आने वाली 14 जुलाई को फ़्रांस में बैस्टिल डे परेड (PM Narendra Modi is guest of honour for Bastille Day celebrations) होने वाली है। वहां पर हर साल 14 जुलाई को बैस्टिल दिवस मनाया जाता है और इस साल बैस्टिल दिवस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिस्सा लेने वाले हैं। फ़्रांस की क्रांति (The French Revolution) की बात आप जब भी सुनते हैं तो आपके सामने कुछ गिनी चुनी शब्दावली जरूर रखी जाती होंगी, जैसे श्रमिक, सर्वहारा, वंचित, दमन, राजशाही और लोकतंत्र। बौद्धिकों के बीच तो यह प्रिय विषय है। बताया जाता है कि फ्रांस की क्रांति के बाद से ही दुनिया ने जाना कि लोकतंत्र किसे कहते हैं। या फिर राजशाही से लोग क्यों पीड़ित थे। हमारे लगभग हर मामले के जानकार ध्रुव राठी भी यही कहते दिखते हैं कि फ़्रांस की क्रांति (The French Revolution) ने राजशाही को ख़त्म कर दिया और फिर लोकतंत्र की स्थापना हुई थी।
पहले एक नजर डालते हैं फ्रांस की क्रांति के इतिहास पर और फिर बात करते हैं कि क्या वाकई में फ़्रांस को लोकतंत्र की स्थापना का क्रेडिट जाता है?
फ्रांसीसी क्रान्ति की समयावधि 1789 से 1799 थी। इस बीच फ्रांस के इतिहास में राजनैतिक और सामाजिक रूप से बहुत बड़े बदलाव हुए। क्रान्ति का नतीजा ये रहा कि लोगों ने राजा को गद्दी से हटा दिया और एक गणतंत्र की स्थापना हुई। बहुत बड़े स्तर पर खूनी संघर्षों का दौर चला और आखिर में हुआ ये कि वहां पर नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हो गई।
लोगों का मानना है कि दुनिया के विकास के क्रम को अगर दो हिस्सों में बांटने की बात आती है तो इसे ऐसे बाँट सकते हैं कि एक दुनिया वो, जो फ़्रांस की क्रांति से पहले थी और दूसरी उसके बाद की, क्योंकि उन्हीं लोगों का ये भी मानना है कि फ़्रांस की क्रांति से ही लोग लिबरल हुए, लोकतंत्र, उदारवाद की बात करने लगे और राजशाही का दौर ख़त्म हो गया।
सवाल है कि फ़्रांस के लोग बात बात पर सड़क पर क्यों उतर आते हैं। आजकल भी आप देख रहे होंगे कि जब फ़्रांस जल रहा है उसी समय वो बैस्टिल डे भी मनाने जा रहे हैं।
फ्रेंच रेवलूशन या फ्रांसीसी क्रांति पूरी दुनिया के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। फ्रांस में जब भी लोग सड़क पर आते हैं तो कहीं न कहीं हम ये मानने को मजबूर हो जाते हैं कि इन आंदोलनों और प्रदर्शनों के दौरान जो लोगों की एकजुटता होती है उसके पीछे फ़्रांस के इतिहास की इन क्रांतियों का बड़ा योगदान है। लेकिन इन सब तुलनाओं के बीच हम इन क्रांतियों की अराजकता (Anarchism) को भूल जाते हैं और कहते हैं कि लोकतंत्र/DEMOCRACY स्थापित हो गया। क्या कभी रक्तपात से लोकतंत्र की स्थापना हो सकती है? या ये और भी ज्यादा अराजकता को जन्म देता है?
