साल 1989 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था मैं आजाद हूँ। फिल्म में मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन थे, शबाना आजमी थी और अनुपम खेर भी थे और फिल्म का निर्देशन टीनू आनंद ने किया था। इस फिल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि एक अखबार के संपादक को जब उसके सेठ जी कहते हैं कि उनका अखबार बिक नहीं रहा है तो संपादक लोग मिलजुलकर एक ऐसा कैरेक्टर तैयार करते हैं जो क्रन्तिकारी किस्म के पत्र अखबार में छपवाता है। इस कैरेक्टर को नाम दिया जाता है ‘आजाद’… सेठ जी का अखबार चल पड़ता है, TRP ताबड़तोड़ हो जाती है। सचिवालय और मंत्रालय से लेकर धन्ना सेठ इस आजाद को लेकर अलर्ट हो जाते हैं। सेठ जी तो आने वाले समय में इस अखबार के जरिए मुख्यमंत्री बनने का भी सपना देखते हैं। लेकिन अखबार के सम्पादक लोगों के लिए ये मुश्किल खड़ी हो जाती है कि आखिर जो आजाद है ही नहीं उसे अब लोगों के सामने कैसे लाया जाए?
The Sabarmati Report Movie Review | Godhra train burning story with sensitivity and facts | Ashish Nautiyal
इस फिल्म का जिक्र करने का उद्देश्य यही बताना है कि मीडिया या पत्रकारों ने सिर्फ और सिर्फ सेंसेशन के नाम पर इस देश में कई दानव खड़े किये हैं। इसके लिए कभी हीरो तैयार किये गए तो कभी पीड़ित तैयार किये गए। वास्तव में जब कभी पीड़ितों की बात दिखने की बारी आई तब घटनाओं में पीड़ित और आरोपितों को ही बदलकर पेश कर दिया गया।
मीडिया की इसी कलाकारी का शिकार बने थे वो 59 कारसेवक जिन्हें साल 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में जला दिया गया था। अयोध्या से लौट रहे इन रामभक्तों को जिन्दा जलाने की घटना भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण तारीख बन गई। 27 फरवरी 2002 के दिन गुजरात के गोधरा कांड के बाद पूरे गुजरात में भड़क उठे थे और यहाँ से कई पत्रकारों ने खूब नाम कमाया। इनमें सबसे ज्यादा नाम उन कथित पत्रकारों ने कमाया जिन्होंने इस षड्यंत्र को दुर्घटना साबित करने का पूरा प्रयास किया।
‘द साबरमती रिपोर्ट’ (The Sabarmati Report) फिल्म ऐसे ही पत्रकारों और मीडिया के चरित्र को केंद्र में रखकर बनी फिल्म है, जो 15 नवम्बर से सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म की बात करें तो निर्माता एकता कपूर और निर्देशक धीरज शरण की द साबरमती रिपोर्ट साबरमती एक्सप्रेस की उस दर्दनाक घटना को पर्दे पर लेकर आए हैं, जिसमें मुख्य भूमिका में विक्रांत मेसी हैं।
विक्रांत इस फिल्म में एक हिंदी के पत्रकार हैं जो अपने ही चैनल के कुछ एलीट्स पत्रकार, सेठों और सम्पादकों के खिलाफ इस बात पर लड़ते हैं कि उन्होंने गोधरा जाने के बाद इसका सच जानने के बाद भी इसे दुर्घटना साबित किया और जो पीड़ितों के टेप थे वो छिपा दिए गए। पत्रकार समर कुमार यानी विक्रांत मैसी और अंग्रेजी जर्नलिस्ट मनिका राजपुरोहित के बीच सच और झूठ की लड़ाई भी इस बीच दिखायी जाती है और हिंदी बनाम अंग्रेजी के पत्रकारों के वर्चस्व की जंग भी इसमें आप देख सकते हैं।
