मन एक बहुत पेचीदा चीज है, और पेचीदा मन ही मानसिक परेशानियों, डिप्रेशन, एंग्जायटी, मूडस्विंग्स जैसी चीजों को जन्म देता है। मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के लिए 10 अक्टूबर को हर साल वर्ल्ड मेंटल हैल्थ डे मनाया जाता है।
मन कभी कभी हमें असम्भव और काल्पनिक विश्वास दिला देता है, जैसे यह सोचना कि हम कराओके पर जगजीत सिंह की तरह गजल गा सकते हैं, चाहे सालों से हमने वह गाना सुना ही न हो, या फिर एक नेगेटिव बात सुनकर किसी व्यक्ति की सौ अच्छाइयाँ भुलाकर उससे नफरत करने लगना।
ये थिंकिंग एरर्स कहलाती हैं जिन्हें मनोविज्ञान की भाषा में संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह (cognitive biases) कहते हैं, यानि हमारा मन बाहरी वातावरण से प्रभावित होकर कुछ पूर्वाग्रह बना लेता है, और हमें वैसे ही सोचने और फैसले लेने के लिए मजबूर करता है। येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वू-क्यूंग आह ने अपनी किताब, “थिंकिंग 101: हाउ टू रीजन बेटर टू लिव बेटर” में कुछ सबसे नुकसानदायक संज्ञानात्मक गलतियों पर प्रकाश डाला है कि कैसे हमारे पूर्वाग्रह हमारे निर्णयों और हमारे आसपास के लोगों को प्रभावित कर सकते हैं।
शोधकर्ता मानते हैं कि बहुत से “मानवीय पूर्वाग्रह” समय के साथ विकसित हुए हैं। पुराने समय में जब सुविधाओं और उत्पादों का अभाव था, तब हमारे पूर्वजों को कठिन परिस्थितियों में अपना अस्तित्व बचाने के लिए तुरंत निर्णय लेने पड़ते थे, हर चीज के लिए बहुत सोचने का वक्त उनके पास नहीं था। लेकिन आज जब हर चीज में चॉइसेज है, तब यह जरूरी नहीं है कि त्वरित निर्णय अच्छे ही हों, इसलिए कभी-कभी हम सोचते-सोचते अपने ही बनाए जाल में फँस जाते हैं।
हालांकि, इन सोच के जालों से बच निकलने के लिए हम कोशिश तो कर ही सकते हैं, और यही हमारे मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत करेगा। सब मन का ही तो खेल है। हमें कोई धारणा बनाने से पहले एक बार रुकना जरुर चाहिए, और अलग-अलग तरह के पूर्वाग्रहों के प्रति हमारी मानसिक प्रवृत्तियों के पैटर्न को समझना चाहिए।
आइए जानते हैं हमारे मन के 3 सबसे आम पूर्वाग्रहों के बारे में।
पूर्वाग्रह 1: अपनी क्षमताओं को ज्यादा आँकना
मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसे “illusion of fluency” कहते हैं, यानि हमारा बिना किसी ठोस सबूत के अपनी क्षमताओं में प्रति अति आत्मविश्वास से भर जाना। इसके परिणाम कुछ ऐसे हो सकते हैं, जैसे बिना पूरी तैयारी के ही बार बार करियर बदलने की इच्छा में उलझ जाना, या किसी प्रोजेक्ट को पूरा करने में लगने वाले समय को बहुत कम करके आंक लेना।
आह ने इसे समझाने के लिए अपने छात्रों पर एक प्रयोग किया और उन्हें बीटीएस के गाने “बॉय विद लव” का एक डांस क्लिप बार बार दिखाया, फिर उन छात्रों को बुलाया जिन्होंने कहा कि वे इसे आसानी से कर सकते हैं। पर उनमें से ज्यादातर एक के बाद एक ठोकर खाकर गिरे!