1789 में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान जो प्रदर्शन हुए थे उसके कारण ही वहां पर नौवीं सदी से चली आ रही राजशाही का अंत हुआ था और वहां पहली बार गणतंत्र की स्थापना हुई थी। लोगों को आपने अक्सर यह कहते हुए सुना होगा कि सत्ता के खिलाफ आवाज उठाना, सिंहासन से लड़ना आदि आदि, ये सब चिंतन फ्रांसीसी क्रांति के नाम पर बहुत होता रहा है। Liberty, equality, fraternity यानी स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व को इस क्रांति का ही नतीजा बताया जाता है और यह भी बताया जाता है कि आम नागरिक को प्रतिनिधित्व मिलना इसके बाद से ही शुरू हुआ। क्योंकि इसमें श्रमिक, कारोबारी और अन्य कामकाजी वर्गों का रोल था।
फ्रांस में ही 1871 का पैरिस कम्यून भी था, जब वहां के मज़दूर वर्ग ने पहली बार सत्ता संभाली थी। ऐसे ही बाद में 1905 और 1917 की रूसी क्रांति को भी इसी से प्रेरित बताया जाता है।
फ्रांस की क्रांति के कारण
लेकिन फ्रांस की ये क्रांति हुई क्यों? जिस समय लुई 16वें फ्रांस के शासक थे उनके बारे में कहते हैं कि उन्हें आम जन जीवन की जरा भी जानकारी नहीं थी लेकिन लग्जरी उन्हें बहुत पसंद थी। लुई सोलहवें के समय फ्रांस भयानक आर्थिक संकट से गुज़र रहा था। फ्रेंच रेवलूशन वो समय था जब अमरीका की स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए पैसा बहाते हुए फ़्रांस कर्जे में डूब गया था। जो पैसे वाले लोग थे, वो टैक्स की चोरी करते यानी टैक्स नहीं चुकाते थे और इसका बोझ आखिर में आम जनता पर पड़ता जिन्हें वो थर्ड स्टेट नाम देते थे।
इसी परिस्थतियों में अपने एक मंत्री के त्यागपत्र के समय लुइ सोलहवें ने कहा था कि काश, मैं भी त्यागपत्र दे पाता। निरंकुश वो इतना अधिक था कि अक्सर कहता था कि ये चीज इसलिए कानूनी है क्योंकि मैं ऐसा ही चाहता हूं। रोटी मांग रहे लोगों का वो मजाक बनाते हुए कहता था कि रोटी नहीं है तो उन्हें केक खाना चाहिए। ये तब की बात मैं आपको बता रहा हूँ जो रूसो, वाल्टेयर आदि विचारक दार्शनिकों का दौर था।
जब फ़्रांस पतन की ओर बढ़ रहा था तब 5 मई, 1789 को वहां के स्टेट जनरल ने एक बैठक बुलाई। इसमें भी वही हुआ, जिन्हें ‘थर्ड स्टेट के लोग’ कहा जाता था यानी आम आदमी, उन्हें इस बैठक में नहीं बुलाया गया। यहाँ पर जो कुलीन वर्ग था वो गरीबों पर और ज्यादा टैक्स से कमाई का सपना देख रहा था, और जो किसान थे वो अपने लिए कुछ छूट की उम्मीद लगाए हुए थे. थर्ड स्टेट के लोग यहाँ मताधिकार भी मांग रहे थे। लेकिन बैठक का नेतृत्व कर रहे ऊँचे लोगों ने कह दिया कि यहाँ सिर्फ एक ही मत होगा और उसमें थर्ड स्टेट शामिल नहीं था। लेकिन यही वो लोग थे जो अब इस बात पर अड़ गए कि वो फ़्रांस के राजशाही का बिलकुल भी समर्थन नहीं करेंगे। सरकार के इस फैसले से आम जनता काफी नाराज हो गई और फ्रांस के इन आम लोगों ने राजा के खिलाफ विद्रोह कर दिया।
यहाँ पर थर्ड स्टेट के अलावा जो फर्स्ट स्टेट था उसमें पादरी और धर्म से जुड़े लोग हुआ करते थे, जिनकी जिंदगी सबसे ज्यादा आराम में होती, और जो सेकंड स्टेट में ज्यादातर कुलीन सभ्रांत लोग , न्यायालय से जुड़े लोग और चर्च से जुड़े लोग या फिर सेना होती थी, ये थर्ड स्टेट पर मनमाने टैक्स थोप दिया करते थे।
20 जून 1789 को राष्ट्रीय सभा ने घोषणा करते हुए कहा कि “हम कभी अलग नहीं होंगे और जब तक संविधान नहीं बन जाता तब तक साथ में बने रहेंगे।” यही इस क्रांति की ऐतिहासिक घटना भी बनी। बगावत को भांपने पर 27 जून को लुई 16वें ने तीनों स्टेटस के लीडर्स की संयुक्त बैठक की अनुमति दे दी। ये थर्ड स्टेट के लोगों की पहली जीत थी और राजा तथा विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग की पराजय !
