आज़ादी के अमृत महोत्सव पर कर्नाटक में सावरकर वर्सेज़ टीपू सुल्तान विवाद से एक बात साफ़ हो गयी है कि चाहे आज़ादी को 75 साल बीत गए हैं पर अब तक शायद इसे स्वीकारा नहीं गया है कि आज़ादी ‘बिना खड्ग बिना ढ़ाल’ नहीं मिली है, इसके लिए एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, कितने ही लोगों ने अपनी जानें दीं और कितने ही लोगों ने कालापानी की भयंकर सज़ा भोगी है। पर सबसे ख़ास बात ये है कि केवल स्वार्थ आधारित लड़ाई झगड़ा किसी को क्रांतिकारी नहीं बना सकता।
कर्नाटक में एक वर्ग कई सालों से टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से युद्ध करने वाला महान योद्धा साबित करने में जुटा है, और इसे बढ़ाने का काम किया कांग्रेस ने सरकारी स्तर पर टीपू जयंती मनाने की घोषणा करके। पर क्या अंग्रेजों से युद्ध ही भारतीय स्वतंत्रता का संग्राम था या स्वशासन आधारित जनकल्याण की समग्र सोच वाला संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता का संग्राम था? क्या दो औपनिवेशिक शक्तियों की लड़ाई में पराजित शक्ति सहानुभूति के आधार पर राष्ट्रवादी कही जा सकती है?
टीपू का ‘पैतृक’ राज्य स्वयं अंग्रेजों जैसा ही औपनिवेशिक
टीपू के पिता हैदर अली ने स्वयं अंग्रेजों की ही तरह पहले कर्मचारी बाद में ‘सर्वाहारी’ यानि सब कुछ खा लेने वाला बनकर मैसूर के राज्य पर अवैध कब्जा किया था। मैसूर के तत्कालीन राजा चिक्क कृष्णराज के मंत्री नंजराज के अधीन सेना की नौकरी करते हुए हैदर ने पहले तो नंजराज को ही धोखा देकर पद से हटाया, फिर फ्रांसीसियों की मदद से धीरे धीरे स्वयं ही शासक बन बैठा। ऐसा ही कुछ अंग्रेजों ने किया था जो आए थे व्यापारी बनकर और अपनी कूटनीतियों द्वारा बन बैठे शासक।
जैसे अंग्रेजों का सत्ता हथियाने का उद्देश्य जनता की सेवा नहीं था बल्कि अपनी साम्राज्यवादी भूख को शांत करना, अन्य प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय देशों के ऊपर औपनिवेशिक बढ़त लेना और जनता को लूटकर अपने घर भरना था, हैदर का उद्देश्य भी इससे रत्तीभर अलग नहीं कहा जा सकता।
हैदर भी अपने विरोधी हैदराबाद के निजाम, मराठों और अन्य दक्षिणी प्रांतों पर येन केन प्रकारेण विजय चाहता था, एक तरफ 1766 में मराठों को 35 लाख देकर अलग कर रहा था, दूसरी ओर केलाडी, बिल्गी, बेदनूर, मालाबार, कालीकट से लेकर धारवाड़ और बेल्लारी तक आक्रमण करके उपनिवेश बना रहा था।
हैदर अली के इस औपनिवेशिक युद्ध का एक और मकसद था जो पूरी तरह मजहबी था, यानि देशी संस्कृति का दमन और इस्लाम का विस्तार। इस उद्देश्य को लेकर मालाबार क्षेत्र में उसकी सेना द्वारा हिन्दुओं पर भयंकर अत्याचार किए गए थे।
टीपू और सावरकर की लड़ाई में सैद्धांतिक अंतर
अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई और अंग्रेजों से सावरकर की लड़ाई में एक सैद्धांतिक अंतर है। जहाँ टीपू को मैसूर का लूटा हुआ राज्य उसके पिता से विरासत में मिला था। वहीं सावरकर किसी भी प्रकार की सत्ता से रहित थे और उनका संघर्ष देश और देशवासियों की तत्कालीन दशा और दिशा से खिन्न होकर विशुद्ध राष्ट्र चिन्तन पर आधारित था।
