असम के हरे भरे मैदान में कुछ दोस्त फुटबॉल खेल रहे थे। एक टीम जो हारने की कगार पर थी, उस टीम के कप्तान चिल्लाते हैं: “डेक्सोटकोई मुमई डांगोर नोहोई।” अचानक उनकी टीम अच्छा प्रदर्शन करने लगती है और टीम जीत भी जाती है।
यह कौन सा नारा था, जिसने फुटबॉल टीम को प्रेरित किया?
अहोमों ने लगभग 6 शताब्दी तक असम पर शासन किया। इतिहास में अहोम वंश के सबसे आकर्षक पहलुओं में से एक यह है कि वे अपनी मातृभूमि के लिए कैसे लड़े?
अहोम और मुगलों के बीच 18 बड़े संघर्ष हुए। अधिकांश संघर्षों में अहोमों ने या तो मुग़लों को पराजित किया और अगर मुग़ल कभी जीते भी तो वे अधिक लाभ नहीं ले सके, क्योंकि अहोम पलटवार कर उस लाभ को बराबर कर देते थे।
अहोम वंश के राजा जयध्वज ने 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में शासन किया था। इस काल में अहोमों पर औरंगजेब के सेनापति मीर जुमला और दिलेर खान ने हमला किया और जयध्वज सिंघा को हराकर अपमानजनक संधि के लिए मजबूर किया। संधि के अनुसार जयध्वज सिंघा ने मुग़लों को बड़ी मात्रा में नकद धन और युद्ध में लड़ने वाले हाथी दिए। सबसे बुरी बात यह थी कि उन्हें अपनी बेटी रमानी गबरू के साथ-साथ अपनी भतीजी को भी मुगलों के पास भेजना पड़ा।
इस घटना से अभिमानी अहोमों ने अपमानित महसूस किया। घटना से आहत राजा जयध्वज सिंह की मृत्यु हो चुकी थी। उनके भाई चक्रध्वज सिंघा को उनका उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने इस अपमान का बदला लेने की शपथ ली। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसे एक सेनापति (बोरफुकन) की आवश्यकता थी। राजा चक्रध्वज सिंघा ने अपने प्रधानमंत्री अतन बुरागोहेन के साथ बहुत विचार-विमर्श किया। इसके बाद लाछित को नए बोरफुकन के रूप में चुना गया ।
चक्रध्वज सिंघा ने अगले चार वर्षों में किलों को मजबूत किया, मजबूत नावें बनाईं, हथियार खरीदे और तोपें बनाईं। लाछित ने सेना की रणनीति बनाने से लेकर सेना को उन्नत करने के कार्य तक, स्वयं को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। उसने एक मजबूत और शक्तिशाली सेना के रूप में फिर से अपनी सेना को स्थापित किया। इसी समय अहोम मुगलों के साथ राजनयिक संबंध भी बना रहे थे ताकि मुग़लों को उनकी तैयारियों पर कोई संदेह न हो।
गुवाहाटी के मुगल फौजदार ने चक्रध्वज सिंघा को असम की युवा लड़कियों को अपने पास भेजने का आदेश दिया। यह अपमान की उस आग में बारूद डालने के समान था। भयंकर आग भड़क चुकी थी और लाछित गुवाहाटी को पुनः प्राप्त करने के लिए रवाना हो गया। उनकी सेना ब्रह्मपुत्र नदी के वेग में सवार होकर आगे बढ़ रही थी। उन्होंने सभी किलों को तोड़ते हुए इटाखुली के किले की ओर कूच किया।
इटाखुली के किले से ही गुवाहाटी शहर की रक्षा की जाती थी। किले के एक तरफ ब्रह्मपुत्र नदी तो दूसरी तरफ ऊची दीवारों पर तोपों से सुरक्षा घेरा बना था।
तोपों को खामोश करने के लिए लाछित, एक साहसिक योजना लेकर आया।
लाछित ने बहादुर सैनिकों के एक समूह को एक मिशन पर भेजा। वे रात के अंधेरे में किले में घुस गए और तोपों के मुँह पर पानी डाल दिया। अगले दिन, अहोमों ने मुगलों का सफाया कर दिया और मुग़ल ख़राब तोपों पर माथापच्ची करते रह गए।
