“मैं उस ईश्वर का सेवक हूँ, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं” यह उस महायोगी ने कहा था जिसने सब कुछ त्यागकर एक योद्धा संन्यासी होना चुना। 39 वर्ष का जीवन जीने वाले स्वामी विवेकानन्द को अगर आप देखना और समझना चाहते हैं तो उनके द्वारा लिखे गए पत्रों को अवश्य पढ़ना चाहिए। उनके एक भाषण की गूंज अमरत्व प्राप्त कर चुकी है मगर उन्होंने जो संदेश मानवता के नाम दिए, विशेषतौर पर उनके द्वारा लिखे गए उनके पत्र उन्हें समझने के लिये सबसे आवश्यक रास्ता हैं।
आज के समय में – जब समाज जाति, धर्मांतरण, द्वैत-अद्वैत, वेद-वेदान्त के विमर्श में लीन है, तब यदि उसे कोई राह दिखा सकता है तो वह है स्वामी विवेकानंद का जीवन दर्शन! 23 वर्ष की उम्र थी उनकी जब उन्होंने संन्यास लिया, शिलॉन्ग से अप्रैल, 1901 में लिखे गए एक पत्र की ये पंक्तियाँ देखिए- “अगर मृत्यु हो जाए तो भी क्या फर्क पड़ता है, जो देकर जा रहा हूँ, वह डेढ़ हज़ार वर्षों की ख़ुराक है।” विवेकानंद की बातें सत्य साबित हुईं। उस संन्यासी के समक्ष जब अल्प वय में रोज़गार और रोज़ाना का जीवन चुनने की बारी आई तब उनके मन में यही विचार था कि इस एक जीवन का जो उपहार उन्हें मिला है क्या उन्हें यह क्लर्क या स्कूल के मास्टर की नौकरी कर यूँ ही गँवा देनी चाहिए? नरेन ने वर्ष 1886 में इसी विचार के साथ संन्यासी बनना चुना और फिर समस्त विश्व में उनकी ख्याति विवेकानंद के रूप में हुई।
वे संगीत सुनना पसंद करते थे, उनका शरीर रोगों से घिरा हुआ था, भयानक ग़रीबी में वे धर्म के लिए संन्यासी बने रहे मगर अपनी माता के लिए सदैव ही चिंतित थे। यही वजह थी कि जब आख़िरी समय में उन्हें अपनी बीमारियों का आभास हुआ तो उन्होंने खेतड़ी के महाराज से अपनी माता के लिये ज़रूरी धनराशि भेजते रहने में भी झिझक महसूस नहीं की। बेलूर मठ से मई, 1902 के दिन लिखा गया उनका यह पत्र देखिए – विवेकानंद लिखते हैं, “मैं चालीस की दहलीज़ नहीं लाँघ सकूँगा। जो कहना था, कह दिया, अब जाना होगा। मृत्यु सिरहाने खड़ी है!” वे हज़ारों वर्षों के लिए अपना जीवन जी चुके थे और उनकी चेतना जानती थी कि वे अब बहुत अधिक नहीं जिएँगे। उन्होंने स्वयं भविष्यवाणी की थी कि वह 40 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेंगे और जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब वह केवल 39 वर्ष और पांच महीने की थी।
मार्च 1900 में स्वामी विवेकानंद ने भगिनी निवेदिता को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, ”मैं काम नहीं करना चाहता, मैं शांत रहना चाहता हूँ, और आराम करना चाहता हूँ। मैं समय और स्थान जानता हूँ; लेकिन मुझे लगता है कि भाग्य, या कर्म चाहते हैं कि मैं काम करता जाऊँ।” जब उन्होंने कहा कि ‘मैं समय और स्थान जानता हूँ, ‘तब वे स्पष्ट रूप से अपने निधन के समय और स्थान का जिक्र कर रहे थे। सवा सौ साल से ज्यादा समय से स्वामी विवेकानंद भारत की आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं। उन्होंने जो कुछ भी किया, लिखा या कहा – उनमें नए भारत की उन्नति और मुक्ति, दोनों का