सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाते हुए चुनावी बॉण्ड योजना को इस आधार पर रद्द कर दिया कि यह नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ का कहना है कि चुनावी बॉण्ड योजना असंवैधानिक और मनमानी है और इससे राजनीतिक दलों और दानदाताओं के बीच बदले की व्यवस्था हो सकती है।
पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि काले धन से लड़ने और दानदाताओं की गोपनीयता बनाए रखने का घोषित उद्देश्य इस योजना का बचाव नहीं कर सकता। अदालत ने कहा कि चुनावी बॉन्ड काले धन पर अंकुश लगाने का एकमात्र तरीका नहीं है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार भारतीय स्टेट बैंक तुरंत इन बॉण्ड को जारी करना बंद कर देगा और इस माध्यम से किए गए दान का विवरण भारत के चुनाव आयोग को प्रदान करेगा। चुनाव निकाय को यह जानकारी 13 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करने के लिए कहा गया था।
उल्लेखनीय है कि चुनावी बॉण्ड योजना 2018 में काले धन को राजनीतिक प्रणाली में प्रवेश करने से रोकने के घोषित उद्देश्य के साथ शुरू की गई थी। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तब कहा था कि भारत में राजनीतिक फंडिंग की पारंपरिक प्रथा नकद दान है। उन्होंने तब कहा था कि स्रोत गुमनाम या छद्म नाम हैं। धन की मात्रा का कभी खुलासा नहीं किया गया। वर्तमान प्रणाली अज्ञात स्रोतों से आने वाले अशुद्ध धन को सुनिश्चित करती है। यह पूरी तरह से गैर-पारदर्शी प्रणाली है।
योजना लागू होने के तुरंत बाद से ही कई पक्षों ने इसे अदालत में चुनौती दी थी। इनमें सीपीएम, कांग्रेस नेता जया ठाकुर और गैर-लाभकारी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स शामिल थे। उन्होंने तर्क दिया कि गोपनीयता खंड नागरिकों के सूचना के अधिकार के रास्ते में आता है।
वहीं, भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि यह पता करने का सही रास्ता है कि राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाला धन सफेद हो। उन्होंने कहा था कि दानकर्ता की पहचान का खुलासा करने से पूरी प्रक्रिया हतोत्साहित हो सकती है। मेहता के अनुसार मतदाता इस आधार पर वोट नहीं देते हैं कि कौन किस पार्टी को फंडिंग कर रहा है, बल्कि वे किसी पार्टी की विचारधारा, सिद्धांतों, नेतृत्व और दक्षता के आधार पर वोट करते हैं।
वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने योजना को प्रभावी बनाने के लिए कंपनी और कर कानूनों में किए गए संशोधनों को भी रद्द कर दिया। पहले, कंपनियों को चंदा देने के लिए कम से कम तीन साल पुराना होना जरूरी था और जिस पार्टी को वह चंदा दे रही थी, उसकी राशि और नाम का खुलासा करना पड़ता था। कॉरपोरेट चंदे में पारदर्शिता सुनिश्चित करने वाली इन शर्तों को नए कानून के तहत खत्म कर दिया गया है।
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