कुछ दिनों पूर्व दीपावली पर ऑफिस से छुट्टी मिलते ही गाँव की बस पकड़ ली। गाँव पहुंच कर घर के आँगन में आराम फरमा रहा था। वहीं सामने एक दृश्य कुछ यूँ था कि चाचा जी खेत में हल जोत रहे थे। खेत में जुते बैलों को देखते ही मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित ‘दो बैलों की कथा’ सहसा याद आ गई।
झूरी किसान और उसके दो बैल, हीरा और मोती। सहसा अपना बचपन याद आने लगा। जब कन्धे पर हल और हाथ में बैल की रस्सी। खेत की ओर बढ़ते कदम। मन-मस्तिष्क में पूरा परिदृश्य बनने लगा। साथ ही कई सवाल भी कौंदने लगे। एक बड़ा सवाल यह भी कि अब वो हीरा-मोती की जोड़ी ग्रामीण आँचल दूर-दूर तक दिखती नहीं। इस सवाल को चरितार्थ करती एक रिपोर्ट भी आई है। वो भी उत्तराखंड जैसे कृषि प्रधान राज्य से।
दैनिक जागरण अखबार की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पलायन की मार, खेती में मिनी ट्रैक्टर के उपयोग तथा बंजर भूमि के बढ़ते दायरे के बाद बैलों की सँख्या बेहद कम रह गई है। आलम यह है कि ग्राम पंचायतें बैल विहीन हो गई हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में गाय, भैंस, बैलों के घटते इस कुनबे का परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे परम्परागत कृषि नगण्य हो गई। क्योंकि पशुधन ही पारम्परिक कृषि का एक आधार है।
क्या है, परम्परागत कृषि?
परम्परागत खेती मुख्यत: प्रकृति पर निर्भर खेती है। इसमें वर्षा जल, देसी/स्थानीय बीजों, गोबर की सड़ी-गली खाद और परंपरागत कृषि यंत्रों जैसे- हल, बैल, खुरपी, फावड़ा आदि का प्रयोग किया जाता है। परम्परागत कृषि पशुपालन और खेती का सामंजस्य है।
इस खेती को रसायन मुक्त खेती के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जिसमें, केवल प्राकृतिक घटकों का उपयोग होता है। इसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने पर भी काम किया जाता है। कृषि-पारिस्थितिकी में अच्छी तरह घुली-मिली, यह एक विविध कृषि प्रणाली है। जो फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है।
यह पशुधन से कैसे जुड़ी है?
हमारे पारम्परिक कृषि में पशु, किसान के मित्र रहे हैं। जैसे बकरी, भैंस, गाय, बैल, सूअर आदि। कई रिपोर्ट्स बताती है कि बकरी खाद, स्वस्थ मिट्टी और पौधों के लिए सबसे बेहतरीन पशु खादों में से एक है। वहीं सर्वाहारी के रूप में, सूअर खेत के कचरे के सबसे कुशल कन्वर्टर्स में से एक हैं, जो मानव उपयोग के लिए अनुपयुक्त सामग्री को मांस, खाद और आय में बदलते हैं।
भेड़ पालन, मत्स्य पालन और मुर्गी पालन से किसान बेहतर आय प्राप्त करते हैं। मौसम चक्र में फसल ख़राब हो जाने पर यह सभी विकल्प किसान को आर्थिक रूप से मदद करते हैं। कृषि प्रणाली में पशुधन का एकीकरण परम्परागत कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने में भी मदद करता है।
क्या पशुधन के साथ कृषि टिकाऊ है ?
