द केरल स्टोरी किसी के लिए भयावह सच्चाई है तो किसी के लिए प्रोपगेंडा। किसी फ़िल्म के बारे में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। द कश्मीर फ़ाइल्स को लेकर भी लोगों के यही विचार थे।
फिल्म की रीलीज के साथ ही इसका विरोध होना था और वो हुआ भी। दरअसल समस्याओं को सामने आने पर अधिकतर इंसान का स्वभाव शुतुरमुर्ग की भांति ही होता है। तथ्य पेश करने पर भी समस्या को नकारना अधिक आसान लगता है क्योंकि संभवत उससे जीवन के सुरक्षित होने का भ्रम बना रहता है। बहरहाल द केरला स्टोरी की सच्चाई का निर्णय तथ्यों और दर्शकों के विवेक पर छोड़ देते हैं। हां, फिल्म में धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया में धर्मों की अवधारणा को ध्वस्त करने का जो तरीका दर्शाया गया है उस पर बात की जा सकती है।
फिल्म देखते ही आपको यह तो समझ आता है कि जब जाल बुनकर धार्मिक नियमों पर चोट की जाती है तो उससे लड़ने के लिए हिंदू पीड़िता के पास विरोध में कहने को कुछ नहीं होता है। यह बात शायद क्रिश्चियन परिवार से ताल्लुक रखने वाली लड़की के साथ नहीं है जिसको परिवार से ही धार्मिक नियमों की शिक्षा मिली है।
तो फिर आखिर गीताजंलि जो फिल्म की हिंदू किरदार है, उसे इसकी जानकारी क्यों नहीं है?
इसका जवाब गीताजंलि के सवाल से लिए जा सकता है जो उसने अपने कम्युनिस्ट पिता से किया था। ट्रैप से बच निकलने की कोशिश में लगी गीताजंलि अपने पिता से पूछती है; आपने दुनियाभर के कम्युनिस्ट और उनकी नीतियों के बारे में सारी शिक्षा दी पर हमारे धर्म के बारे में कभी क्यों कुछ नहीं बताया?
गीताजंलि के पिता उसे धर्म की शिक्षा नहीं दे पाए क्योंकि वो उसके अस्तित्व पर ही विश्वास नहीं करते हैं। यह विचारधारा आपको आंखों पर पट्टी बांध कर समाज का आकलन करने के लिए छोड़ देती है और शायद इसी से जन्म लेती है केरल की बदली डेमोग्राफी।
जबरन धर्म परिवर्तन केरल में वर्षों से चुनौती के रूप में सामने आ रहा है। यह बात स्वयं केरल के पूर्व मुख्यमंत्री और अनुभवी कम्यूनिस्ट नेता वीएस अच्युतानंदन ने कही थी। उनकी बात कम्युनिस्ट को मानने वाले लोगों को जरूर सुननी चाहिए जो अपनी विचारधारा में बहुसंख्यक समाज को अपराधी और अल्पसंख्यक को हर परिस्थिति में दमन वर्ग मानकर चलते हैं।
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फिल्म के हिंदू लड़की के किरदार गीताजंलि के पिता भी कम्युनिस्ट विचारधारा को मानते हैं और धर्म को जहर मानते हैं। यही कारण है कि गीताजंलि के पास आसिफा के सवालों का जवाब ही नहीं होता है। कमाल की बात यह है कि ज्ञान की कमी इस कदर गीताजंलि को फंसाती है कि धर्म को जहर मानने वाली लड़की दोजख (नर्क) से डरने लगती है।
गीताजंलि के पिता कम्युनिस्ट भी थे तब भी उनके लिए गीतांजलि को हिंदू धर्म के बारे में बताना आवश्यक था। आख़िर वे कम्युनिस्ट बाद में बने होंगे, जन्म से तो हिंदू ही थे।
यह समझ में आ सकता है कि कम्युनिस्ट धर्म को न माने पर क्या वह इस बात को नकार देता है कि वह जन्म से हिंदू है? उसके नाम के सरकारी दस्तावेज उसे हिंदू के रूप में पहचान देते हैं। कोई कम्युनिस्ट यह नहीं कह सकता कि जन्म से उसका धर्म कम्युनिस्ट है।
ऐसे में यदि यह कम्युनिस्ट पिता अपनी बेटी गीतांजलि को हिंदू धर्म के बारे में बताकर उसे कम्युनिस्ट बनने या न बनने की स्वतंत्रता देता तो यह गीतांजलि के साथ असली न्याय होता। इससे गीताजंलि को चयन की स्वतंत्रता मिलती।
अर्थात, आप किसी विचारधारा या धार्मिक रीतियों को समानता के विरुद्ध मानकर नकार भी दें तब भी उसका अध्ययन आवश्यक है। तुलनात्मक अवलोकन हर संभव परिस्थिति से बचाने में सहायक है। पर शायद कम्युनिज्म की कट्टरता का तकाजा है जो एक कम्युनिस्ट पिता को अपनी बेटी के साथ धर्म डिस्कस करने की इजाजत नहीं देता।
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कम्युनिस्ट अपनी कथित समानता के सिद्धांत के वश में होकर धर्म को अफीम मानते हैं और उसे सीधा नकार देते हैं। मूर्ति पूजा को लेकर उनकी धारणा कम्युनिस्ट पर आधारित है न कि वेद और पुराणों पर।
ऐसे में यह बात समझ में आती है कि साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित गीतांजलि के लिए मूर्ति पूजा पर उठे प्रश्नों का उत्तर दे पाना कठिन था क्योंकि पिता को देखते हुए उसने धर्म को पहले ही गौण साबित कर दिया है।
साम्यवाद के नकारने से धर्म और उसकी मान्यताएं समाप्त नहीं होती। ऐसे में क्यों न इसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। ऐसा करना संभवत उस दुष्चक्र से एक वृहद् समाज को बचाने में मददगार सिद्ध होगा जिसमें साम्यवादियों को भविष्य झूलता नजर आता है।