सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार 9 जनवरी, 2023 को एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उत्तराखण्ड सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के लिए गठित पैनल को सही ठहराते हुए आदेश दिया कि इस विषय पर राज्यों के पास पर्याप्त अधिकार हैं।
मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में याचिका की सुनवाई करते हुए पीठ ने राज्यों द्वारा समान नागरिक संहिता लाया जाना संवैधानिक वैधता के मापदंड पर भी सही ठहराया।
बता दें कि उत्तराखण्ड मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सरकार द्वारा विधानसभा चुनाव प्रचार के अन्तिम दिन समान नागरिक संहिता पर कानून लाने की घोषणा की थी। इसके बाद भाजपा शासित अन्य राज्यों में भी यूसीसी को लाए जाने की घोषणा की गई थी, इनमें गुजरात और हिमाचल प्रदेश भी शामिल हैं।
उत्तराखण्ड में सत्ता वापसी के बाद धामी सरकार द्वारा किए गए वादे के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना देसाई की अध्यक्षता में पाँच लोगों के पैनल का गठन किया गया था। इसके बाद से राज्य के अन्य हित धारकों से बातचीत जारी है।
समवर्ती-सूची के अंतर्गत सूची-बद्ध है UCC
संविधान की सातवीं अनुसूची में भारत के संघीय संरचना को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु केंद्र व राज्यों को कुछ-कुछ विषयों पर कानून बनाने के अधिकार दिए गए हैं, जिन्हें क्रमश: संघ-सूची एवं राज्य-सूची के अंतर्गत रखा गया है। जबकि कुछ ऐसे विषय भी हैं जिनके लिए कानून बनाने का अधिकार राज्यों और केंद्र दोनों को ही हैं और इन विषयों को समवर्ती-सूची के अंतर्गत रखा गया है। हालांकि इन विषयों पर केंद्र व राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों पर मतभेद की स्थिति में केंद्र द्वारा बनाए गए कानून को ही प्राथमिकता मिलना तय है।
संविधान में समवर्ती-सूची के 5वें विषय के रूप में विवाह और तलाक, शिशुओं और नाबालिगों, गोद लेने, वसीयत, निर्वसीयत और उत्तराधिकार, संयुक्त परिवार और विभाजन आदि सम्बन्धी सभी विषयों का उल्लेख किया गया है, जिस पर केंद्र और राज्य समान रूप से अपने-अपने कानून बनाने को स्वतंत्र हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद अन्य राज्यों द्वारा जो इस पर कानून बनाने की बात कह चुके हैं उनके लिए भी स्थिति स्पष्ट हो चुकी है। संविधान के नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद-44 के अंतर्गत भी समान नागरिक संहिता को लागू करने पर बल दिया गया है।
एक लम्बे समय से इसको लेकर उठती मांगों के बीच उत्तराखण्ड और गुजरात सरकार द्वारा इस पर पहल की जा रही है। वहीं, कुछ राजनीतिक दल इसका विरोध कर रहे हैं।
न्यायिक अधिकार और PIL एक्टिविज्म
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी को न्यायिक अधिकार की स्वतंत्रता है लेकिन भारत में हालात ऐसे पैदा कर दिए जाते हैं कि न्यायिक अधिकार के नाम पर ‘पीआईएल एक्टिविज्म’ शुरू हो जाता है। विषय चाहे कोई भी हो उसे गैर-ज़रूरी न्यायिक समीक्षा की ओर धकेलना नया चलन बनता जा रहा है। इनमें आर्थिक, पर्यावरण, सामाजिक, इंफ्रास्ट्रक्चर, रक्षा सौदा समेत अन्य किसी भी प्रकार के मामले इससे अछूते नहीं रहे। यह एक तरह की सेंधमारी है जिसे कुछ हद्द तक न्यायपालिका से भी संरक्षण प्राप्त है।
‘पीआईएल एक्टिविज्म’ में एक विशेष एजेंडा और नैरेटिव के लोगों को न्यायिक ढाल की तरह प्रयोग किया जा रहा है। जो सरकार के काम में बाधा डालने को प्रतिबद्ध दिखती हैं। वहीं यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वर्तमान में चल रहे न्यायपालिका और सरकार के बीच की खींच-तान से न्यायपालिका के फैसलों की निष्पक्षता पर प्रभाव पड़ेगा। जिसका लाभ इन पीआईएल एक्टिविस्ट्स द्वारा उठाया जाना स्वाभाविक है।
इसी प्रकार पिछले दिनों उत्तराखण्ड के हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर अवैध अतिक्रमण को हटाए जाने के हाईकोर्ट के फैसलों को भी इन्हीं लोगों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनौती दी गई, जिसके बाद इस पर अगली सुनवाई तक रोक लगा दी गई है।