टीपू जहाँ इस्लामिक तुर्की के सुल्तान और अंग्रेजों के प्रतिद्वन्द्वी फ्रांसीसियों से सांठगांठ कर भारत की धरती को ही युद्ध का मैदान बनाना चाहता था, वहीं सावरकर कभी भी भारत की धरती को अन्य विभिन्न सैन्य शक्तियों के युद्ध का प्लेटफॉर्म नहीं बनाना चाहते थे, क्योंकि इसमें अंततः भारत की सामान्य जनता ही पिसती।
आज कांग्रेस बड़ी ही बेशर्मी से सजामुक्ति की रूटीन प्रक्रिया की गलत व्याख्या कर सावरकर पर माफ़ी मांगने का आरोप लगाती है, वहीं कांग्रेस के प्यारे टीपू सुल्तान क्या कर रहे थे? 1791 में श्रीरंगपटनम के पास कॉर्नवालिस के नेतृत्व में जो आंग्ल मैसूर युद्ध हुआ उसमें अपनी हार को निश्चित जानकर टीपू ने तुरंत संधि वार्ता आरम्भ करदी और 1792 में एक अत्यंत अपमानजनक संधि की।
श्रीरंगपटनम की इस संधि में टीपू ने अपना आधा राज्य कम्पनी के सुपुर्द कर दिया, उस समय 30 लाख पौंड की भारी भरकम रकम हर्ज़ाने में भरी और अपने दो बेटों को जमानत के रूप में कॉर्नवालिस को सौंप दिया। शायद ज्ञात इतिहास में यह इकलौती ऐसी घटना है जब अपने बेटों को शत्रु के यहाँ जमानत पर देना पड़ा हो। क्या कांग्रेस की पारंपरिक शब्दावली के अनुसार टीपू को ‘जमानत-जब्त वीर’ कहना चाहिए?
टीपू : भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के विचार वाला लड़ाका
टीपू के युद्धों में कहीं भी राष्ट्रवाद का नाम नहीं था, अंग्रेज उसके निजी औपनिवेशिक लक्ष्यों में उनके निजी लक्ष्यों के कारण बाधक थे बस यही युद्ध का कारण था। टीपू के युद्धों का लक्ष्य जिहाद था जो भी उसे विरासत में मिला था। कित्तूर, कूर्ग, नरगुंड, बिदनूर में टीपू और उसकी सेना ने नरसंहार, बलात्कार और जबरन धर्मान्तरण किए थे।
केरल के इतिहास में टीपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली खान की 1766 से 1792 तक के शासन की अवधि जबरन धर्मांतरण सहित सभी प्रकार के इस्लामी अत्याचारों का सबसे काला पन्ना मानी जाती है। केवल हिन्दू ही नहीं बल्कि टीपू ने मैंगलोर में ईसाईयों पर भी अत्याचार किए थे और हज़ारों ईसाईयों को श्रीरंगपटनम भेजकर जबरन मुसलमान बनाया था।
इतिहासकार लुईस बी.बौरी के अनुसार, मालाबार के हिंदुओं पर टीपू सुल्तान द्वारा किए गए अत्याचार, महमूद ग़जनी, अलाउद्दीन खिलजी और नादिर शाह द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों से भी बदतर और अधिक बर्बर थे। टीपू के सैन्य अभियानों के अन्तर्गत कोझीकोड शहर के थाली, तिरुवन्नूर, वरकल, पुथुर, गोविंदपुरम, थलिककुन्नू और आसपास के अन्य मंदिर पूरी तरह से नष्ट कर दिए गए थे।
इन सबके बावजूद ऐतिहासिक दस्तावेजों और अभिलेखों को जानबूझकर ‘सेकुलर’ सरकारों द्वारा दबाया जाता रहा है, ताकि मैसूर के मुस्लिम तानाशाह शासक टीपू सुल्तान को एक उदार मुस्लिम राजा के रूप में पेश किया जा सके और स्वतंत्रता का झूठा योद्धा बनाकर छत्रपति शिवाजी, कुंवर सिंह, राणा प्रताप और केरल के पजहस्सी राजा जैसे क्रान्तिकारी राष्ट्रीय नायक के रूप में पेश किया जा सके।
क्या टीपू को सावरकर से जोड़ने की सोच रखने वाले लोग दिमाग ठण्डा कर और थोड़ा इतिहास का अध्ययन करके यह सोच सकते हैं कि वो वास्तव में कह क्या रहे हैं?