इज़रायल की यदि कोई राजधानी है, तो वह यरूशलम है! महान यरूशलम, यह 3000 साल से है, और रहेगी, हमें यह यक़ीन है, क़यामत तक! ये बयान था इज़रायल के पहले प्रधानमंत्री बेन गुरियों का। लेकिन इस बयान का कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म से क्या संबंध है?
कश्मीरी हिंदुओं ने भी अपना घर खोया, जिस तरह यहूदियों ने खोया। मगर यहूदी तो ज़ियोन का शोक नहीं भूले, वे यरूशलम को नहीं भूलते, लेकिन इज़रायल का एक फ़िल्म निर्माता चाहता है कि कश्मीरी हिंदू अपने घर को भूल जाएँ। इस इज़रायली फ़िल्म निर्माता ने कश्मीरी हिंदुओं की त्रासदी को प्रॉपगैंडा और वल्गर बताया है।
दुनिया में आज यहूदियों का एक ही देश है जिसका नाम है इज़रायल! विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म द कश्मीर फ़ाइल्स (The Kashmir Files) पर एक बार फिर बहस हो रही है और बहस शुरू की है एक ऐसे राष्ट्र के नागरिक ने जिसने हॉलोकोस्ट जैसी महान त्रासदी को झेला। ये वो समय था जब जर्मनी में हिटलर ने भारी संख्या में यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध की सहानुभूति का ही नतीजा था कि 1948 में आखिरकार इजरायल की स्थापना हुई।
इजरायल और कश्मीरी हिन्दुओं की त्रासदी पर नदाव लपिद की बेहूदगी
तीन लाख कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार की वास्तविकता को बताने वाली ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ को इजरायली फ़िल्म निर्माता और गोवा में हुए इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल के चीफ़ ज्यूरी नदाव लपिड ने ‘प्रॉपगेंडा’ और ‘भद्दी’ फ़िल्म बताया। उन्होंने कहा कि फ़ेस्टिवल के कॉम्पिटेटिव सेक्शन में इस फ़िल्म को शामिल करने के फ़ैसले ने उन्हें ‘हैरान’ और ‘परेशान’ किया है। इस से ज़्यादा हैरान तो लोग तब हुए जब उन्हें पता चला कि ये तो एक हॉलोकोस्ट सर्वाइवर का बेटा है।
लपिड के इस बयान के बाद भारत में इजरायल के राजदूत नओर गिलोन ने भारत से माफ़ी माँगी है और कहा है कि भारत की मेज़बानी और दोस्ती के बदले लपिड के इस तरह का बयान देने पर वो शर्मिंदा हैं और माफ़ी माँगते हैं। उन्होंने लपिड के बयान को असंवेदनशील और अभिमान से भरा हुआ बताया।
गिलोन ने लपिड के नाम ट्विटर पर ही एक खुला पत्र लिखा और कहा कि नदाव लपिड को शर्म आनी चाहिए। उन्होंने ये भी कहा कि भारतीय संस्कृति में मेहमान भगवान होता है और आपने जजों के पैनल की अध्यक्षता करने के भारतीय निमंत्रण का दुरुपयोग किया है।
लपिड को फटकारते हुए राजदूत ने कहा कि ये भारत में एक ताज़ा घाव की तरह है, यानी कश्मीरी हिंदुओं का मुद्दा, जो कई लोगों को लगा और कई अब तक उसकी क़ीमत चुका रहे हैं।
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नदाव लपिड अपने एक ताज़ा बयान में भी अपनी बेवक़ूफ़ी का बचाव ही कर रहे हैं, पूरे विवाद को जन्म देने के बाद लपिड का कहना है कि ‘उन देशों में, जो तेजी से अपने मन की बात कहने की क्षमता खो रहे हैं, किसी को बोलने की जरूरत है।’
इज़रायली फ़िल्म निर्माता ने यह भी कहा कि वह भारतीय नहीं हैं और इस कारण ऐसा कहने में बात करने में वह असहज भी महसूस नहीं करते। लपिड का अपने बयान का यह बचाव इस बात पर मोहर लगता है कि वह मूर्ख होने के साथ साथ दुराग्रही भी है।
अब ये तो इज़रायल और भारत के संबंधों का एक हिस्सा है, लेकिन सोचिए कि नस्लीय और धार्मिक घृणा के आधार पर यहूदियों की पीढ़ियों तक को समाप्त कर देने की योजना बनाई गई थी, जिन्हें जंगलों में छिपना पड़ा था, और जो किसी तरह अपने बच्चों को या फिर अपने खून को ज़िंदा रखना चाहते थे, आप बील्स्की ब्रदर्स की ही कहानी को उठा सकते हैं कि कैसे वो दो वर्षों बाद किसी तरह क़रीब हज़ार यहूदियों को सुरक्षित रखने में कामयाब हुए थे। ऐसे ही शिंडलर्ज़ लिस्ट फ़िल्म भी साल 1994 में आई थी जो होलोकॉस्ट में फंसे यहूदियों की कहानी बयान करती है। इस फ़िल्म को बेस्ट पिक्चर का ऑस्कर अवॉर्ड मिला था। कमाल की बात है कि इन फ़िल्मों के वक्त ‘सिनेमा एथिक्स’ जैसी बातें नहीं दोहराई गईं, जैसा कि द कश्मीर फ़ाइल्स की चर्चा के वक्त अक्सर दी जाती हैं।
