भारत के स्वतंत्र होने के कई वर्ष बाद एक दिन अचानक भारत सरकार को समझ में आया कि भारत में तो बाघों की आबादी कम हो रही है। सरकारी तंत्र था तो सरकारी गति से ही काम करता न? इसलिए भारत में बाघों का शिकार 1968 में जाकर प्रतिबंधित हुआ। बाघ भारत के लिए कितने महत्व के होते थे, इसका अनुमान महाभारत के एक श्लोक से लगाया जा सकता है –
निर्वनो वध्यते व्याघ्रो निर्व्याघ्रं छिद्यते वनम्
तस्माद्व्याघ्रो वनं रक्षेद्वनं व्याघ्रं च पालयेत् ॥
मोटे तौर पर इसका अर्थ है, उन वनों को मत काटो जहाँ बाघ रहते हैं। बाघों को वनों से समाप्त नहीं होने दो। बाघों के बिना वनों का और वनों के बिना बाघों का अस्तित्व संभव नहीं। वन बाघों को आश्रय देते हैं और बाघ वनों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
भारत में इतने काल से बाघों का महत्त्व समझा जाता था, लेकिन बाद के दौर की जो विदेशी विचारधाराएँ भारत पर शासन करने आयीं, उनमें सभी चीजों को उपभोग की वस्तु समझा जाता था, जिसका नतीजा ये हुआ कि भारत में बड़े पैमाने पर बाघों का शिकार हुआ। महाभारत का खीलभाग (अंतिम भाग) माने जाने वाले हरिवंश पुराण में बाघों के गुणों की मनुष्यों से तुलना मिलती है। यही वजह थी कि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भी दुर्योधन को ‘नरव्याघ्र’ कहते नजर आ जाते हैं।
इस सब के वाबजूद भारत में 1947 तक केवल 40000 बाघ बचे थे। जब 1968 में इनकी गिरती हुई संख्या देखकर इनपर प्रतिबन्ध लगाया गया, उसके बाद भी बाघों का शिकार रुका नहीं था। अवैध शिकार जारी रहा और बाघों की गिनती गिरते-गिरते 2010 में 3200 के करीब जा पहुंची। कुछ ही साल बाद 2014 में ये गिनती और कम, 2226 हो गई थी। कुछ दिन पहले तक बताया जा रहा था कि पिछले 8-9 वर्षों में गिनती थोड़ी सी बढ़कर 2976 पर पहुँच गई है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 1 अप्रैल 1973 को “प्रोजेक्ट टाइगर” की शुरुआत की थी। शुरू में 14000 स्क्वायर किलोमीटर के क्षेत्र को बाघों के लिए नौ संरक्षित वनों के रूप में चिन्हित किया गया। इन संरक्षित वनों की गिनती अब बढ़कर 51 हो चुकी है और क्षेत्रफल 74000 स्क्वायर किलोमीटर हो चुका है। संरक्षित वनों के होने से बाघों और मनुष्यों की भिडंत बंद नहीं हुई। सिर्फ 2020 में बाघों के हमले में 106 और 2021 में 127 मनुष्य अपनी जान गँवा चुके हैं।
खर्च के हिसाब से देखें तो भी ये केंद्र सरकार के लिए कोई बहुत कम खर्च का काम नहीं है। तेरहवीं पंच-वर्षीय योजना में नेशनल टाइगर कोंजरवेशन सोसाइटी को 1027 करोड़ का फण्ड दिया गया था।
भारत में दुनिया भर की बाघों की आबादी का 70 प्रतिशत मौजूद है, इसलिए भी भारत पर बाघों को अवैध शिकारियों से बचाए रखने की जिम्मेदारी अधिक हो जाती है। जो कानून वन्य जीवों के लिए बने हैं उनमें शायद आपका ध्यान इस बात पर भी जाये कि भारतीय वन्य जीव संरक्षण का जो कानून आया था, वो भी 1972 का ही था। इसके ठीक अगले वर्ष जब बाघों के लिए विशेष प्रयास शुरू हुए, उसी समय 1973 में चिपको आन्दोलन भी हुआ था।
बाघों की समाप्ति में कुछ विशेष समुदायों का क्या योगदान होता है, इसे समझना हो तो भारत में बाघों को कैसे देखा जाता है, और अब्राह्मिक मतों को मानने वालों ने क्या कहा, उसकी तुलना की जा सकती है। हाल में विवादों में लपेटा गया जो सबरीमाला तीर्थ था, वहाँ भी अयप्पा को बाघों से जोड़ा जाता है, इसलिए बाघ पूज्य हो जाते हैं। बौद्ध धर्म की मान्यताओं को देखें तो अपने एक पूर्व जन्म में गौतम बुद्ध यानि बोधिसत्व स्वयं को एक बाघिन को भोजन के रूप में अर्पित करते दिखते हैं, जब वो भूख के मारे अपने ही शावकों को खाने जा रही थी। इसकी तुलना में इसाई मिशनरियों का बाघ से बहुत बाद में सामना हुआ। उनके हिसाब से ये “भयावह जीव” था जो कि “बाइबिल में वर्णित धरती का वासी नहीं था”।
उनका मानना था कि जैसा सहजीवन भारत में इस पशु के साथ मनुष्यों का है, वो तो संभव ही नहीं। बहुत बाद के दौर में आजकल वही विदेशी भारतीय लोगों को “को-एग्जिस्टेन्स” का पाठ पढ़ाने में भी जुटे दिखते हैं!
कहीं न कहीं ये हमें एक पुरानी अफ़्रीकी कहावत की याद दिलाता है जिसमें कहा जाता है कि जबतक शिकार की कहानियां शेर स्वयं नहीं सुनायेंगे, तबतक शिकार की कहानियों में शिकारी का महिमामंडन होता रहेगा। भारत को पर्यावरण संरक्षण का ज्ञान देते समय वो लोग भाषण दे रहे होते हैं, जिनका योगदान विश्व भर में पार्यावरण को नष्ट करने और प्रजातियों को विलुप्त करने में सबसे अधिक रहा है। बदलते दौर में अब भारत ने अपनी उपलब्धियों का डंका बजाना शुरू किया है। कुछ लोगों को ये बाघ की दहाड़ शोर जैसी लगेगी, लेकिन असल में ये केवल रास्ता छोड़ने का सन्देश है। वन्य जीवों के साथ जीना संभव है, नए लोगों को ये सिखाया तो जाना ही चाहिए।