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Home » हिंदू धर्म और हिंदुत्व के पुरोधा स्वामी विवेकानंद
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हिंदू धर्म और हिंदुत्व के पुरोधा स्वामी विवेकानंद

Pratibha SharmaBy Pratibha SharmaJanuary 12, 2023No Comments5 Mins Read
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Swami vivekananda
स्वामी विवेकानंद
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आज हिंदू धर्म की जब भी बात होती है तो अधिकतर उसे दो शब्दों में विभाजित कर दिया जाता है; हिंदू धर्म (Hinduism) और हिंदुत्व (Hindutva)। एक ही सिक्के के दो पहलू होने के बाद भी एक को सकारात्मक तो एक को घोर नकारात्मक सिद्धांतों से जोड़ दिया जाता है। अपने इन्हीं सिद्धांतों को सत्य साधक बताने के लिए उस महान हिंदू धर्म के प्रणेता का नाम लिया जाता है जो आज भी आधुनिक विश्व में हिंदू धर्म के ज्ञान के प्रसार की ज्वलंत ज्योति है। ये धर्म प्रणेता हैं स्वामी विवेकानंद, जिनका जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था।

स्वामी विवेकानंद को उनके हिंदू धर्म यानी वेदों, उपनिषदों के प्रचार प्रसार के लिए जाना जाता है, यह बात दोहराने की आवश्यकता नहीं, पर अक्सर देखा गया है कि धर्म की रक्षार्थ कार्य कर रहे लोगों को ‘हिंदुत्व’ के कटघरे में खड़ा कर स्वामी विवेकानंद के धर्म दर्शन को अपनाने की सलाह दे दी जाती है। यह सर्वथा हास्यास्पद है। स्वामी विवेकानंद का हिंदू धर्म हिंदुत्व से अलग नहीं था, बल्कि धर्म दर्शन की बात होती है तो उनका नाम शंकराचार्य और तुलसीदास के साथ लिया जाता है।

उन्होंने उस छवि को कभी नहीं अपनाया जिसका उपयोग कर आज उन्हें हिंदुत्व विरोधी बता दिया जाता है और अक्सर यह उसी वर्ग से किया जाता है जो उनके धर्म दर्शन को कभी समझ ही नहीं पाया। हिंदू धर्म कोई भगवान की मूर्ति नहीं है, यह एक विचार है और इसी की रक्षा और प्रसार के लिए स्वामी विवेकानंद ने भारत के साथ ही पश्चिमी देशों की यात्रा की थी।

इनमें से ही एक यात्रा के दौरान कभी उन्हें एक ईसाई मिशनरी मिला जिसने उनके साधु वेश को देख उन्हें ईसाई धर्म की खासियत गिनाने लगा। ऐसा करते हुए वह हिंदू धर्म के विरुद्ध आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग  करने लगा और इसपर स्वामी विवेकानंद ने उसका कॉलर पकड़ के धमका दिया था। यह कहते हुए कि वे उसके धर्म के पक्ष में सभी तर्क सुनेंगे लेकिन अपने धर्म के प्रति अपशब्दों की नींव पर नहीं। 

भारत वापस आकर स्वामी विवेकानंद ने इस बात का जिक्र कर कहा कि धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात जो अपने धर्म की रक्षा करता है, वो स्वयं भी रक्षित रहता है। उन्होंने कहा, ये ध्यान रखना चाहिए कि सहिष्णुता के नाम पर कहीं हम अपने में कायरता और पलायन वादिता का दुर्गुण तो नहीं भर रहे हैं? 