कुछ ऐसी ही और इस से भी वीभत्स थी कश्मीरी हिंदुओं की कहानी, जिसे आप सभी लोग द कश्मीर फ़ाइल्स में भी देख चुके होंगे। कला और साहित्य का समाज की किसी वास्तविकता या त्रासदी के संदेश को सामने रखने में सबसे प्रभावी ज़रिया माना जा सकता है। अब तक वामपंथियों ने ही इसका इस्तेमाल तरह-तरह के नैरेटिव के लिए किया और उनमें भी अक्सर काल्पनिक क़िस्सों को भारत की घटना बना कर पेश किया जाता रहा, लेकिन कश्मीर फ़ाइल्स में जो कुछ दिखाया गया वह तो कश्मीर घाटी का इतिहास है। कश्मीर घाटी का यह इतिहास जब पहली बार सिनेमा के माध्यम से आगे रखा गया, तो इस सच्चाई ने एक बड़े वर्ग को असहज कर दिया।
‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ बनने का एक फ़ायदा हुआ कि जो लोग अब तक घाटी में कश्मीरी हिंदुओं के साथ हुई बर्बरता को स्वीकार तक नहीं करते थे वो अब कम से कम ये कहने लगे हैं कि ‘ऐसा हुआ तो था, लेकिन उतना नहीं हुआ था जितना दिखाया है’।
यह वो डिनायल मोड है जिसमें भारत में सिर्फ़ हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ पश्चिम और ख़ुद भारत के लोग रहना पसंद करते हैं। वरना आप देखिए कि यहाँ पर तो होलोकॉस्ट से भी बड़े हमले नस्ली आधार पर हुए हैं। आप कश्मीर से ले कर जलियाँवाला बाग, मोपला, मरीचझापी, चितपावन ब्राह्मणों की हत्या पर नज़र डाल सकते हैं, आज भी ये रुका नहीं है लेकिन हम इसे स्वीकार तक नहीं करना चाहते। संभव है कि भविष्य में इन पर भी फ़िल्में बनें और कम से कम लोग इन सच्चाइयों को भी जान सकें। इतिहास और सत्य में इतनी जिज्ञासा रखने वाले उदारवादी वर्ग को इसके लिए तैयार रहना चाहिये लेकिन वो इसकी चर्चा से असहज नज़र आता है।
अब इसका ज़िक्र करना भी आवश्यक है कि आख़िर यहूदियों की कहानी कश्मीरी हिंदुओं के जैसी या फिर मिलती जुलती क्यों है? यहूदी आज भी शान से कहते हैं कि जियोन, यानी यरूशलम उनका घर है। अब चूँकि यरूशलम फ़िलिस्तीन और इज़रायल के बीच टकराव की वजह है तो इज़रायलियों की इच्छाशक्ति को कश्मीरी हिंदुओं की घरवापसी से भी अवश्य जोड़ा जा सकता है।
इज़रायली तो अपना घर लेने पर अड़े हुए हैं लेकिन कश्मीरी हिंदुओं के वक्त हम स्वीकार तक नहीं करना चाहते कि वहाँ से उन्हें भगा दिया गया, उनकी हत्या की गई। टीका लाल टपलू जैसे कई नाम थे जिन्हें गोलियों से भून दिया गया, महिलाएँ जिन्हें रक्त से सने चावल खाने पर मजबूर किया गया। ‘कश्मीरी पंडितों का कसाई’ बिट्टा कराटे टेलीविजन पर आ कर खुले में स्वीकार करते हैं कि उसने कश्मीरी हिंदुओं के साथ क्या किया लेकिन इस सच्चाई में हमें यहूदियों की यातना जैसा मर्म नज़र नहीं आता।
घाटी में आतंकवादियों के नारे, “यहाँ क्या चलेगा, निजाम ए मुस्तफा, ला शरकिया ला गरबिया, इस्लामिया इस्लामिया; जलजला आया है कुफ्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गए हैं मैदान में” इन नारों के बीच कश्मीरी हिंदुओं ने सब कुछ खो दिया, लेकिन हम आज उनकी आपबीती पर हंसते हैं।
यरूशलम के इतिहास में अल नक़बा के क़िस्से मौजूद हैं जबकि कश्मीर के इतिहास में जनमत संग्रह की चर्चा मिलती हैं। अल नक़बा की कहानी आप लोगों को भी पढ़नी चाहिए कि किस तरह से अपने घर यानी यरूशलम के लिये यहूदियों ने लाखों फ़लस्तीनियों को भगाया और जो भी दुर्भाग्यपूर्ण तरीक़े अपनाए गये उसे अल-नकबा या ‘तबाही’ नाम दिया गया।
फ़िलहाल कश्मीर फ़ाइल्स से जो जो लोग घबराए हुए थे जिन्होंने शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन ज़मीन में ठूँस दी थी वो एक बार फिर एक्टिवेट हो गये हैं और अभी भी यही साबित करने का प्रयास करते दिख रहे हैं कि कश्मीर में हिंदुओं के साथ कोई त्रासदी घटी ही नहीं। हम बस यही उम्मीद करते हैं कि कश्मीर फ़ाइल्स जैसी ही और भी फ़िल्में बनती रहें ताकि सत्यान्वेषी गिरोह समय समय पर असहज होते रहें।