त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव की तैयारियाँ आरंभ हो गई हैं। सत्तारूढ़ दल भाजपा अपने पांच वर्ष के कार्यकाल को लेकर जनता के बीच फिर से जाएगी। ज्ञात हो कि त्रिपुरा में लेफ्ट के 25 वर्ष के शासन को समाप्त कर भाजपा ने वर्ष 2018 में सरकार बनायी थी।
राज्य में आगामी विधानसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस और वाम दलों ने गठबंधन में चुनाव लड़ने का फैसला किया है। त्रिपुरा में वर्ष 1978 में लेफ्ट की सरकार के पहले गठन से लेकर और वर्तमान में भाजपा के शासन तक राज्य में कॉन्ग्रेस और लेफ्ट दो प्रमुख ध्रुव रहे थे जिनकी प्रतिद्वंदिता अक्सर हिसंक झड़पों में देखी जाती थी।
1978 और 2018 के बीच वाम दल केवल वर्ष 1988 से 1993 के के बीच ही सत्ता से बाहर रहे। तब कॉन्ग्रेस एवं त्रिपुरा उपजात जुबा समिति गठबंधन ने सरकार बनाई थी। गौरतलब है कि वर्ष 2018 में लेफ्ट दलों का प्रमुख चुनावी नारा कॉन्ग्रेस के कार्यकाल को ‘काला दिन’ (कालो दिन) बताते हुए था।
लेफ्ट कॉन्ग्रेस के इस चुनाव से पूर्व हुए गठबंधन में तीसरा प्रमुख भागीदार ‘टिपरा मोथा’ हो सकता है, जिसका नेतृत्व पूर्ववर्ती त्रिपुरा शाही परिवार के वंशज प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा कर रहे हैं।
त्रिपुरा का चुनावी इतिहास
त्रिपुरा रियासत का भारतीय संघ में विलय वर्ष 1949 में हुआ था। इसके बाद वर्ष 1962 में यह प्रादेशिक परिषद से एक केंद्र शासित प्रदेश बना। तब सचिंद्र लाल सिंहा के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस ने राज्य की पहली सरकार बनाई थी।
1967 में कॉन्ग्रेस को 30 में से 27 सीटें मिली थीं। जनवरी 1972 में त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिला। वर्ष 1988 के चुनावों को छोड़ दें तो राज्य गठन से लेकर अब तक त्रिपुरा विधानसभा में पूर्ण बहुमत की सरकारें ही बनती रही हैं।
60 सदस्यीय विधानसभा में पिछली लेफ्ट सरकार के 51 विधायक थे। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 36 सीटें प्राप्त हुई थी। वहीं लेफ्ट दल 16 सीटों पर सिमट गया था और कॉन्ग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पायी। बीजेपी की सहयोगी आईपीएफटी को 8 सीटें मिलीं थी।
त्रिपुरा में क्षेत्रीय दलों की भूमिका
क्षेत्रीय समीकरणों की बात करें तो प्रद्योत माणिक्य ‘टिपरा मोथा’ का नेतृत्व कर रहे हैं। ज्ञात हो कि प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा ‘ग्रेटर तिप्रालैंड’ आन्दोलन का चेहरा बनकर उभरे हैं। ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग मूलत: आजादी के बाद से त्रिपुरा में हुए भारी जनसांख्यिकीय बदलाव से जुड़ी है। इस ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ में त्रिपुरा से इतर भी कुछ क्षेत्रों को इसमें शामिल करने की परिकल्पना की गई है।
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वहीं प्रद्योत के चाचा जिष्णु देव वर्मा भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री हैं। प्रद्योत आदिवासियों के लिए ग्रेटर टिपरालैंड राज्य की गारंटी मिलने तक कोई भी वादा करने से बच रहे हैं कि वह किसके साथ गठबंधन करेंगे।
लेफ्ट दल सीपीआई (एम) उनकी ओर आदिवासी समर्थन प्राप्त करने के लिए देख रही है। हालांकि सीपीआई (एम) नेता सीताराम येचुरी ने बुधवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस अलग राज्य की मांग को स्वयं के दल से जोड़ दिया है।
टिपरा मोथा के ग्रेटर टिपरालैंड मुद्दे पर सीताराम येचुरी ने कहा, “टिपरा मोथा का दावा असंवैधानिक नहीं है। हम यह भी चाहते हैं कि आदिवासियों और गैर आदिवासियों की वित्तीय, सामाजिक और सभी संवैधानिक मांगों को पूरा किया जाए। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि यह सीपीआई (एम) का मुख्य संघर्ष है।”
देखना यह है कि कॉन्ग्रेस और वाम दलों के बीच गठबंधन का असर कैसा रहता है। खासकर तब जब तृणमूल कॉन्ग्रेस भी त्रिपुरा में खुद को स्थापित करना चाहती है। गठबंधन पर इसलिए भी नज़र रहेगी क्योंकि वर्ष 2021 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी कॉन्ग्रेस और लेफ्ट दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा था पर 292 सीटों वाली विधानसभा में गठबंधन एक भी सीट जीतने में असफल रहा था।
इस गठबंधन से ममता बनर्जी को बड़ी जीत हासिल करने में मदद मिली थी। दरअसल जानकारों ने चुनावी विश्लेषण में यह अनुमान लगाया गया था कि कॉन्ग्रेस और लेफ्ट के गठबंधन ने अपने वोट बैंक को ममता बनर्जी की ओर शिफ्ट करवाने में अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे में गठबंधन के प्रदर्शन पर विशेषज्ञों और वोटर की नजर रहना स्वाभाविक है।
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