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कहा था, “हिंदुओं को लीलने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई मत तथा यूरोपीय बुद्धिवाद के रूप में जो तूफान उठा था वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वक्ष से टकरा कर लौट गया”। 

इस कथन में एक शब्द बड़ा चर्चित है ‘युरोपीय बुद्धिवाद’ जो औपनिवेशिक विचारों के समानार्थी है। एक ऐसा सिद्धांत जो दूसरे की संस्कृति को गौण करके दिखाना चाहता है। जो आधुनिकता के आँकड़े में भारतीय दर्शन को गंवार समझता है और उसे अपने साथ चलने को कहता है। विडंबना यही है कि हमने लगातार आँखे मूंदकर इस बुद्धिवाद का पीछा किया है और इसे अपनाया है। हम स्वामी विवेकानंद के उन शब्दों को भूल गए जो धर्म संसद में उन्होंने कहे थे कि भारत को आपके धर्म की जरूरत नहीं है, वहाँ पहले ही बहुत धर्म है। 

‘यूरोपीय बुद्धिवाद’ औपनिवेशिक सोच धर्म को सीमित दायरे में देखता है। ये उस विस्तार को कभी देख ही नहीं पाया जो स्वामी विवेकानंद ने धर्म के सहयोग से किया था। इसी प्रभाव के कारण निकोला टेस्ला ने उनसे वेदांत दर्शन पर शिक्षा ली थी जिसका प्रभाव उनके काम पर भी पड़ा था। टेस्ला के शोध एवं कार्यों में आकाश और रचनात्मक ऊर्जा की चर्चा स्वामी विवेकानंद से उनकी मुलाकात के बाद ही सामने आई।

धर्म को आधुनिकता के चश्मे से देखने वालों ने इसके अपने-अपने संस्करण निकाल लिए। धर्म की व्याख्या में वो भूल गए कि ये समाज के हर पहलू से जुड़ा हुआ है। विकास से, शिक्षा से और राजनीति से। स्वामी विवेकानंद को इसकी महत्ता पता थी। एक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात जमशेदजी टाटा से हुई। इस दौरान जमशेदजी ने उनको बताया कि वो भारत में स्टील व्यापार शुरू करना चाहते हैं तो स्वामीजी ने उनसे कहा कि कच्चे माल के व्यापार से वो मुनाफा तो कमा लेंगे लेकिन इससे देश का भला नहीं होगा। भारत के फायदे के लिए देश में उत्पादन की तकनीक आनी चाहिए ताकि देश दूसरों पर निर्भर न रहे।

इस दौरान दोनों के बीच एक शोध संस्थान खोलने पर भी चर्चा हुई थी और जब जमशेदजी भारत पहुँचे थे तब उन्होंने स्वामी विवेकानंद को पत्र लिखकर इसके लिए जागरूकता फैलाने की अपील भी की थी। इसके बाद स्वामी विवेकानंद के कहने पर सिस्टर निवेदिता ने जमशेदजी की मदद की थी। 

स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो में दिए उनके भाषण के लिए हमेशा याद किया जाएगा। जब उन्होंने कहा था ‘Brothers and sisters of America (मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों)’। विश्ववाद या सार्वभौमिकता के सिद्धांत से उन्होंने सभी को एक ही धर्म में समाहित कर लिया था और उसे स्वीकृति भी मिल गई थी। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि धर्म को राजनीति से अलग रखना मुश्किल है वरन इसे रखना भी नहीं चाहिए, क्योंकि धर्म समाज को प्रभावित करता है।

आज उनके ही शब्दों और सार्वभौमिकता के सिद्धांतों का नया संस्करण प्रस्तुत कर के हिंदुत्व पर सवाल खड़े किए जाते हैं। लेकिन सार्वभौमिकता इतिहास और धर्म को भ्रमित करने की कीमत से नहीं प्राप्त हो सकती, यह समझने की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक जागृति और आत्म बोध का रास्ता चुना और सर्व धर्म की बात की लेकिन स्वयं के धर्म की कीमत पर नहीं। उनका मानना था कि धर्म चेतना का प्रसार पश्चिमी देशों में भी किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने भारतीय दर्शन को गलत समझा है। 

जिस धर्म के प्रसार के लिए स्वामी विवेकानंद ने अपना संपूर्ण जीवन बिता दिया, जिस धर्म ने विश्व को सहिष्णु और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया। आज उसे मानने पर यदि हमारे मन में अपराध बोध आए तो स्वामीजी के कथन को याद कर लेना चाहिए कि, “जो भी आपको शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाता है, उसे जहर समझ कर त्याग दो।” 

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