अयोध्या श्रीराम मंदिर में हुई प्राण प्रतिष्ठा से भारत में बैठा वाम-लिबरल ही नहीं बल्कि पश्चिमी देशों की मीडिया भी परेशान है। यही वजह है कि पाकिस्तान से लेकर अमेरिका और ब्रिटेन के समाचार पत्र इसे हिन्दुवादी समूहों द्वारा मुस्लिमों पर की गई ज़्यादती साबित करने का निरर्थक प्रयास भी कर रहे हैं। इसी में एक नाम जुड़ा है द न्यूयॉर्कर का, 24 जनवरी 2024 को इस अमेरिकी समाचार पत्र ने एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है ‘हाउ द हिंदू राइट ट्राइंफ्ड इन इंडिया’ How the Hindu Right Triumphed in India इसका हिन्दी अर्थ है कि भारत में दक्षिणपंथ कैसे जीत रहा है। इस लेख में इस्तेमाल की गई तस्वीर बता रही है कि इस लेख को लिखने का और कोई उद्देश्य नहीं बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को मुस्लिमों पर अत्याचार और हिंदुत्व को नकारात्मकता से पेश करना है।
22 जनवरी, 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में श्रीराम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में यजमान के रूप में मौजूद थे। इसी एक खबर ने विश्व भर के हिंदू विरोधी एवं स्पष्ट रूप से मोदी-विरोधी गिरोहों को सक्रिय कर दिया है। इस लेख में आइज़ैक चोटिनर साक्षात्कार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि ‘पीएम मोदी कुछ दशक पहले एक युवा हिंदू कार्यकर्ता थे जो मंदिर के लिए धन जुटाने में मदद कर रहे थे, और अब वह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री हैं’।
यानी, जो व्यक्ति भारत की जनता द्वारा तीसरी बार भी बहुमत से फिर प्रधानमंत्री चुना जाने वाला है, उनके योगदान को आप किस तरह से शब्दों का जाल बुनकर कमतर दिखा सकते हैं यह उसी का उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चंदा माँगकर आज प्रधानमंत्री के पद पर नहीं बैठे हैं बल्कि दशकों तक संघ एवं भाजपा के साथ अपनी सेवाएँ देने के बाद, विभिन्न मुहिमों की अगुवाई करने के बाद उन्हें जानता ने यह पद सौंपा है और अपने देश के प्रतिनिधि के रूप में चुना है, रामजन्मभूमि आंदोलन इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है। वे अपने कार्यकाल में राम जन्मभूमि मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करने, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने के लिए तीन तलाक़ जैसी कुप्रथाओं को बंद करवाने वाले प्रधानमंत्री हैं और ये उनके कार्यकाल की एकमात्र उपलब्धियाँ नहीं हैं। उन्होंने स्वयंसेवक के रूप में राजनीति में दशकों बिताए, पार्टी के भीतर भाजपा नेता के रूप में अपनी राह बनाई और फिर गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया, भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक गुजरात में बतौर मुख्यमंत्री तीन कार्यकाल पूरे किए और यही नेता अब प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार भी शपथग्रहण करने की तैयारी में हैं, जिन्हें कि न्यूयॉर्कर एक ‘मंदिर के लिए चंदा जुटाने वाला कार्यकर्ता’ साबित करने का प्रयास कर रहा है।
इस पूरे लेख में सिर्फ़ यहीं तक मोदी-विरोधी एजेंडा नहीं है, इसके आगे चोटिनर साल 1992 में विवादित ढाँचे को समतल करने की घटना को मस्जिद पर हमला बताते हैं और दावा करते हैं कि इसे 400 साल पहले बनाया गया था। लेकिन अन्य पश्चिमी मीडिया संस्थानों की तरह ही यहाँ भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि यह विवादित ढाँचा उस जगह पर ही बनाया गया था जो मूल रूप से भगवान राम के जन्मस्थान पर मौजूद था। फिर उनका दावा है कि यह काम बीजेपी और आरएसएस कार्यकर्ताओं ने किया था और दावा किया कि एमके गांधी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे भी आरएसएस का सदस्य था। इस लेख में यह जानकारी नहीं दी गई है कि नाथूराम गोडसे ने अपने मुकदमे के दौरान ख़ुद यह स्वीकार किया था कि उसने गांधी की हत्या से पहले आरएसएस संगठन छोड़ दिया था।
