीत होता है। सबसे बड़ा वादा पुरानी पेंशन स्कीम को वापस लाने का है। इस वादे को करने वाले दल स्वयं अन्तर्विरोध का शिकार हैं। दरअसल, त्रिपुरा में जब पुरानी पेंशन स्कीम को हटा कर लागू किया गया था तब राज्य में वाम दलों की सरकार थी।
वहीं अगर राज्य की आर्थिक हालत पर नजर डालें तो इन वादों का पूरा होना भी मुश्किल प्रतीत होता है। त्रिपुरा एक छोटा राज्य है जिसकी वर्तमान जनसंख्या करीब 41 लाख के आस-पास है।
राज्य के अंदर उद्योग धंधे भी ऊँचे स्तर पर विकसित नहीं हो पाए हैं। इसके पीछे दशकों की वामपंथी नीतियां बड़े स्तर पर जिम्मेदार हैं।
CAG कि एक रिपोर्ट के अनुसार, त्रिपुरा का कुल राजस्व वर्ष 2019-20 में 11,00, करोड़ रूपए था। वहीं राज्य का अपना राजस्व (वह राजस्व जो पूर्ण रूप से राज्य का होता है और इसमें केंद्र का बंटवारा नहीं होता; उदहारण के लिए जल कर) 2,101 करोड़ रूपए था।
इसी दौरान राज्य का सैलरी और पेंशन पर कुल खर्चा 8,033 करोड़ रूपए था। इसका अर्थ यह है कि त्रिपुरा को प्राप्त होने वाले कुल राजस्व का लगभग 73% धन मात्र सैलरी और पेंशन देने में जा रहा है।
इसके आगे और बढ़ने की उम्मीद है। इसके अतिरिक्त ध्यान देने वाले बात यह है कि वर्ष 2016-17 से वर्ष 2020-21 के बीच राज्य का सैलरी और पेंशन पर खर्च लगभग 70% बढ़ा है।
वर्ष 2016-17 में यह धनराशि लगभग 4,685 करोड़ रूपए थी। उस समय यह कुल राजस्व का लगभग 48% था जो कि इन्हीं पांच वर्षों में बढ़ कर 72% से भी अधिक हो चुका है।
अब ऐसे में यदि पुरानी पेंशन स्कीम को लागू किया जाता है तो बेहद कम आय वाले इस राज्य का आर्थिक बोझ असहनीय होगा।
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वहीं, दोनों दलों ने राज्य में मुफ्त बिजली देने की बात भी की है। कॉन्ग्रेस ने राज्य में हर परिवार को प्रति वर्ष 1,650 यूनिट बिजली देने का वादा किया है।
एशियन डेवलपमेंट बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, त्रिपुरा में वर्तमान समय में लगभग 8.25 लाख बिजली के कनेक्शन हैं। राज्य में सरकारी बिजली कम्पनी त्रिपुरा इलेक्ट्रिसिटी कॉर्पोरेशन अधिकाँश समय पर घाटे में चलता आया है।
वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार यह 110 करोड़ रूपए के घाटे में था। राज्य में बिजली चोरी और बिजली सप्लाई में लॉस एक बड़ी समस्या है। त्रिपुरा में वर्तमान में 50-150 यूनिट खर्च करने पर प्रति यूनिट लगभग 6 रूपए खर्च करने पड़ते हैं।
ऐसे में यदि कॉन्ग्रेस के वादे पर बात की जाए तो प्रति माह 8 .25 लाख घरों को 140 यूनिट बिजली फ्री देने का खर्चा लगभग 60 करोड़ आएगा जो प्रति वर्ष के हिसाब से 720 करोड़ रूपए बनता है।
ऐसी स्थिति में राज्य को इनकी अलग से व्यवस्था करनी पड़ेगी जो वर्तमान के आर्थिक हालतों में संभव नहीं है। त्रिपुरा का राजकोषीय घाटा कुल GDP का 5.89% है। राजकोषीय घाटा, राज्य की कुल कमाई और उसके खर्चे के बीच के अंतर को कहते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि राज्य की कुल कमाई 1000 रूपए है और उसके कुल खर्च 1100 रुपए हैं तो अतिरिक्त 100 रूपए वह उधार लेगा उसे राजकोषीय घाटे का नाम दिया जाता है। राजकोषीय घाटे के सम्बन्ध में भारत के वित्तीय प्रबंधन कानून के अनुसार किसी भी राज्य कि GDP का यह 3.5% से अधिक नहीं होना चाहिए परन्तु त्रिपुरा के संबंध में यह 5.89% है।
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इसके पीछे का कारण त्रिपुरा में उद्योग धंधों का कम होना और उसके कारण राजस्व का कम होना है।
पुरानी पेंशन स्कीम के सम्बन्ध में रिजर्व बैंक भी एक रिपोर्ट में चेता चुका है कि यदि इसे लागू किया जाता है तो यह आने वाले समय में बड़ी समस्या बन कर उभरेगा।
