गुलजार निर्देशित पहली फिल्म ‘मेरे अपने’ तत्कालीन राजनीति पर ही नहीं बल्कि समाज व्यवस्था, बेरोजगारी और छात्र राजनीति पर महत्वपूर्ण कमेंट्री थी। 60 से 70 के दशक की कई हिंदी फिल्में बांग्ला फिल्मों की री-मेक थीं। ‘मेरे अपने’ भी एक ऐसी ही फिल्म थी जो तपन सिन्हा की बांग्ला फिल्म ‘आपनजन’ की रीमेक थी।
तपन सिन्हा, बांग्ला सिनेमा के विख्यात निर्देशक और लेखक। सिन्हा फिल्म निर्देशक के साथ ही बड़े कहानीकार के तौर पर जाने गए, जिनके किरदार फिल्म दर्शकों के बीच बहुत पॉपुलर हुए। बावर्ची के रघुनंदन को भला कौन भूल सकता है। बावर्ची भी तपन सिन्हा लिखित बांग्ला फिल्म ‘गोल्पो होलेउ सत्ती’ पर आधारित थी। 60 के दशक में जब समाज इतनी खींचा-तानी से गुजर रहा था, तब ऐसा चरित्र गढ़ना किसी मामूली कथाकार का काम तो नहीं हो सकता।
तपन सिन्हा का कहना है, “एक फिल्म को उपदेशात्मक होने की आवश्यकता नहीं है, इसके जरिए तो भावनाएं एवं विचार जो हम मनुष्य के रूप में अनुभव करते हैं और जिनकी किसी भी स्थिति में उपेक्षा नहीं की जा सकती, उन्हें बयाँ करना आना चाहिए।”
एक कहानीकार के तौर पर उनकी कोशिश यही रही कि वो समाज से जुड़ी फिल्मों का निर्माण करें। हालाँकि, बांग्ला सिनेमा में उनके अभूतपूर्व योगदान को उतनी प्रसिद्धि नहीं मिल पाई जितनी, सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक को मिली।
यह भी पढ़ें: अभिनय को जीने वाले इरफान, जो एक्टर बने ‘स्टार’ नहीं
वर्ष 2009 में तपन सिन्हा के दुनिया छोड़ने के बाद उन्हें श्रद्धाजंलि देते हुए तरुण मजूमदार ने दुख जताया था कि बांग्ला और अन्तरराष्ट्रीय सिनेमा में पहचान बनाने वाले सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक को सराहते हुए बुद्धिजीवियों, सिनेमा जगत, आलोचकों ने अन्य प्रतिष्ठित, प्रतिभाशाली फिल्म निर्माताओं और उनके कार्यों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया।
तपन दा की फिल्मों ने हमेशा आलोचकों को आकर्षित ही किया है। उनकी फिल्में भारत में ही नहीं बल्कि बर्लिन, वेनिस, लंदन और मास्को में आयोजित हुए अन्तरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सराही गईं। सिन्हा की फिल्में कम बजट और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रही। यही कारण है कि उन्हें 19 बार राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया।
1960 का दशक जब भारत की राष्ट्रीय राजनीति में बड़े बदलाव आए। इंडियन नेशनल कॉन्ग्रेस को हार का सामना करना पड़ा तो वहीं देश में व्यापक पैमाने पर असंतोष ने युवाओं को गुस्से में भर दिया और एक नया वर्ग खड़ा हो गया। तपन दा उन फिल्मकारों की अग्रणी सूची में रहे, जिन्होंने इन युवाओं के लिए फिल्में बनाई और सिनेमाई शृंखला के जरिए इनके रोष को बड़े पर्दे पर चरितार्थ किया।
बंगाल में जन्मे नक्सलवाद एवं महिला उत्पीड़न के बारे में उनकी कई मार्मिक रचनाओं ने बंगाली सिनेमा में अपनी जगह बनाई। अमोल पालेकर अभिनीत उनकी फिल्म ‘आदमी’ और ‘औरत’ बहुत चर्चित रही थी। तपन दा अपनी फिल्मों के जरिए सिर्फ मनोरंजन नहीं कर रहे थे वो एक कहानी कह रहे थे और उनके दर्शक इसे मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे, देख रहे थे।
सामाजिक सरोकारों पर उस दौर में कई फिल्मकारों ने हाथ आजमाया लेकिन जैसा प्रभाव सिन्हा की फिल्मों में नजर आता था वो अतुलनीय रहा। सगीना महतो में उन्होंने लेफ्ट के संगठित राजनीति पर एक तरह से हमला था। दिलीप कुमार द्वारा निभाया गया सगीना का किरदार एक व्यक्ति के पौरुष का सेलिब्रेशन था।
बुद्धिमता और संवेदनाओं से भरी उनकी रचनाएं कभी भी दर्शकों के लिए उबाऊ नहीं रही। उन्हें पता था कि किसी अपरिचित कहानी से भी दर्शकों को कैसे बांधे रखना है जाहिर है इसलिए वो सभी निर्माताओं में भी लोकप्रिय रहे। देखा जाए तो उनके विचारों की जो आधुनिकता को अपने पेशेवर कौशल के साथ दर्शकों के सामने रखते थे। शायद इसलिए ही सिनेमा से जुड़े लोगों के लिए वो हमेशा चर्चा का विषय रहे।
तपन दा ने लाइमलाइट से दूर रहकर बंगाली सिनेमा को नई ऊंचाइयां प्रदान की और कभी पुरस्कारों के लिए फिल्मों का निर्माण नहीं किया। उनका कहना था; मैं सिनेमा के प्रति हमेशा आकर्षित रहता हूँ और इसे इससे ज्यादा स्पष्ट नहीं कर सकता। मुझे पता है सिनेमा की परिभाषा समय के साथ बदलती रहती है।
उन्होंने कहा था, “मेरे लिए सिनेमा किसी भी तरह से मानवीय संवेदनाओं को आहत किए बिना ईमानदार रूप से मनोरंजन के लिए है। मैं सिनेमा के शिक्षाविदों में विश्वास नहीं रखता। ”
तपन दा की ये बात आज के सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में कितनी प्रासंगिक है, इसे विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है। उनका मानना था कि भारत में कभी भी सिनेमा की महत्ता कम नहीं हो सकती और वो हमेशा समाज का हिस्सा रहेगा।
तपन दा ने हमेशा कलाकार की स्वतंत्रता एवं मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि रखा। उनके काम की सराहना आलोचकों ने देर से की और बहुत कम थी। बांग्ला सिनेमा में कहानी कहने के जादूगर के रहे तपन दा और उनकी कला की विरासत अब भारतीय सिनेमा में हर जगह पनप रही है। उनकी फिल्मों की विधाएं एवं उनके सिनेमा मूल्य वर्तमान सिनेमा जगत के लिए औषधि का काम कर सकते हैं अगर अपनाए जाएं तो।
यह भी पढ़ें: कांतारा: उदात्त प्रेम से परिचय कराती फिल्म