यह लेख दावा करता है भाजपा और आरएसएस भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने वाले हैं। लेख यह नहीं बताता कि इस देश में मुसलमानों की आबादी दो सौ मिलियन से अधिक है। वह भी तब, जब कि इस देश का विभाजन ही धर्म के आधार पर कर दिया गया था, उसके बाद से भी मुस्लिम आबादी यहाँ पर आराम से रह रही है, प्रजनन कर रही है, व्यवसाय कर रही है और इसी लोकतांत्रिक सेक्युलर देश में होने वाले चुनावों में भाग भी ले रही है। वरना पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति आज क्या है, यह लेख उस ओर नहीं जाना चाहता! उस पर भी यदि हम हिंदू राष्ट्र की संज्ञा का विश्लेषण करें, तो भारत के हिंदू राष्ट्र होने का यह अर्थ नहीं है कि यहाँ पर अल्पसंख्यकों को घुसने या रहने नहीं दिया जाता, जैसा कि न्यूयॉर्कर अपने लेख में साबित करने का प्रयास भी कर रहा है। इसका अर्थ यह है कि हिंदू, चाहे वे दुनिया में कहीं भी रहते हों, हमेशा भारत को अपना घर कह सकते हैं और इस तरह, भारत हमेशा एक हिंदू राष्ट्र रहेगा भी।
लेख की निष्पक्षता और विमर्श के स्तर का पता इसी बात से चलता है कि लेख में कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता का हिमायती बताया गया है। इसके लेखक ने तुष्टिकरण को धर्मनिरपेक्षता मान लिया हो यह और बात है। वास्तव में, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस नेता माधवसिंह सोलंकी ने वोटबैंक राजनीति के ‘KHAM सिद्धांत’ की नींव रखी थी- KHAM का मतलब है – क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम – ये कांग्रेस के मूल मतदाता थे, जिन्हें उनके नेताओं ने वर्षों से खुश किया है।
महमूद गजनवी द्वारा 17 बार लूटे गए सोमनाथ मंदिर के निर्माण का नेहरू द्वारा विरोध करने से लेकर नया कानून लाकर शाह बानो फैसले को पलटने से लेकर राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के निमंत्रण को अस्वीकार करने तक, कांग्रेस ने अपने अधिकांश राजनीतिक निर्णय इसी को ध्यान में रखते हुए लिए हैं। किसी देश के नेता बाक़ी सभी लोगों को नज़र अन्दाज़ कर सिर्फ़ मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान रखें, यह कम से कम धर्मनिरपेक्षता नहीं कही जा सकती।
इसके बाद न्यूयॉर्क के चॉटिनर ने कांग्रेसी इतिहासकार मुकुल केसवन से बात की और आप समझ ही गये होंगे कि उन्होंने क्या कहा होगा। केसवन ने भारत को इंसानों का जंगल और ‘चिड़ियाघर’ कहकर संबोधित किया है और लगे हाथ कांग्रेस की वकालत भी कर डाली। न्यूयॉर्कर यहाँ पर भी नहीं रुका और 1984 के साथ साथ 2002 के दंगों का वर्णन भी किया गया है।।
1984 के दंगों का वर्णन भी न्यूयॉर्कर सांप्रदायिक दंगों के रूप में करता है जबकि यह स्पष्ट रूप से राजनीतिक हिंसा थी जिसमें सज्जन कुमार जैसे कांग्रेस नेताओं को दोषी ठहराया गया था, जो बाद की कांग्रेस सरकारों में सरकार में बड़े पदों पर भी बैठे। आरोप लगे थे कि जगदीश टाइटलर और कमल नाथ जैसे कांग्रेसी नेता उस भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे जो सिखों को तलाश रही थी, जहां टाइटलर को केंद्र सरकार के मंत्रालय मिले, वहीं कमल नाथ कांग्रेस शासन के दौरान केंद्र सरकार के मंत्री के अलावा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