वहीं मुफ्त बिजली भी एक बड़ी समस्या बनाने वाली है क्योंकि इन नीतियों के कारण सरकारी बिजली कम्पनियों का नुक्सान बढ़ता रहता है।
अक्टूबर 2022 में पावर फाइनेंस कमीशन कि एक रिपोर्ट के अनुसार देश की बिजली प्रदाता कम्पनियों का घाटा वर्ष 2021 में 50,000 करोड़ रूपए के पार था। ऐसी स्थिति में इस तरह की नीतियां लाने पर इसके और गहराने की संभावना है।
कर्नाटक में भी अलापा जा रहा रेवड़ी का राग
कर्नाटक में विधानसभा का कार्यकाल इसी वर्ष मई माह में खत्म हो रहा है। उससे पहले चुनाव सम्पन्न कराए जाने हैं। राज्य में चुनाव की तैयारियां तेज हो गई हैं। वर्तमान में राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और भाजपा इसे अपने लिए दक्षिण का प्रवेशद्वार मानती है। कर्नाटक में भी कॉन्ग्रेस ने पुरानी पेंशन स्कीम का मुद्दा उठाना शुरू कर दिया है।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया कह चुके हैं कि अगर कॉन्ग्रेस सत्ता में वापस आती है तो वह पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करेगी। राज्य के कॉंग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार इस विषय में कह चुके हैं कि कॉन्ग्रेस हिमाचल प्रदेश और गुजरात में OPS का वादा कर भी चुकी है। हालांकि वह राजस्थान और छतीसगढ़ में OPS लागू करने के ऐलान को जमीन पर नहीं उतार पाई है।
ऐसे में कर्नाटक में इस बात को लेकर लगातार जोर दिया जाना राज्य की वित्तीय सेहत के लिए बड़ा खतरा है।
प्रधानमंत्री ने भी रेवड़ी के वादों पर चेताया
प्रधानमंत्री ,मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के विषय में बोलते हुए राज्यसभा में भी वित्तीय अनुशासन का मुद्दा उठाया। प्रधानमंत्री ने कहा कि राज्यों को आर्थिक सेहत सही रखने के लिए अनुशासन का रास्ता चुनना होगा।
उनका इशारा आम आदमी पार्टी और कॉन्ग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में पुरानी पेंशन स्कीम, मुफ्त बिजली और कर्ज के ऊपर मुफ्त योजनाएं चलाने की तरफ था।
प्रधानमंत्री ने पुरानी पेंशन स्कीम के विषय में अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि एक मुख्यमंत्री कहते कि मैं तो फैसला लेता हूँ, जो 2030-32 में आएगा वह भुगतेगा।
दरअसल, एक निजी संस्था पीआरएस समेत रिजर्व बैंक ने यह चेताया है कि आज पुरानी पेंशन जैसी योजनाएं लाने वाले राज्य तत्काल इसके आर्थिक नुकसान नहीं देखेंगे बल्कि अगले 10-11 सालों में इसका प्रभाव दिखना चालू हो जाएगा।
प्रधानमंत्री ने कई राज्यों के ऊपर भारी कर्ज के मुद्दे को भी उठाया। उन्होंने कहा कि कर्ज लेकर घी पीने वाली आदत गलत है। गौरतलब है कि पंजाब समेत कई राज्यों का कर्ज उनकी कुल GDP के 50% से भी ऊपर निकल चुका है जबकि वित्तीय प्रबंधन कानूनों के अनुसार इसे 25% से किसी भी हाल में नीचे होना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने कर्ज के सम्बन्ध में पड़ोसी देशों का भी उदाहरण दिया। उनका इशारा वर्तमान में आर्थिक कंगाली की स्थिति से जूझ रहे पाकिस्तान और श्रीलंका की तरफ था। उन्होंने कहा कि यह देश उलटे-सीधे कर्ज लेकर आज इस स्थिति में पहुँच गए हैं। हमें इस स्थिति से बचना होगा।
अब देखने वाली बात यह होगी कि आर्थिक रूप से घातक योजनाओं के सहारे अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे विपक्ष पर इसका क्या असर पड़ता है?
आने वाले समय में अन्य राज्यों में भी चुनाव होने हैं। क्या वहां पर विपक्ष अपनी नीति में कुछ बदलाव लाएगा या फिर इसी तरह वादे करके सत्ता में आने के प्रयास करेगा जिनसे भारत के खजाने पर बोझ बढ़ता जाए?