लघु-जोत वाले खेत में पशुधन का एकीकरण कृषि की दीर्घकालिक स्थिरता का एक प्रमुख घटक है। विशेष रूप से महत्वपूर्ण पोषक चक्र के माध्यम से। पशुधन खेत की उर्वरता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पौधे और अपशिष्ट पदार्थों को ऊर्जा के महत्वपूर्ण स्रोतों में बदलते हैं, या तो खेत पर खपत के लिए, या इसके बाहर बिक्री के लिए।
पशुधन और कृषि का सम्बन्ध कोई नया नहीं है
गाय, बैलों के साथ किसान का उल्लेख हमारे वेदों में मौजूद है। लेकिन वर्ष 1965 में हरित क्रान्ति शुरू होने के बाद खेतों में पैदावार बढ़ी। साथ ही, खेती में रसायन का प्रयोग भी बढ़ता चला गया। रसायन के प्रयोग से मिट्टी की गुणवत्ता पर असर पड़ा और 1985 के बाद से खेतों में पैदावार घटनी शुरू हुई।
फिर खेती की चर्चा में एक नाम जुड़ा, सुभाष पालेकर का। इन्होंने प्राकृतिक कृषि पर कार्य करना शुरू किया। सुभाष पालेकर को प्राकृतिक कृषि पर उनकी रिसर्च के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
प्राकृतिक कृषि
सुभाष पालेकर मॉडल ZBNF (जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग) पर आधारित है। यानी, शून्य लागत पर प्राकृतिक खेती पर आधारित है। ZBNF की यह प्रक्रिया पूर्ण रूप से भारतीय गाय पर आधारित है। ऐतिहासिक रूप से गाय, भारत के ग्रामीण जीवन का हिस्सा रही है।
गाय के गौमूत्र और गोबर से खाद तैयार किए जाते हैं। जो पर्यावरण के अनुकूल होते हैं। जैसे, जीवामृत और बीजामृत। जीवामृत की मदद से जमीन को पोषक तत्व मिलते हैं और ये एक उत्प्रेरक एजेंट के रूप में कार्य करता है। जिसकी वजह से मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की गतिविधि बढ़ जाती है। बीजामृत का इस्तेमाल नए पौधों की बीज रोपण के दौरान किया जाता है। बीजामृत की मदद से नए पौधों की जड़ों को कवक, मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारी और बीजों को बीमारियों से बचाया जा सकता है।
इस मॉडल में खेती रासायनिक उर्वरकों के बिना की जाती है। सिर्फ एक देसी गाय के गौमूत्र और गोबर से 30 एकड़ खेत हेतु खाद तैयार की जा सकती है।
इसके कई लाभ होते हैं। जैसे, गाय का गोबर केंचुए की संख्या बढ़ाने में मददगार होता है। खेती में लागत कम लगती है। पानी की बचत होती है। उत्पादन भी बढ़ जाता है।
सबसे पहले यह मॉडल वर्ष 2019 में कर्नाटक में लागू हुआ था। वर्ष 2021 में हिमाचल प्रदेश भी प्राकृतिक खेती के इस मॉडल को अपना चुका है। सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को वैश्विक जलवायु और खाद्यान्न संकट का समाधान बताते हैं। वैश्विक जलवायु के संकट का समाधान इसलिए क्योंकि इसमें रासायनिक खेती की तरह कार्बन उत्सर्जन नहीं होता।
वहीं कई लोगों द्वारा रासायनिक खेती का विकल्प आर्गेनिक या जैविक खेती को बताया जाता है। जबकि, असल में हक़ीक़त ठीक इसके विपरीत है। यह कुछ उत्पादों को बेचने के लिए एक नया बाजार तैयार करने की मुहिम मात्र है। इस खेती में संसाधन काफी महंगे होते हैं, जिससे छोटे किसानों की आर्थिक मुश्किलें बढती हैं। इस खेती में विशाल मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है, जिससे जीवाणुओं का विघटन बढ़ता है।
पशुधन संवर्धन कैसे किया जा सकता है ?