किला ढह चुका था और गुवाहाटी फिर से मुक्त हो गया।
यह खबर औरंगजेब तक पहुंची तो वह गुस्से में था। उसने अपने जागीरदार राम सिंह को गुवाहाटी पर आक्रमण करने के लिए भेजा।
लाछित को इसका अंदेशा पहले से ही था। लाछित ने गुवाहाटी शहर के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा बनाना शुरू कर दिया। वह चाहता था कि मुग़लों से यह युद्ध ब्रह्मपुत्र के सरायघाट में हो। उस स्थान को इसलिए चुना गया क्योंकि सरायघाट, ब्रह्मपुत्र नदी का सबसे संकरा बिंदु था। इसकी चौड़ाई 1 किलोमीटर थी। आप ब्रह्मपुत्र के शक्तिशाली आकार की कल्पना कर सकते हैं, जिसका सबसे संकरा छोर 1 किलोमीटर का था।
लाछित ने सोचा कि सरायघाट नौसेना के लिए भी आदर्श जगह है। जबकि मुगल सेना सबसे मजबूत, जमीन पर थी, खासकर खुले मैदानों में और उनकी सबसे कमजोर सेना, नौसेना ही थी। लाछित ने गुवाहाटी में मिट्टी से बनाए तटबंधों की एक श्रृंखला स्थापित की और मुगलों को मजबूर किया कि वे शहर तक जाने के लिए नदी से ही होकर जाएँ
जब तक राम सिंह आगरा से ढाका पहुँचता और नदी के रास्ते गुवाहाटी की ओर बढ़ता, तब तक तटबंध दुरुस्त हो चुके थे और किलेबंदी भी पूरी हो चुकी थी। हालाँकि, इस मार्ग पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा ठीक करना अभी बाकी था। उस हिस्से का प्रभारी लाछित का मामा था। लाछित बोरफुकन ने समय की कमी को महसूस करते हुए अपने मामा को रात-भर काम करते रहने को कहा ताकि तटबंध का कार्य पूरा हो जाए, लेकिन लाछित के मामा ने उसकी आज्ञा को अनसुना कर दिया।
अगली सुबह, इस लापरवाही पर लाछित गुस्से में था। उन्होंने प्रसिद्ध शब्द “डेक्सोटकोई मुमई डेंजर नोहोई” का उच्चारण किया, जिसका अर्थ है “मामा इस देश से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं हैं” और अपने मामा को कर्तव्यपालन न करने और अपने देश को खतरे में डालने के लिए मृत्यु-दण्ड दे दिया। इस घटना ने सभी को आभास कराया कि लाछित बोरफुकन का अर्थ है, कर्तव्य निष्ठा।
राम सिंह ने ढाका जाकर शाइस्ता खान से सहायता माँगी। शाइस्ता खान ने राम सिंह को वहाँ की भौगोलिक चुनौतियों से अवगत कराया।
असम पहुँचने पर, मुगल सेना ने एक हजार लड़ाकों के साथ हमला किया। शक्तिशाली कुत्तों के झुण्ड की तरह मुग़ल सेना, असमिया सैनिकों पर टूट पड़ी और उन्हें बन्दूक के धुएँ की आड़ में युद्ध के मैदान से बाहर खदेड़ दिया। अहोम जानते थे कि मुग़लों को असमिया तोपखाने से नहीं मारा जा सकता था।
कई मनोवैज्ञानिक हथकंडे भी अपनाए गए।
राम सिंह ने लाछित को बीज का एक डिब्बा भेजा, जिसका तात्पर्य था कि मुगल सेना बीज के समान असंख्य थी। इसके जवाब में लाछित ने रेत का एक डिब्बा वापस भेजकर मुग़लों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया।
चूँकि, अहोमों के पास घुड़सवार सेना की कमी थी, इसलिए लाछित जानता था कि मुगलों के खिलाफ खुले मैदान में लड़ाई का अर्थ आत्महत्या है।
अहोम काफी समय से मुग़ल सेना के इंतज़ार में थे। जैसे ही मुगल सेना घाटी से होकर गुजरी। अचानक अहोमों ने पहाड़ियों से हमला शुरु कर दिया। मुगल सेना को भारी नुकसान हुआ।
