जंगल के कानूनों के बारे में कहते हैं कि आप किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते, ये इस बात की गारंटी नहीं देता कि कोई आपको भी नुकसान नहीं पहुंचाएगा। जैसे हिरण शाकाहारी है, इसका मतलब ये नहीं होता कि भेड़िये उसका शिकार नहीं करेंगे। हिरन भेड़ियों से कोई प्रतिशोध नहीं लेते। जंगल से नगरों तक पहुँचने पर ये मत्स्य न्याय नहीं चलता। नागरिकों के सभ्य समाज में ये नियम उलट जाता है। सभ्यताओं-संस्कृतियों में आप किसी पर हमला नहीं कर रहे तो आप पर भी कोई हमला नहीं करेगा, इसकी कोई गारंटी तो नहीं ही होती, साथ ही आप किसी पर हमला कर दें, तो आज नहीं तो कर उसका प्रतिशोध झेलना पड़ेगा, ये तय हो जाता है। ये काफी कुछ वैसा ही है जैसे किसी ट्विन टावर में हवाई जहाज घुसेड़ देने का मतलब है कि आज नहीं तो कल, वापस भी मिसाइलें बरसेंगी। आज आप किसी की किताबें जला दें, तो कल कोई न कोई आपकी किताबें भी जलाएगा।
स्टॉकहोम (स्वीडन) में हाल ही में ऐसी ही एक घटना हो गई। दूसरे देशों पर हमला करने वालों की एक किताब वहाँ जला दी गई। रासमुस पालुडन नाम के एक नेता हैं, जो स्ट्राम कुर्स नाम की एक ऐसी पार्टी में हैं जो पहले ही शरणार्थियों के रूप में स्वीडन में आकर बसते जा रहे एक समुदाय विशेष के लोगों के आने का विरोध करती है। ऐसे शरणार्थियों के आकर बसते जाने से स्वीडन में जो सांस्कृतिक बदलाव हो रहे हैं, वो वहाँ के स्थानीय समुदाय को कुछ विशेष पसंद नहीं आ रहे। ये सही भी कहा जा सकता है। कतर में फुटबॉल मैच (फीफा कप) देखने गए लोगों को कतर के मजहबी नियम, और मजहबी नियमों के आधार पर बने सांस्कृतिक कायदे मानने पड़े थे। स्वीडन जाने वालों को भी वहाँ के कायदे मानने चाहिए थे, मगर ऐसा हो नहीं रहा। स्त्रियों पर जिस किस्म की पाबंदियां ये बाहर से आये लोग लागू करना चाह रहे हैं, वो स्थानीय लोगों को रास नहीं आ रहा। लिहाजा टकराव होते हैं।
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ऐसे ही टकरावों के बीच रासमुस (Rasmus Paludan) ने समुदाय विशेष की मजहबी किताब तुर्की के दूतावास के सामने जला डाली। इसकी खबर फैलते ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीडन का विरोध शुरू हो गया। भारत में भी एक ऐसी ही घटना हुई है, लेकिन इसका कोई हिंसक विरोध आपने नहीं देखा होगा। हर किताब पर ऐसा ही हो, शांतिपूर्ण विरोध दर्ज करवाया जाए, कहीं चार्ली हेब्दो जैसी घटना न हो, ऐसा तो नहीं होता न? इसलिए घटना के तुरंत बाद तुर्की में स्वीडन के झंडे जलाए जाने लगे। इस्तांबुल में स्वीडन के दूतावास के बाहर मौजूद उग्र भीड़ ने झंडे जलाकर प्रदर्शन किया। इसके बाद स्वीडन में एर्दोआँ के पुतले टाँगे गए और स्टॉकहोम में तुर्की में स्वीडिश झंडे जलाए जाने के विरोध में एन्डोर्गन के पुतले को एक लैंपपोस्ट पर फांसी टांग दिया गया। इस प्रदर्शन में एर्दोआँ को कुर्सी छोड़ कर, जान बचा कर भाग जाने भी कहा गया।
ये सारी कवायद जिस समय चल रही है, उस समय स्वीडन और तुर्की के बीच राजनयिक समझौतों का प्रयास भी हो रहा था। स्वीडन के रक्षा मंत्री पॉल जॉनसन इसी वक्त तुर्की के दौरे पर जाने वाले थे। तुर्की ने ये कहते हुए इस दौरे को रद्द कर दिया कि ये यात्रा अपना “महत्व और अर्थ खो चुकी है”। अब सवाल उठता है कि ये दौरा महत्वपूर्ण क्यों था? असल में स्वीडन और फ़िनलैंड ने नाटो (एनएटीओ) में शामिल होने के लिए आवेदन दिया है। नियम कहते हैं कि कोई देश जो पहले से नाटो का सदस्य है, वो अगर वीटो कर दे तो नए देश को नाटो की सदस्यता नहीं मिलेगी। तुर्की नाटो का सदस्य है और वो नाटो के सैन्य समझौते में स्वीडन और फ़िनलैंड को शामिल होने दे, इसी बात पर चर्चा होनी थी। तुर्की के भड़कते ही स्वीडन (और फ़िनलैंड) का नाटो में शामिल होना असंभव सा हो गया है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर, जियोपॉलिटिक्स पर भारत की, विशेषकर भारत की हिंदी पट्टी और स्थानीय भाषाओँ के समाचार माध्यमों की उतनी नजर नहीं होती। इस वजह से कई लोग सोच सकते हैं कि भला नाटो में शामिल होने के लिए चल रही ये कवायद भला क्या महत्व रखती है?