फिल्म की शुरूआत ही हिंदी के पत्रकार समर कुमार को कठघरे में रखते हुए होती है, जिसका एक तरह से प्रतीकात्मक सन्देश भी दिया गया है कि गोधरा काण्ड में अगर किसीको कटघरे में रखा जाना चाहिए तो वो मीडिया है। क्योंकि मीडिया ने ही इस सच को कई वर्षों तक लोगों के सामने आने से रोका। इस फिल्म की सबसे बड़ी कामयाबी ये मानी जाने चाहिए कि आख़िरकार गोधरा और साबरमती एक्सप्रेस में क्या हुआ था, उस सच पर बात करने की हिम्मत आखिरकार बॉलीवुड में किसी ने की है।
सबसे बड़ा प्रश्न ये था कि क्या किसी को भी उन 59 रामभक्तों के नाम याद हैं जिन्हें जिन्दा जला दिया गया? जिनकी बात कभी किसी स्तंभकार, पुरस्कार जीतने वाले पत्रकार, फिल्म निर्माताओं और उपन्यासकारों ने करनी जरुरी नहीं समझी? इसमें महिलाऐं भी थीं, बच्चे भी थे, बूढ़े भी थे लेकिन कभी मानवाधिकार के नाम पर उनके लिए 2 आंसू किसी ने कभी नहीं बहाए, क्योंकि उनका अपराध ये था कि वे हिन्दू थे। मुख्यधारा की मीडिया की तो एडिटोरियल पालिसी ही यही रही है कि उनकी नज़रों में जब तक आप हिन्दू हैं तब तक आप विक्टिम नहीं हो सकते।
ये ट्रेंड तो पिछले दस सालों में बदला है कि दुसरे विचार भी लोगों के सामने आने लगे, लोगों ने हिम्मत की कि वो उन मुद्दों पर भी बात कर सकें जिन्हें पहले दफन कर दिया जाता था। उसी साहस का परिणाम साबरमती रिपोर्ट फिल्म भी है। हालाँकि सिनेमाई दृष्टि से ये फिल्म नहीं आंकी जानी चाहिए और पूरे नंबर सिर्फ इस साहस के लिए इसके निर्माताओं को दे दिए जाने चाहिए कि आखिरकार गोधरा और साबरमती एक्सप्रेस की कहानी की सच्चाई पर बात करने की पहल किसी ने की है। वरना अब तक बॉलीवुड की फिल्मों में गोधरा को फिल्म के एक छोटे से हिस्से के रूप में पेश किया जाता था और उसमें भी बताया जाता था कि पीड़ित सिर्फ गोल टोपी वाले भाईजान लोग ही थे।
उन 59 लोगों की तब भी कहीं चर्चा नहीं होती। साबरमती रिपोर्ट फिल्म उन 59 लोगों की बात करती है, बार बार करती है और बार बार ये बताती है कि ये दुर्घटना नहीं थी बल्कि एक सोची समझी साजिश थी- भारत को 2 हिस्सों में बांटने की और इसके पीछे जो लोग थे उनके मकसद क्या थे, उस पर भी बात करती है। आपने देखा होगा कि मीडिया में एक एलीट्स का वर्ग है जिसका कीवर्ड और USP ही गोधरा और 2002 रहा है, उन्होंने कई किताबें लिख डालीं, कई शो किए, कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों का बुलावा उन्हें आया और फिर ग्लोबल जर्नलिस्ट भी मुंह से कभी भूल से भी इन 59 हिन्दुओं के नाम नहीं आए और उन्होंने ये भी कोशिश की कि इसका जिम्मेमदार हिन्दुओं को ही ठहरा दिया जाए।
साबरमती से पहले ऐसा ही अभिनय ‘द अटैक ऑफ 26/11’ में अभिनेता नाना पाटेकर ने किया था जब मुंबई में हुए हमलों का सच सिनेमा के नाम पर स्पष्ट रूप से रख दिया गया था। आप लोग भी ये फिल्म देखिये और दिखाइए, मनोरंजन की दृष्टि से नहीं बल्कि इस नजर से कि बॉलीवुड में ऐसी पहल आखिरकार होने लगी हैं। मीडिया में भी अब आपको हिन्दुओं की बात करने वाले लोग मिलने लगे हैं। एक दशक में जो बदलाव आया है उसके बाद से मीडिया की आजादी का इस्तेमाल हो रहा है, सच के दुसरे हिस्से को नैरेटिव नाम देकर छिपाने वाले सेलिब्रिटी पत्रकारों को अब लोगों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। और जो लोग गोधरा में हिन्दुओं को असली पीड़ित नहीं मानते थे, वो आज एक तरफ से खो गए हैं। याद रखिये कि sabarmati report सिर्फ एक फिल्म नहीं है बल्कि गोधरा के सच को तोड़ने-मरोड़ने की भी कहानी है।