यहाँ से स्टेट्स जनरल जैसे ही राष्ट्रीय सभा बन गई और उसे राजा ने मान्य कर दिया उसके बाद 9 जुलाई 1789 को इसने स्वयं को संविधान सभा घोषित किया और कहा कि अब संविधान बनाना ही उनका पहला मकसद है।
अब लुई 16वें के बैकफुट पर जाते ही वो अनाप शनाप तरीके से उन लोगों को निकालने लगा जो जनता के समर्थन में कुछ भी कहते। लोगों ने इसे क्रांति को कुचलने का प्रयास मान लिया था।
इस समय तक लोग पूरी तरह से राजा के खिलाफ आ गए थे, वहां खबर फैल गई कि बास्तील (बैस्टिल) के क़िले में राजा ने हथियारों का भंडार जमा कर रखा है। 14 जुलाई 1789 को पेरिस की भीड़ ने बास्तील के क़िले पर पर हमला कर दरवाजा तोड़ दिया और कैदियों को आजाद कर दिया। इसे ही बास्तील का पतन कहा जाता है। ये घटना राजशाही शासन के अंत के तौर पर देखा जाता है। और इसीलिए फ्रांस में 14 जुलाई को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
फ़्रांस में जो क्रांति हुई, उसके कई नतीजे निकले। इसमें लोगों को वोट देने का अधिकार शामिल था, नए संविधान में आम लोगों के प्रतिनिधित्व की बात हुई, धर्म को राजनीति से अलग कर दिया गया। इससे आम आदमी का प्रतिनिधित्व फ़्रांस में होने लगा।
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लोकतंत्र का जन्म
अब अगर लोग कहते हैं कि इसी घटना ने लोगों को लोकतंत्र सिखाया तो फिर भारत में तो ये सब बहुत पहले से होता आ रहा था। यहाँ तो राजा को चुनने से लेकर उसके प्रजा के प्रति धर्म और कर्तव्य बाकायदा लिखे गए थे। हम अपने श्लोक उठाकर देखें या फिर चाणक्य के दौर से भी शुरू करें तो यहाँ तो कई प्रमाण हैं जो बताते हैं कि लोकतंत्र भारत से ही दुनिया ने सीखा।
क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि भारत में कभी इस किस्म की क्रांतियां क्यों नहीं हुईं? लोग साम्राज्य के खिलाफ फ़्रांस की तरह बगावत के लिए सड़कों पर क्यों नहीं उतरे? क्योंकि हमारे देश में राजधर्म में विश्वास रखने का प्रचलन था, धर्म ही यहाँ पर विधि यानी कानून होता था। जो राजा धर्म का पालन करता, लोग उसे अपना समर्थन देते थे, वरना जब लोगों ने राजा से सिंहासन छोड़ने को कहा तब उन्होंने ऐसा किया भी। राजा ने वही किया जो लोग चाहते थे। इसका एक उदाहरण तो भगवान् राम।
फ्रांस की क्रांति से कई साल पहले जब कभी राजा प्रथम बार सिंहासन पर बैठने के बाद खुद को निरंकुश मान बैठता और कहता था ‘अदंड्योस्मि’, यानी मैं अब दंड से परे हो गया हूँ। तब पुरोहित उसके सर पर धर्मदंडरूपी पलाशदंड से दो बार धीमे से वार करता था और कहता था ‘धर्मदंडोस्ति धर्मदंडोस्ति’ यानि राजा के ऊपर भी धर्म यानी विधि का शासन है और इस शासन को राजा विनम्रता से स्वीकार करता है। ये सब राजा के कर्तव्य हमारे धर्म शास्त्रों में मौजूदा हैं।
अब अगर कौटिल्य के अर्थशास्त्र को ही देखें तो उसमें शासन प्रणाली को विस्तार से लिखा गया है और राजा के प्रजा के प्रति कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसी अर्थशास्त्र में चाणक्य ने राजा के सात प्रमुख अंग बताए हैं –
