भारतीय राजनीति में सत्ताधारी कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण के जिस इतिहास की प्रस्तावना लिखते हुए विस्तार किया वो अब हमें जगह-जगह दिखाई दे रहा है।
दरअसल राजनीति की इस विधा पर अब केवल कांग्रेस का एकाधिकार नहीं रहा। अब तुष्टिकरण की होड़ का नतीजा ये है कि इस टेम्पलेट को और राजनीतिक दलों ने अपना लिया है। इसी का नतीजा है कि तुष्टिकरण हर राज्य में दिखाई दे रहा है, फिर चाहे कश्मीर हो या पश्चिम बंगाल।
तुष्टिकरण हर मौक़े पर भी दिखाई देता है फिर चाहे चुनाव की बात हो, हिन्दू त्योहारों की बात हो या फिर कला और फिल्मों की।
हाल का एक उदाहरण लीजिए! जब सुप्रीम कोर्ट ने द केरल स्टोरी पर लगाया बैन हटा दिया तो ममता बनर्जी सरकार की ओर से कॉन्ग्रेसी वकील मनु सिंघवी ने दलील दी कि पश्चिम बंगाल की डेमोग्राफी अलग है, इस लिहाज से कोर्ट को अपने फ़ैसले पर विचार करना होगा।
आप ही बताइए क्या यह सीधे-सीधे भारतीय संविधान की आत्मा के विरुद्ध नहीं है। सिंघवी का यह तर्क ममता बनर्जी के उस तर्क से जरा भी अलग नहीं है जिसका इस्तेमाल पिछली रामनवमी पर करते हुए ममता बनर्जी ने हिंदुओं से मुस्लिम इलाक़ों में न जाने की सलाह दी थी।
तब यह सवाल उठा था कि क्या देश में अब हिंदू इलाक़े और मुस्लिम इलाक़े जैसी बात राज्य की मुख्यमंत्री भी करेंगी? और यह क्या ऐसा तर्क है जिसे अभिषेक मनु सिंघवी जैसे बड़े वकील सुप्रीम कोर्ट में इस्तेमाल करें?
ऐसा करके क्या ममता बनर्जी सरकार और कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता, संविधान के जानकार अभिषेक मनु सिंघवी पश्चिम बंगाल के सामने 1947 की स्थिति नहीं दोहरा रहे? ऐसे ही तर्क दिये जाते रहे तो उस संविधान की आत्मा का क्या होगा जिसे बचाने के लिए ये बेचारे रोज़ लड़ने की शपथ लेते रहते हैं?
अब सवाल ये है कि यदि डेमोग्राफी को देखते हुए ये फ़ैसला किया जाएगा कि कौन सी फ़िल्म कहाँ दिखाई जाएगी या नहीं दिखाई जाएगी तो फिर सरकारों द्वारा संविधान की रक्षा करने की शपथ का क्या होगा?
एक फिल्म जो पूरे भारत में रिलीज हुई, उस पर पश्चिम बंगाल में बैन इसलिए लगा दिया गया क्योंकि ममता बनर्जी सरकार को लगा कि 13 लोगों ने फिल्म का विरोध किया। वो तो भला हो सिंघवी साहब का जिन्होंने कोर्ट में 13 ही कहा, 72 नहीं।
अब यदि फ़िल्म आतंकवादी संगठनों और आतंकवादियों के विरुद्ध है और उसके बावजूद वह आतंकवादियों से अधिक किसी मज़हब विशेष को ठेस पहुँचाती है तो फिर उस छद्म सेकुलर दर्शन का क्या होगा जिसके अनुसार आतंक का कोई मज़हब नहीं होता?
अब राजनीतिक दल या राजनेता यदि किसी समुदाय विशेष को ख़ुश रखने के लिए ऐसे आर्गुमेंट देते हैं तो समझ में आता है। जैसे राजीव गांधी ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया। जैसे देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों खासतौर मुस्लिमों का पहला अधिकार बताने वाले मनमोहन सिंह कश्मीरी हिन्दुओं के हत्यारे यासीन मलिक को पीएम आवास पर न्योता भिजवाया।
लेकिन जब संविधान के जानकार वकील ऐसे आर्गुमेंट देते हैं तो मेरे और आपके जैसे एक आम भारतीय को क्या समझना चाहिए?
मनु सिंघवी जैसे संविधान के जानकारों को समझने की जरूरत है कि फ़िल्में भारतीयों के लिए बनाई जाती हैं, समुदायों के लिए नहीं। यदि कोई समुदाय द कश्मीर फ़ाइल्स या द केरल स्टोरी को नकार देता है और उसे भारतीय फिर भी देखते हैं तो फिर ये उस समुदाय के बारे में क्या संदेश देता है?
बात बस इतनी सी है कि भारतीयों को फिल्म से कोई समस्या नहीं है इसलिए वे देखते हैं और समुदाय को समस्या है इसलिए वे नहीं देखते। अब यह ममता बनर्जी या अभिषेक मनु सिंघवी को समझने की ज़रूरत है कि ऐसी परिस्थितियों में भारत प्रीवेल करेगा न कि समुदाय विशेष।
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