इसके बाद न्यूयॉर्कर ने 2002 के गुजरात दंगों का ज़िक्र करते हुए लिखता है कि “जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे जब हिंदुओं की भीड़ द्वारा नस्लीय हिंसा में सैकड़ों मुस्लिम मारे गए थे, उन्हें इस हमले के लिए दोषी नहीं ठहराया गया लेकिन इन दंगों में मोदी की भूमिका के चलते उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था।”
न्यूयॉर्कर ने गुजरात दंगों से पहले 27 फरवरी 2002 की तारीख़ का ज़िक्र नहीं किया जब गोधरा में मुस्लिम भीड़ द्वारा अयोध्या से लौट रहे 59 कारसेवकों को एक ट्रेन डिब्बे में जिंदा जला दिया गया था। राज्य में भड़के सांप्रदायिक दंगे हिंदुओं को हिंदू होने के कारण जिंदा जलाने की प्रतिक्रिया में थे। इन दंगों में हिंदू और मुसलमान दोनों मारे गये। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मोदी को क्लीन चिट दे दी है, उसी अमेरिका ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका दिल खोलकर स्वागत किया। बेशक, 2014 के बाद उसी अमेरिकी प्रेस द्वारा उन पर हमले बढ़ गए हैं क्योंकि अमेरिका के इन संस्थानों ने यह मान लिया है कि ग्लोब पर लोकतंत्र स्थापित करने में सिर्फ़ और सिर्फ़ अमेरिका का योगदान है और भारत तो आज भी मानो सपेरों का ही देश है।
इन आलेखों से यह नहीं समझ आता है कि भारत की धरती से इतनी दूर बैठे लोग यह मानकर चलते हैं कि यहाँ पर सब कुछ मोदी सरकार के तहत ग़लत हो रहा है और बावजूद इसके, यहाँ का जनमानस उन्हें हर बार और भी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता सौंप देता है? मुस्लिमों की स्थिति यूरोप एवं अमेरिका जैसे महाद्वीपों की तुलना में देखें तो यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि दुनियाभर के मुस्लिम जितना सुरक्षित ख़ुद को भारत में महसूस करते हैं उतना शायद ही किसी अन्य देश में करते होंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं उनके नेतृत्व को केसवन या फिर न्यूयॉर्कर से कहीं बेहतर भारत का वह आम आदमी समझता होगा जिसे घर मिला रहा है, उपचार मिल रहा है, शिक्षा मिल रही है, और यहाँ तक कि बैंक खाते मिल रहे हैं। इन प्रकाशनों ने कभी मोदी सरकार के कार्यकाल की उन उपलब्धियों का उल्लेख करना ज़रूरी नहीं समझा जिनके द्वारा देश में आजादी के बाद गाँव में शौचालय, बिजली और पानी पहुँचने में 75 साल बीत गए। जिन्हें बैंक खाते और आवास मिले, उनमें क्या यह देखा गया कि वे मुस्लिम थे या फिर सिर्फ़ हिंदू? आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं में सबसे ज़्यादा मुफ़्त लाभ ग्रामीण भारत में रहने वाली आबादी को हो रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में केंद्र की योजनाओं के लगभग 40% लाभार्थी मुस्लिम समुदाय से हैं। मगर पश्चिमी मीडिया के लिए अधिक आवश्यक यह साबित करना है कि भारत में मोदी सरकार में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। यह प्रयास करने वाला न्यूयॉर्कर पहला एवं अकेला विदेशी समाचार पत्र नहीं है, यही धूर्तता जारी रखने का ठेका पाकिस्तान के अख़बार डॉन, बीबीसी, अलजज़ीरा जैसे प्रकाशनों ने भी उठाया है। मज़ेदार बात ये है कि इनमें से अधिकांश की जानकारी का स्रोत भारत में बैठे इस्लामी पत्रकारों द्वारा फैलाई जाने वाली फेक न्यूज़ हैं।