दुनिया के कई देशों को गुलाम बनाने के लिए, कई संस्कृतियों को समूल नष्ट कर डालने के लिए, स्पेन के हमलावर जिम्मेदार थे। इनके बारे में लिखते समय लैटिन अमेरिकी इतिहास के विशेषज्ञ नेविन लिखते हैं की सोलहवीं शताब्दी में यूरोप और स्पेन से कई लोग अपनी अपनी सेना (मिलिशिया/भाड़े के सैनिक) लेकर किसी और का स्वर्ण लूटने, गुलाम बनाकर उनका व्यापार करने, धर्म-परिवर्तन करवाने जैसे मकसदों से निकले। समुद्री अभियानों (सी एक्सपीडिशन) के करीब करीब इसी दौर के वास्को डा गामा और कोलंबस जैसे लुटेरे/गुलामों के व्यापारी भी थे। ऐसी ही स्पेन की सेना की एक टुकड़ी लैटिन अमेरिका की ओर पहुंची।
ये 1519 का दौर था जब ये सैन्य टुकड़ी “एज्टेक” कहलाने वाली जनजाति के क्षेत्र में पहुँच गयी। वहाँ के मुखिया को उन्होंने स्वर्ण दे देने या जान गवांने की धमकी धमकी दी और स्वर्ण लूटने के बाद मार भी डाला। राजा के मारे जाने के बाद दो वर्षों तक स्पेनिश हमले जारी रहे और 1521 आते-आते “एज्टेक” राज्य समाप्त होकर पूरी तरह स्पेन के कब्जे में आ गया। एक दूसरी ऐसी ही टुकड़ी थी जो स्पेन से 1534 में लैटिन अमेरिका के उस हिस्से में पहुंची जहाँ “इंका” नाम का जनजातीय राज्य था। बिलकुल वही पुरानी कहानी इस इलाके में भी दोहराई गयी और नतीजा ये हुआ कि 1536 यानी फिर से दो वर्षों के अन्दर “इंका” सभ्यता-संस्कृति नष्ट कर दी गयी और लोग गुलाम बना लिए गए।
एक के बाद एक संस्कृति को ईसाइयों द्वारा निगल लिए जाने पर कैथेरिन निक्सी ने “द डार्केनिंग ऐजेज: द क्रिस्चियन डिस्ट्रक्शन ऑफ द क्लासिकल वर्ल्ड” (https://amzn.to/3S5kKVB) नाम की किताब भी लिखी है। ऐसा नहीं था कि हर बार इसाई हमलावरों को ऐसी ही सफलता मिली हो। स्पेन की सेना की एक टुकड़ी 1618 में लैटिन अमेरिका के उस हिस्से में पहुंची जहाँ “अपाची” नाम की जनजाति रहती थी। अपने पुराने तरीके इस्तेमाल करते हुए इस बार भी उन्होंने राजा/मुखिया को मारकर सबकुछ हाथियाना चाहा। ये लोग अमीर नहीं थे इसलिए पहले तो “अपाची” लोगों के पास स्वर्ण ही नहीं मिला। ऊपर से एक मुखिया को मारकर इनका काम भी नहीं बना! इनको गुलाम बनाकर भी उतना फायदा नहीं होता क्योंकि विरोध समाप्त ही नहीं होता था। करीब दो सौ वर्षों के संघर्ष के बाद आखिरकार स्पेनिश लोगों को अपने प्रयास बंद करने पड़े।
जो तकनीक “एज्टेक” और “इंका” जैसे कई कबीलों पर सही-सही काम कर गयी थी, वो “अपाची” पर काम क्यों नहीं आई? इस बारे में प्रोफेसर नेविन कहते हैं कि “एज्टेक” और “इंका” से बेहतर सैन्य व्यवस्था “अपाची” के पास नहीं थी। ना ही “अपाची” पर हमला करने वाली सेना में कुछ कमी थी। दो वर्ष और दो सौ वर्ष का अंतर इसलिए आया क्योंकि व्यवस्था अलग थी। केन्द्रीय शासन व्यवस्था के कारण “एज्टेक” और “इंका” में राजा के मरते ही कोई नेतृत्व नहीं रहा। जबकि “अपाची” जब हारने लगे तो एक जगह रहने वाले काबिले के बदले घुमंतू बन गए। सारी व्यवस्था “अपाची” जनजाति में केन्द्रित थी ही नहीं, इसलिए एक राजा के होने या नहीं होने से उनकी व्यवस्थाओं पर उतना असर ही नहीं पड़ा।
जब भारत की बात होती है तो आपको करीब-करीब यही अंतर नजर आ जायेगा। कुछ राजाओं को जीतकर जो पूरे-पूरे देशों को गुलाम बना लेने, धर्म-परिवर्तन करवा लेने की उनकी योजना थी, वो भारत पहुँचते ही ठप्प पड़ जाती है। ऐसी स्थिति के लिए मौलाना अल्ताफ हाली लिखते हैं –
वह दीने-हिजाज़ी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए-आलम में पहुँचा
मजाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठिठका, न कुल्जम में झिझका
किये पै सिपर जिसने सातों समंदर
वह डूबा दहाने में गंगा के आकर!