दरअसल, दूसरे लोगों को कोई चीज बड़ी आसानी से करते देखकर हमें यह भ्रम हो जाता है कि हम भी इसे आसानी से कर लेंगे, यहाँ तक कि हम कह बैठते हैं, “इसमें क्या बड़ी बात है?” पर अपने इस पूर्वाग्रह को कंट्रोल करने के लिए पहले उसे खुद पर आजमाकर देख लेना चाहिए, इससे ओवरकॉन्फिडेंस जल्दी से शांत हो जाता है।
यह प्रवृत्ति कई बार गलत कदम उठाने पर मजबूर कर देती है, और उससे मानसिक स्वास्थ्य के साथ साथ जीवन के कई पहलू बुरी तरह प्रभावित हो जाते हैं। इसलिए इस प्रवृत्ति से बचने के लिए पहले पूरी तैयारी करनी चाहिए।
जैसे प्रोजेक्ट में आने वाली बाधाओं और लगने वाले समय का बिना अनुभव के कोरा अनुमान लगाने की जगह उस क्षेत्र के एक्सपर्ट्स से सलाह लेनी चाहिए। आपके पास जितनी ही ज्यादा जानकारी होगी, किसी स्थिति का आप उतना ही बेहतर और सटीक आकलन कर हैंडल कर पाएँगे।
इस ओवर कॉन्फिडेंस या कहें अहंकार की प्रवृत्ति को झिड़कते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “मानव-स्वभाव की एक विशेष कमजोरी यह है कि वह स्वयं अपनी ओर कभी नजर नहीं फेरता। वह तो सोचता है कि मैं भी राजा के सिंहासन पर बैठने के योग्य हूँ। और यदि मान लिया जाय कि वह है भी, तो सब से पहले उसे यह दिखा देना चाहिए कि वह अपने वर्तमान पद का कर्तव्य भलीभाँति कर चुका है। ऐसा होने पर तब उसके सामने उच्चतर कर्तव्य आयेंगे।
जब संसार में हम लगन से काम शुरू करते हैं, तो प्रकृति हमें चारों ओर से धक्के देने लगती है और शीघ्र ही हमें इस योग्य बना देती है कि हम अपना वास्तविक पद निर्धारित कर सकें। जो जिस कार्य के उपयुक्त नहीं है, वह दीर्घकाल तक उस पद में रहकर सब को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। अतएव प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का विधान करती है, उसका विरोध करना व्यर्थ है।”
पूर्वाग्रह 2 : नकारात्मक बात को तरजीह देना
“नकारात्मकता पूर्वाग्रह” यानि सकारात्मक बातों की तुलना में नकारात्मक बातों को ज्यादा महत्त्व देना। उदाहरण के लिए, किसी बहुत अच्छी किताब के बारे में केवल एक नेगेटिव रिव्यू देखकर उसे न लेना। कोई नया कदम उठाते समय उसके बारे में एक दो नेगेटिव पहलू सुनकर निराश हो जाना या अपने कदम पीछे खींच लेना।
‘नेगेटिव बायस’ खतरनाक इसलिए होते हैं क्योंकि यह हमें गलत चुनाव करने की जगह अक्सर किसी चीज के बारे में सही निर्णय नहीं लेने देते, जैसे कि घर के लिए किसी बड़ी पर आवश्यक खरीद को टालते जाना, या किसी अच्छे ऑफर को ठुकरा देना।
इसके लिए हमें निर्णय लेते समय अपने विकल्पों की सकारात्मक विशेषताओं पर ध्यान देना चाहिए। मार्केटिंग में अक्सर ऐसा ही किया जाता है। जैसे किसी फूड प्रोडक्ट में 11% फैट कहने की जगह, उसे 89% फैट रहित कहना। ये दोनों एक ही उत्पाद के सही और सटीक विवरण हैं, पर इनकी फ्रेमिंग बदलने से यह खरीदारों को ज्यादा आकर्षित करता है। अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के लिए ऐसे छोटे-छोटे नेगेटिव बायस को छोड़ना बहुत मदद कर सकता है।
पूर्वाग्रह 3: खुद को सही साबित करने के लिए किसी भी हाल में जानकारी जुटाने की कोशिश
“तुष्टीकरण पूर्वाग्रह” या ‘confirmation bias’ यानि जो हम पहले से ही मानते हैं उसके पक्ष में जानकारी की तलाश करने या उसकी व्याख्या करने की जिद की प्रवृत्ति – यह सबसे खराब पूर्वाग्रह है। क्योंकि इस वजह से हम अपनी और दूसरों की बहुत सी सम्भावनाओं को हमेशा के लिए बंद कर देते हैं। हम अपने आपको एक वर्तुल में कैद कर लेते हैं। यही प्रवृत्ति धीरे धीरे OCD यानि Obsessive Compulsive Disorder में बदल जाती है।
इसके लिए कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में हुए एक एक्सपेरिमेंट में विशेषज्ञों ने प्रतिभागियों के दो ग्रुप्स में से एक को कहा कि ‘आप में डिप्रेशन का जेनेटिक जोखिम है’ और दूसरे ग्रुप को कहा कि ‘आपको जेनेटिक रूप से डिप्रेशन का कोई जोखिम नहीं है’। इसके बाद पहले ग्रुप के मूल्यांकन परिणामों में डिप्रेशन का बहुत उच्च स्तर पाया गया, जबकि दूसरे ग्रुप में ऐसा नहीं पाया गया।
इसका कारण था “तुष्टीकरण पूर्वाग्रह”, क्योंकि पहले ग्रुप के प्रतिभागी वह सभी “सबूत” खोजने लगे जो उनके कथित “जेनेटिक डिप्रेशन” के साथ फिट बैठें, और वे खुद को ये समझाने में कामयाब रहे कि वे वास्तव में उदास थे! अध्ययन बताते हैं कि अगर हम कुछ मानते हैं, भले ही वह न हो, तो हमारा दिमाग उन विचारों के समर्थन में जानकारी ढूंढ ही लेता है, या कहें गढ़ लेता है।
इससे बचने के लिए हमें निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले सभी पहलुओं को जानना चाहिए, चाहे वह हमें पसंद हों या नापसंद। हर विषय के अलग-अलग दृष्टिकोणों को देखना चाहिए, विचारों को आने देना चाहिए, लोगों को सुनना चाहिए, शांत भाव से जानकारी बढानी चाहिए – न कि केवल अपने अहं को तुष्ट करने वाले पूर्वाग्रह को पत्थर की लकीर मानना चाहिए। इस तरह हमें एहसास होता है कि शायद कहानी का एक दूसरा पहलू भी है, और हमारे विचारों का दायरा भी बढ़ता है। इस तरह हम और हमारे आसपास के लोग भी अपने मन को शांत रख सकेंगे।