स्वामी या राजा, मंत्री, कर्मचारी, दुर्ग, कोष या खजाना, सेना और मित्रवर्ग और कहा है कि राजा को इन सात चीजों का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि इनमे से एक में भी गड़बड़ होती है तो राज्य संकट में आ जाता है। कौटिल्य ने राजा को प्रजा के प्रति विनम्र और उदार रहने के भी निर्देश दिए हैं और कहा है कि इनका नाश होते ही राजधर्म का नाश हो जाता है।
वो लिखते हैं:
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु हिते हितम् नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥
यानी “प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में ही उसे अपना हित दिखना चाहिए । जो स्वयं को प्रिय लगे उसमें राजा का हित नहीं है, उसका हित तो प्रजा को जो प्रिय लगे उसमें है ।”
भारत में लोकतंत्र के प्रमाण के लिए हम महाभारत का भी उदाहरण ले सकते हैं। महाभारत में कर्ण पर्व के अध्याय 69 की श्लोक संख्या 58 में लिखा गया है :
धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः । यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।
जिसका इसका अर्थ है – धर्म ही समाज को पोषित करता है। जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है उसे धर्म कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एकसूत्रता में बांध देने की ताकत है वह निश्चय ही धर्म है ।
इसी महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में राजा और प्रजा के आपसी सम्बन्ध को भी बताया है
प्रजाकार्ये तु तत्कार्ये प्रजासौख्यं तु तत्सुखं
यानी प्रजा का कार्य ही राजा का कार्य है , प्रजा का सुख ही राजा का सुख , और प्रजा के हिट में ही राजा का हित भी है।
शास्त्रों में लिखा है कि धर्माय राजा भवति न कामकरुणाय तु , यानी राजा का पहला कर्त्वय विधि अर्थात कानून के अनुसार आचरण होता है न कि विलासिता का जीवन।
लुई सोलहवें ने अगर हमारे शास्त्र पढ़े होते तो वहां पर उसे लोगों के आक्रोश का सामना भी न करना पड़ता।
अब जिस मनुस्मृति पर हर प्रकार के आरोप लगाए जाते हैं उसमें लोकतंत्र के लिए क्या लिखा है –
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा, दण्ड एवाभिरक्षति ।
दण्डः सुप्तेषु जागर्र्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ॥
यानी अपराधियों को नियंत्रण में रखने के लिए दण्ड की व्यवस्था हर प्रभावी एवं सफल शासकीय तंत्र का आवश्यक अंग होती है । यही दण्ड है जो प्रजा को शासित-अनुशासित रखता है और यही उन सबकी रक्षा करता है । इसी को विद्वज्जन धर्म के तौर पर देखते हैं ।
तो क्या अब भी आपको इस बात में कोई संदेह है कि भारत को लोकतंत्र की जननी क्यों कहा जाता है? क्या इस बात में आपको अभी भी यकीन है कि फ्रांस की क्रांति से ही लोगों ने लोकतंत्र को जाना?
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