जहाँ ईरान, अफगानिस्तान से लेकर मध्य एशियाई मुल्कों के धर्म-संस्कृति इत्यादि को समूल नष्ट कर देने में इस्लामिक और इसाई हमलावरों को कुछ ही साल लगे थे, वहीँ भारत आकर उनके बारम्बार के प्रयासों का नतीजा भी सिफ़र निकला। करीब आठ सौ वर्षों में इस्लामिक हमलावरों के लिए कोई नतीजे नहीं निकले। एक ओर जबतक इस्लामिक फौजें फतह करती, दूसरी ओर विद्रोह भड़क उठता। यही हाल करीब 200 वर्षों के इसाई शासन लागू करने में जुटे हमलावरों का भी हुआ। कोई दशक ऐसा नहीं बीता जब उन्हें किसी विद्रोह को कुचलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर न लगाना पड़ा हो। हजार वर्षों के बाद भी ये लोग कुल जमा 13 प्रतिशत इस्लामिक और लगभग 2 प्रतिशत इसाई आबादी तक ही पहुँच पाए।
दूसरी सभ्यता-संस्कृतियों से भारत में अंतर कितना अधिक था, इसका अनुमान लगाना हो तो आज भी आप शब्दों को देख सकते हैं। जैसे “धर्म” शब्द को अंग्रेजी जैसी दूसरी भाषाओँ में नहीं लिखा जा सकता, “मजहब” या “रिलिजन” बिलकुल अलग अर्थ वाले शब्द होते हैं, कुछ वैसा ही “राष्ट्र” शब्द के साथ भी है। विदेशों में उपजी जो “नेशन” या “स्टेट” की परिकल्पना है उसमें सत्ता केन्द्रित होती है, एक व्यक्ति, या कुछ व्यक्तियों के एक छोटे से समूह के हाथ में होती है। भारत ऐसा नहीं है। आधुनिक काल में विचारकों और लेखकों का ध्यान लगातार इस बात पर गया है। व्यापार जगत की बड़ी कंपनियों के उभरने और इन्टरनेट के फैलाव के साथ ही, “लीडरलेस आर्गेनाइजेशन” या “डीसेंट्रलाइज्ड आर्गेनाइजेशन” की बातें होने लगी हैं।
हाल ही में इस विषय पर “द स्टारफिश एंड द स्पाइडर” नाम की पुस्तक ओरी ब्रफमैन ने लिखी थी। अपनी पुस्तक में वो मकड़ी का उदाहरण लेते हैं, जिसके अनेक पैर होते हैं। एक दो पैर अगर कट जाएँ, टूट जाएँ तो भी मकड़ी को बहुत फर्क नहीं पड़ेगा, वो जीवित रह सकती है। उसके छोटे से सर में अगर कुछ हो जाए, तो मकड़ी मरेगी ही। इसकी तुलना में स्टार फिश के भी अनेक पैर जैसी संरचनाएं दिखती हैं लेकिन उन्हें काटने से स्टार फिश को मारा नहीं जा सकता। उसका एक सर नहीं होता जिसे काटकर उसे मारा जा सके। उल्टा अगर स्टार फिश को बीचो-बीच दो हिस्से भी कर दिए जाएँ तो दोनों अलग अलग स्टार फिश बन जाएँगी! कोई एक सर, कहीं केन्द्रित जीवनशक्ति है ही नहीं जिससे आसानी से उसे मार सकें। ओरी ब्रफमैन आगे एमजीएम के वकील डॉन वीरेल्ली का उदाहरण भी लेते हैं जिसने मुकदमो के जरिये ग्रोकस्टर जैसी संगीत बांटने की वेबसाइट को ख़त्म करना चाहा और उल्टा काज़ा और ई-म्युल जैसी कई कंपनियां खड़ी होने लगी।
बदलावों के इस दौर में भारत को अपनी इस क्षमता को भी पहचानना होगा। कोई गुण जो लगातार हमलावरों से हमें सुरक्षा देता आया है, उसे बढ़ा देने से क्या लाभ हो सकते हैं, इसपर विचार तो किया ही जा सकता है।