एक नया शब्द चर्चाओं में आ गया है ‘हेट स्पीच’
समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट में की गई व्याख्याओं और बहसों के बाद देश में नए शब्द, विचारों पर बहस शुरू हो जाती है। ऐसा ही एक शब्द, विचार है ‘हेट स्पीच’ यानी नफरती बयान। सुप्रीम कोर्ट ने एक सुनवाई के बाद कहा कि देश में घृणा का माहौल हावी है।
‘हिन्दू’, ‘मुसलमान’, ‘जिहाद’, जैसे शब्दों की जिरह के बाद सुप्रीम कोर्ट के माननीय जस्टिस जोसेफ ने सरकार से कहा है कि यदि सरकार न्यूज़ एंकर्स के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे तो उन्हें पता चल जाएगा कि उन्हें नफरत फैलाने वाले शब्दों के एवज में भुगतना होगा।
‘हेट स्पीच’ की परिभाषा देश के सबसे बड़े अभिलेख ‘संविधान’ में कहीं उल्लिखित नहीं है। हालाँकि, इसका मतलब नफरत से लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि नफरत के पैरामीटर कौन तय करेगा?
निगाहें सुप्रीम कोर्ट या सरकार की तरफ ही मुड़ जाती हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट भी स्वयं हेट स्पीच के प्रभाव से नहीं बच सका।
टीवी डिबेट में एक मौलाना की जिस हेट स्पीच पर नूपुर शर्मा ने प्रतिक्रिया दी थी, उस हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ‘शब्द’, ‘व्याख्या’ , ‘नज़ीर’, ‘लकीर’ खींचना भी उचित नहीं समझा। वहीं जब देश भर में नूपुर शर्मा के पुतले फांसी से लटका कर तालिबानी सन्देश दिए जा रहे थे, तब सुप्रीम कोर्ट ने तुरन्त कह दिया कि देश भर में जो कौमी आग लगी और नफरत का जो माहौल बना, वह सब नूपुर शर्मा के बयान का ही दुष्परिणाम है।
आज उसी नूपुर शर्मा को अपनी सुरक्षा के लिए बन्दूक का लाइसेंस लेना पड़ा जिसे सुप्रीम कोर्ट ने देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताया था। न्याय और अन्याय से परे क्या नूपुर शर्मा के ख़िलाफ़ दिए गए बयानों में सुप्रीम कोर्ट को नफ़रत का अंश नहीं झलकता?
देश में बढ़ते टीआरपी और मीडिया ट्रॉयल के दौर में सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी की आवश्यकता थी लेकिन सिर्फ चुनिंदा एंकरों के लिए क्यों? सुदर्शन टीवी एवं रिपब्लिक टीवी का नाम लिया गया। ये दोनों चैनल जांच का विषय हो सकते हैं लेकिन जांच के लिए चुने जाने वाले इन विषयों में टीवी पर वर्षों तक ‘डर का माहौल’ बनाते रहे रवीश कुमार क्यों नहीं हैं?
अपनी रिपोर्टिंग में बार-बार मीडिया के विशेष लोगों को निशाना बनाकर ‘गोदी मीडिया’ कहना और फिर सोशल मीडिया के माध्यम से जनता के बीच जाकर मीडिया के प्रति एक नफरत का माहौल बनाना, क्या यह हेट स्पीच नहीं है? या रवीश कुमार चिल्लाकर रिपोर्टिंग नहीं करते तो उनके द्वारा कहा गया हर शब्द अमृत की बूँद माना जाएगा? यह भी सुप्रीम कोर्ट को तय करना होगा। हालाँकि, इसकी उम्मीदें अधिक नहीं होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट आज लोगों को हेट स्पीच पर सजा देने की बात इसलिए कर रहा है ताकि यह एक उदाहरण बन सके लेकिन जब कोर्ट के पास स्वयं हेट स्पीच के खिलाफ एक नज़ीर बनाने का मौका था, तब मात्र एक सिक्का उछाल दिया गया। कोर्ट ने अपने वकील प्रशांत भूषण की हेट स्पीच पर जिन 82 पन्नों का फैसला सुनाया, उन पन्नों की कीमत एक रूपए से तो कहीं अधिक ही रही होगी।
यह सब विचारणीय विषय इसलिए बन जाते हैं क्योंकि एक संस्थान अलग-अलग मौकों पर एक ही विषय के लिए अलग-अलग व्याख्याएँ पेश करता है। अगर मीडिया चैनल्स, कोर्ट में, सर्वोच्च न्यायालय के पीके फिल्म पर दिए गए बयान को रख दें, जिसमें जज साहब कहते हैं If You Don’t Like it Don’t Watch it, तो क्या हो?
सुप्रीम कोर्ट हर मुद्दे पर रेगुलेशन बनाना चाहता है। बेशक बनाएं, लेकिन फिर सवाल उठता है, सुप्रीम कोर्ट स्वयं के रेगुलेशन के मुद्दे पर क्यों बुरा मान जाता है? जब कॉलेजियम सिस्टम पर खुलकर बोला जाने लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल के जरिए इस पर बयान देने से बचने की नसीहत दी।
संविधान में संशोधन का संसद का अधिकार क्या किसी और संस्था पर निर्भर कर सकता है? क्या भारत के संविधान में कोई नया ‘थिएटर’ (संस्था) है जो कहेगा कि संसद ने जो कानून बनाया, उस पर हमारी मुहर लगेगी तभी कानून होगा। यह सवाल उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के हैं।
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