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हाल के अंतरराष्ट्रीय समीकरणों को जिन्होंने नहीं भी देखना चाहा होगा, उन्हें भी ये पता होगा कि रूस-युक्रेन युद्ध शुरू क्यों हुआ था। युक्रेन जाकर नाटो में शामिल होना चाहता था, उस के रूसी विरोध से ही युद्ध की शुरुआत हुई थी। आजकल युक्रेन की ख़बरें भारत में सुर्ख़ियों में नहीं हैं, लेकिन पिछले पखवाड़े भर में युक्रेन में हुई घटनाएँ सीधे हथियारों से आमने-सामने की लड़ाई के अलावा दूसरे तरीकों के इस्तेमाल की तरफ साफ़ इशारा करती हैं। राष्ट्रपति के सलाहकार ने इस्तीफा दिया था, करीब-करीब पूरा आन्तरिक मंत्रालय एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मारा गया। भारत में जैसे मुख्यमंत्री होते हैं वैसे वहाँ गवर्नर होते हैं और ऐसे पाँच गवर्नर – कीव, समी, ड्नेप्रोपेत्रोवस्क, ज़पोरज्हाये और खेरसोन के, हटा दिए गए। रक्षा विभाग के डिप्टी मिनिस्टर हटा दिए गए हैं। कम्युनिटीज एंड टेरिटरी विभाग के डिप्टी मिनिस्टर हटा दिए गए हैं। यूक्रेन के सोशल पालिसी के डिप्टी मिनिस्टर भी हटा दिए गए हैं। युक्रेन के राष्ट्रपति कार्यालय के उप-प्रमुख ने भी इस्तीफा दे दिया है।
नाटो में शामिल होने के इच्छुक स्वीडन और फ़िनलैंड के लिए जो समस्याएँ आ रही हैं, उनसे अगर अब आपको रूस पर शंका हो रही है तो ऐसा करने वाले आप इकलौते भी नहीं है। स्वीडन के नेताओं ने भी ऐसी ही शंका अपने बयानों में जताई है और कहा है कि एक समुदाय विशेष की किताब को जलाए जाने में रूस का हाथ हो सकता है। वापस तुर्की पर चलें तो आपको समझ में आएगा कि एक कौम अगर नाटो जैसे संगठनो में शामिल हो तो क्या क्या संभावनाएं बनती हैं। समाचारों में कुर्दिश विद्रोहियों को आपने आईएसआईएस के खिलाफ लड़ते देखा होगा। इनसे आईएसआईएस के हारने और भागने की बड़ी वजह ये बताई जाती थी कि कुर्द लड़ाकों में कई स्त्रियाँ थीं। आईएसआईएस के जो आतंकी थे, वो ऐसा मानते थे कि स्त्रियों के हाथों मारे जाने पर उन्हें जन्नत नहीं मिलेगी और वो भागने लगते थे। तुर्की चाहता है कि स्वीडन और फ़िनलैंड ऐसे कुर्द लड़ाकों पर सख्ती बरते। तुर्की राष्ट्रपति एन्डोर्गन के जो विरोधी स्वीडन या फ़िनलैंड में हैं, उनको भी देश से बाहर निकालने की मांग तुर्की की है।
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नाटो का सदस्य होने की वजह से तुर्की किसी भी और देश को नाटो में शामिल होने से रोक सकता है। शीत युद्ध के कथित तौर पर समाप्त होने के दशकों बाद आप इसे फिर से रूस बनाम अमेरिका की तरह देख सकते हैं। इस पूरी कवायद के बीच अमेरिका ने स्कैंडेनेविया के देशों को नाटो का सदस्य बनाने के लिए तुर्की पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। तेल से लेकर खाद्य सामग्री तक की कीमतों पर ऐसी अंतरराष्ट्रीय हलचल का क्या असर होता है, वो अब भारतीय भी समझते हैं। इसलिए एक बड़ा वर्ग “कोऊ नृप होए, हमें क्या हानि” का मंथरावादी जुमला नहीं उछालेगा, ऐसा माना जा सकता है। हाल के दौर में भारत की विदेश नीति भी बदली है और हम नेहरु वाली इंडिया के “नॉन अलाइन्ड” से दूर हटकर सीधा भारत के पक्ष में “अलाइन्ड” हो रहे हैं, ऐसा कहा जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति यानी जियोपॉलिटिक्स महीने-दो महीने की बात तो होती नहीं, इसलिए चलिए कुछ दशक देखते हैं कि ऊंट किस करवट बैठता है।