इससे पहले कि हम अपनी बात आगे कहें, उससे पहले आपको बीते दिनों की बता दें। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के एक स्कूल से शिक्षक-दिवस पर कथित सांस्कृतिक-कार्यक्रम की तस्वीरें और वीडियो वायरल हुईं। वह स्कूल था, लेकिन किसी पब और हुक्का-बार की झलक दे रहा था। वहां ऐसे अश्लील गाने बज रहे थे, जिनको हमें यहां लिखते हुए भी संकोच हो रहा है।
दूसरी बात, ब्रिटेन में भारतवंशी ऋषि सुनक के पीएम पद पर हारने के बाद भारत के लिबरल-वामपंथी वर्ग की प्रतिक्रिया की है। ऋषि की हार के बाद उनकी गौ-पूजा करती तस्वीरें डालते हुए ट्विटर पर ऐसा जहर उड़ेला गया, जिसे देखकर समझ में आता है कि हिंदू-प्रतीकों, पद्धति और जीवनशैली से इनको किस हद तक घृणा है?
कुछ ने लिखा- गाय पूजना काम न आया, किसी ने लिखा- गाय का मूत्र पीने से जीत नहीं मिलती और कुछ ने जमीन-आसमान के कुलाबे ही मिला दिए- वह यूके था, यूपी नहीं, इसलिए गाय पूजने या मूत्र पीने से कोई नहीं जीत सकता।
यही है न्यू नॉर्मल
ये दोनों ही घटनाएं न तो पहली हैं, न आखिरी। ये दरअसल न्यू-नॉर्मल है। हमारे जेएनयू के दिनों में समाजशास्त्र के एक प्रोफेसर होते थे, दीपांकर गुप्ता। वह समाजशास्त्र पढ़ाते थे। वह एक शब्द का इस्तेमाल करते थे, ‘वेस्टॉक्सिकेटेड’। इसका अगर मैं अनुवाद करना चाहूँ, तो वह होगा ‘पश्चिमाक्रांत’ या ‘पश्चिम-विषाक्रांत’ होगा। यह शायद आज की पीढ़ी के लिए बहुत क्लिष्ट हिंदी हो जाए, तो वेस्टॉक्सिकेटेड ही रहने देते हैं।
वेस्टॉक्सिकेटेड मतलब वह, जिन्होंने पश्चिम का पूरा जहर, उसका पूरा गोबर, उसकी पूरी निषेधात्मक जीवनशैली तो अपना ली है, लेकिन उसका सकारात्मक पक्ष, जैसे उनकी तर्कणा, उनकी वैज्ञानिकता, उनका जुनून, उनकी मेहनत कुछ भी नहीं लिया।
वह लेकिन अभी हमारा विषय नहीं है। सवाल यह है कि एक पूरी पीढ़ी आखिर ऐसी पथभ्रष्ट कैसे हो गई कि वह अपने ही सांस्कृतिक प्रतीकों के बारे में इस तरह से बातें करनी लगी हैं।
औपनिवेशीकरण और सांस्कृतिक क्षरण
हमें लगातार यह बताया जाता है कि लगभग 200 वर्षों की गुलामी के बाद हम 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गए। यानी, केवल अंग्रेजों के शासनकाल को ही हमारी गुलामी सिद्ध किया जाता है। सच इसके उलट है। सच तो यह है कि इस देश ने शकों, हूणों, तातारों और न जाने कितनी सारी बर्बर जातियों का आक्रमण झेला, लेकिन जब दिल्ली में तुर्कों-मुगलों का राज हुआ, हमारी गुलामी और दुर्दशा के दिन तब से शुरू हो गए। सच ये है कि हम कमोबेश 1200 वर्षों तक गुलाम रहे।
यह गुलामी दूर करने का एक बड़ा जिम्मा दिया गया था, 1947 में हुक्मरानों को। अफसोस, चेहरे बदल गए, सिलसिला नहीं। काम करने वाले लोग बदले, शैली नहीं। जब इस देश के भविष्य को गढ़ना था, तो इस देश की कमान एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में थी, जो मनसा-वाचा-कर्मणा अंग्रेज ही था। इसीलिए, हमारी यानी भारतीय प्रज्ञा, भारतीय चेतना की लौ न जल सकी और हम अधकचरे बन कर रह गए।
हमारे कानून नहीं बदले, हमारी भाषा तक अंग्रेजी ही रही, जो औपनिवेशिक विरासत के अलावा कुछ नहीं, हमारा आचार-विचार, रहन-सहन सब कुछ बदल गया और हमने सारी चीजें उधार की ले लीं, बिना यह सोचे कि वे हमारी आबोहवा के अनुकूल हैं या नहीं? यह ठीक वैसा ही हुआ कि तिब्बत के कुत्ते को दिल्ली में पालने की जिद की जाए। लोग जबरन पालते भी हैं, लेकिन कुछ दिनों बाद उस कुत्ते की जो हालत है, आज ठीक वही हालत हमारे भारतीय मानस की है।