ही रास्ता मिल जाता है। चाहे आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले हों या फिर आज प्रधानमंत्री के पंच प्रण – सभी में स्वामी विवेकानंद के विचारों की झलक मिलती है। इसमें वंचित और ग़रीबों के कल्याण की बातें हैं, इनमें सामाजिक आडंबर से ऊपर उठने की अपील है, विवेकानंद उस वक्त कहते थे कि ईसाइयों की तरह हिंदुओं को भी अपने धर्म के विस्तार के लिए विदेशों में प्रयास करने चाहिए। स्वामी विवेकानंद का प्रबलता से मानना था कि भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा तथा सम्मान शिक्षा के ज़रिए ही पुनः हासिल किया जा सकता है।
1893 में शिकागो में दिये गए उनके व्याख्यानों से एक नई ऊर्जा का संचार हुआ था, जो पूरे विश्व के लिए प्रेरणा बन गया, भारत की कूटनीति का आधार बन गया, क्रांतिकारियों के लिए उनके विचार जीवन का उद्देश्य बन गया था। शिकागो के उस ऐतिहासिक भाषण के बाद उन्होंने न्यूयॉर्क में लगभग दो वर्ष व्यतीत किये जहाँ 1894 में पहली ‘वेदांत सोसायटी’ की स्थापना की। उन्होंने भारत को भरपूर जिया – भारत से, यहाँ के लोगों से और यहाँ की मिट्टी की आध्यात्मिक संपदा से स्वामी विवेकानंद को बहुत स्नेह था। वे पूरे यूरोप का भ्रमण करते रहे, भारतीय दर्शनशास्त्र और इतिहास में रुचि रखने वाले, उसे तोड़ने मरोड़ने वाले मैक्स मूलर एवं पॉलडूसन जैसे प्राच्यवादियों से उन्होंने जमकर विमर्श किया। यही वो विवेकानंद थे जिन्होंने भारत में अपने सुधारवादी अभियान को शुरू करने से पहले निकोला टेस्ला जैसे वैज्ञानिकों के साथ तर्क वितर्क भी किये।
विवेकानंद इस बात के प्रबल समर्थक थे कि भारतीयों को अपनी सभ्यता एवं धर्म का पश्चिम तक विस्तार करना चाहिए। वे चाहते थे कि पश्चिम की ही तरह यहाँ भी आधुनिकीकरण हो। स्वामी विवेकानंद ही जमशेदजी टाटा के ‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ एवं ‘टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी’ की स्थापना के प्रेरक थे। अध्यात्म एवं प्रगतिशीलता का वे अनोखा उदाहरण थे।
उनका मत था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ईश्वर का अनुभव स्वयं कर सकता है, यही वजह थी कि वे ईश्वर की एकता पर अधिक ज़ोर देते थे। उन्होंने धर्म के बीच आस्था पर भी स्पष्ट बयान दिए। उन्होंने धर्म का अर्थ सहिष्णुता बताया। ‘मॉडर्न इंडिया’ में महात्मा गाँधी ने जिन्हें ‘हरिजन’ कहा, उन्हें उससे भी बहुत पहले स्वामी विवेकानंद ‘दरिद्र नारायण’ कह चुके थे। उनका कहना था कि दरिद्र नारायण का कोई धर्म नहीं होता। वे गरीब की सेवा को ही ईश्वर की सेवा कहने से भी नहीं चूके।
भारतीय राष्ट्रवाद से विवेकानंद का स्पष्ट मत यहाँ की आध्यात्मिकता एवं नैतिकता से था। वे मानते थे कि ‘भारत माता’ एकमात्र देवी हैं जिनकी प्रार्थना देश के सभी लोगों को सहृदय करनी चाहिए।
विवेकानंद की ख्याति समस्त संसार में गूँजी, अल्पायु में ही वे हज़ारों वर्षों का जीवन जी चुके थे, और जैसा कि उन्होंने कहा था- “अगर मृत्यु हो जाए तो भी क्या फर्क पड़ता है, जो देकर जा रहा हूँ, वह डेढ़ हज़ार वर्षों की ख़ुराक है।”