पहले, भारत में किसान हो या फिर अन्य गैर-किसान परिवार। सभी के घरों में एक गाय अवश्य रहती थी। जिससे वे अपनी जरूरतें भी आसानी से पूर्ण करते थे। दक्षिण भारत में अभी भी कई हिस्सों में यह परम्परा जारी है। इसका एक बड़ा उदाहरण है, आंध्र प्रदेश।
आंध्र प्रदेश के संगरा गाँव के एक किसान सिंहाचलम। जो खुद को ‘बैल एंटरप्रेन्योर’ कहते हैं। जो प्रत्येक कृषि मौसम में अपने बैलों की जोड़ी के साथ आस-पास के गाँवों में अन्य लोगों के खेतों में काम करने के लिए यात्रा करते हैं। देश के अधिकाँश गाँवों में बैल पारंपरिक रूप से केवल जुताई और परिवहन के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। वहीं, सिंहाचलम अपने बैलों का उपयोग निराई और बुवाई के लिए करता है।
भारत में गौशालाओं के समुचित विकास की आवश्यकता है। इन्हें संचालित करने के लिए सरकार भी प्रयास करती है। साथ ही समाज के स्तर पर भी लोगों को सहयोग करना चाहिए। इससे शुद्ध नस्ल की गाय उपलब्ध होंगी और आमदनी का एक नया जरिया भी होगा। इसके अलावा गाय के विभिन्न उप–उत्पादों का उत्पादन कर गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। इसी महत्व को ध्यान में रखते हुए सरकार भी समय समय पर अनेक योजनाओं की शुरुआत करती है।
पशुधन संवर्धन और सरकार
पशुधन संवर्धन हेतु भारत सरकार भी कई कदम उठाती रहती है। भेड़-बकरी पालन एवं मत्स्य पालन के लिए अनेक योजनाएँ चल रही हैं। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए देसी गाय पालने वाले किसानों के लिए 10,800 रुपए प्रतिवर्ष की सब्सिडी उपलब्ध कराई जा रही है।
हिमाचल प्रदेश के इस वित्तीय वर्ष के बजट में घोषणा की गई थी कि हिमाचल प्रदेश में पाँच बड़े गौ अभ्यारण्य स्थापित किए जाएंगे। वहीं हिमाचली पहाड़ी गाय के संरक्षण के लिए एक उत्कृष्ट फार्म स्थापित किया जाएगा। ऐसी ही एक योजना है गोबर-धन योजना।
इस योजना के अन्तर्गत देश के किसानों से गोबर और फसल अवशेषों को उचित दाम पर खरीदा जाता है और इस योजना के तहत पशुओं के मल, गोबर अथवा खेतों के ठोस अपशिष्ट पदार्थ जैसे कि भूसा, पत्ते इत्यादि को कंपोस्ट, बायोगैस या बायो सीएनजी में परिवर्तित किया जाता है।
वहीं, हाल के वर्षों में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में बैलों के उपयोग की नई तकनीक देखी जा रही है। इस पुनरुद्धार के पीछे प्रमुख कारणों में से एक है भारत का बाजरा। बाजरा पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करना, विशेष रूप से 2018 के बाद, जिसे सरकार ने ‘बाजरा का वर्ष’ घोषित किया।
इसका भविष्य क्या?
मशीनीकरण के बाद, ट्रैक्टरों को सब्सिडी दी गई और सरकारों ने मशीनों का पक्ष लिया। आज, ट्रैक्टर फर्म किसानों के दरवाजे तक पहुंच गई हैं। जबकि, आजतक पशु संवर्धन के उपयोग के बारे में ज्यादा बात नहीं हुई है। वहीं, मशीनीकरण ने बड़े किसानों को लाभान्वित किया है, जो देश की किसान आबादी का 15 प्रतिशत हिस्सा हैं। लेकिन, जो 75 प्रतिशत कृषि भूमि के मालिक हैं। यह छोटे और सीमांत किसानों के लिए अनुपलब्ध है।
परंपरागत कृषि छोटे और सीमांत किसानों के लिए वरदान है। दूसरी ओर पशुधन भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। वर्तमान में आधुनिकता हर क्षेत्र की माँग है। हालाँकि, यह भी ध्यान देना बेहद जरूरी है कि भारत की परम्परागत खेती और पशुधन संवर्धन का अद्भुत सामंजस्य कहीं आधुनिकता की आड़ में विलुप्ति की कगार पर न पहुँच जाए। ठीक उसी तरह जैसे भारत की अपनी देसी गाय आज विलुप्ति की कगार पर पहुँच गई है।