मुग़ल सेनापति राम सिंह ने लाछित को खुले मैदान में लाने के रणनीतिक प्रयास किए। राम सिंह ने अहोम खेमे में तीर से एक पत्र भेजा। जिसमें लिखा था, “प्रिय लाछित, गुवाहाटी के लिए मैं आपको भुगतान कर चुका हूँ ,इसके बाद भी लड़ाई जारी रखना उचित नहीं है।”
अहोम राजा बौखला गया था। हालाँकि, उसका प्रधानमंत्री राजा को यह समझाने में कामयाब रहा कि यह पत्र मुगल सेनापति की चाल थी और राजा को लाछित की निष्ठा पर संदेह नहीं करना चाहिए।
हालाँकि, इसके बाद अहोम राजा ने लाछित को रक्षात्मक न होकर, आक्रामक तरीके से लड़ने का आदेश दिया। लाछित इस कदम को आत्मघाती मानता था लेकिन लाछित को राजा के आदेश का पालन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध में अहोमों को भारी क्षति हुई।
इस बीच, अहोम राजा की मृत्यु हो गई और लाछित गम्भीर रूप से बीमार हो गया। मुगल जश्न मनाने लगे। वहीं राम सिंह ने अहोमों के ऊपर बड़े पैमाने पर नौसैनिक हमला कर दिया।
मुगलों के पास तोपों से भरी हुई बड़ी-बड़ी नाव थीं। मुगलों के विशालकाय बेड़े को देखकर अहोम सैनिकों का मनोबल टूट गया था। उनके सेनापति लाछित भी गम्भीर रूप से बीमार थे। कुछ सैनिक पीछे हटने लगे।
इसी समय सेनापति लाछित बोरफुकन दहाड़ते हुए बाहर आए। तेज बुखार के बावजूद लाछित ने अपनी लड़ाकू नाव पर सवार होकर झंडा फहराया दिया। प्रेरणा-स्वरूप उनके सैनिकों में नई ऊर्जा का संचार हुआ। लाछित ने घोषणा की कि वह अपनी अंतिम सांस तक मुगलों से लड़ेगा। अहोम सैनिक उसके पीछे-पीछे चल पड़े। ब्रह्मपुत्र पर भीषण युद्ध हुआ।
मीर जुमला के अहोमों के अपमान के बाद की घटनाओं की श्रृंखला में सरायघाट की लड़ाई सबसे बड़ी लड़ाई थी। यह भारतीय इतिहास के कुछ युद्धों में से एक है जो पूरी तरह से नदी में लड़े गए थे।
अहोम अपनी छोटी नावों से बड़ी मुगल नौकाओं के चारों ओर घेरे बनाते थे।
सरायघाट में, मुगल अपने घोड़ों को मिट्टी के दुर्गों में नहीं उतार सकते थे। युद्ध में उनके विभिन्न सेनापतियों के बीच समन्वय की भी कमी थी।
अहोम योद्धाओं ने नदी के शुरुआती छोर से मुगल सेना पर अचानक हमला कर दिया। यह वही योद्धा थे जिन्होंने लाछित की वीरता से प्रेरित होकर अपनी अन्तिम सांस तक लड़ाई लड़ी।
बड़े पैमाने पर नुकसान झेलने के बाद, भ्रमित और संकटग्रस्त मुगल सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा।
इस भीषण युद्ध में लाछित बोरफुकन जीतने में कामयाब रहे। मानस तक का अहोम क्षेत्र एक बार फिर मुक्त हो गया।
इस जीत के एक साल बाद, लाछित बोरफुकन की एक बीमारी से मृत्यु हो गई। इस जीत का परिणाम यह था कि असम और असमिया संस्कृति आक्रमणकारियों से लम्बे समय तक सुरक्षित रही।
लाछित बोरफुकन के साहस और चतुराई से अहोम राजवंश अपनी राजधानी को बचाने में सफल रहा और इस हार से मुगलों का भी मोहभंग हो गया।
अगर औरंगजेब जीत जाता तो असम और उसकी प्राचीन संस्कृति का क्या होता? इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। आज भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो यह पूछते हैं कि “यदि आक्रमणकारी इतने बुरे थे, तो यह कैसे सम्भव है कि आपकी संस्कृति अभी भी जीवित है?”
इसका उत्तर, यह आक्रमणकारियों की दया के कारण नहीं है। हम जीवित हैं, यह लाछित बोरफुकन और छत्रपति शिवाजी जैसे नायकों की वीरता का परिणाम है कि हमारी सभ्यता बची हुई है।