हमारा ‘मानस’ स्वतंत्र नहीं
एक उदाहरण से अपनी बात और साफ करता हूँ। आप बशेशरनाथ कपूर को जानते हैं? शायद नहीं जानते होंगे। हालाँकि, जैसे ही मैं कहूँगा कि वह पृथ्वीराज कपूर के पिता थे, तो आपमें से अधिकांश कहेंगे कि अच्छा, वो थे ये। पृथ्वीराज कपूर के बेटे राज कपूर और उन्हीं की पोती है करीना कपूर ‘खान’। बशेशरनाथ अपने जमाने में पेशावर के डिप्टी एसपी थे और गुलाम भारत में आईजी के पद तक पहुँचे थे। पृथ्वीराज कपूर के पास पेशावर और लायलपुर में काफी जायदाद थी और हवेली भी। यह बात मैं बहुत पुरानी भी नहीं कह रहा, बस 1940-45 की कह रहा हूँ।
कोई पद, कोई रुतबा और दौलत काम नहीं आया और जब बंटवारे के पहले दंगों की शुरुआत हुई, तो 1944 में ही अपनी अरबों की दौलत पेशावर और लायलपुर में छोड़कर पृथ्वीराज कपूर मुंबई चले आए। फिर, कभी वापस नहीं गए।
मात्र तीन पीढ़ी बाद, उन्हीं की पोती अपने बेटों का नाम बेरहम कातिलों और लुटेरों के नाम पर तैमूर और जहाँगीर रखती है। रखती ही नहीं, एक साक्षात्कार में काफी नफासत से गर्दन हिलाते हुए कहती हैं, ‘तैमूर..मतलब कांकरर, विजेता..’। नहीं करीना खान जी, तैमूर मतलब विजेता नहीं। तैमूर मतलब हत्यारा, क्रूर, बर्बर, लाखों लोगों का नरसंहार करनेवाला एक पागल-बददिमाग।
जहांगीर का मतलब दुनिया जीतनेवाला नहीं, जहांगीर का मतलब वह क्रूर, वह बर्बर, वह पागल जिसने एक नौकर को चुंबन लेने पर जमीन में आधा गड़वा दिया। जिसने अपने बेटे खुसरो की आँखें फोड़ दीं, जिसकी क्रूरता की पूरी दास्तान एलिसन बैंक्स फ़िडली ने अपनी किताब ‘नूरजहां: एंपरेस ऑफ मुगल इंडिया’ में लिख दी है।
जहांगीर खुद अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में दिन भर में 20 प्याले शराब पीने के किस्से लिखवा चुका है। जहांगीर मतलब वह, जिसने सिखों के 5वें गुरु अर्जुन देव जी को फांसी पर चढ़ा दिया था। मतलब यह करीना जी कि जहांगीर मतलब दुनिया का वह सारा जहर जो उपलब्ध हो सकता है।
हमारे मानसिक दिवालिएपन का इससे बड़ा सबूत क्या चाहिए कि जिनके दादा (यानी, केवल तीसरी पीढ़ी) हिंसक लुटेरों से भागकर भारत आए हों, उनकी पोती ही उन बर्बर क्रूर लुटेरों के नाम को सेलिब्रेट कर रही है।
यही है औपनिवेशिक आधिपत्य यानी कोलोनियल हेजेमनाइजेशन। यही इस लेखक का मूल प्रस्थापना-बिंदु भी है।
आज की तस्वीर और तासीर
इस लेखक ने ऊपर जो तस्वीर दिखाई है, उसके मुताबिक हालात बहुत निराशाजनक दिखेंगे। ऐसा वास्तव में है नहीं। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने एक ऐसी दुनिया हमारे पास खोल दी है, जहां विष भी है, लेकिन अमृत भी है।
ट्विटर एक मजेदार जगह है। यहां अभी कुछ ही दिनों पहले डॉक्टर मीना कंदासामी, जो स्व-घोषित बुद्धिजीवी और कवयित्री हैं, ने बेहद अजीब बयान दिया। उन्होंने कहा, ‘जेएनयू के दिनों में मुझे यौन-ताड़ना का शिकार बनना पड़ा। मैंने शिकायत नहीं की, क्योंकि छेड़नेवाला दलित था और उसकी जाँच करनेवाला ब्राह्मण, उसे अपना शिकार बना सकता था।’
चेतना का ऐसा अवमूल्यन! कथित पढ़ाई की देन इतनी जहालत! अपराध के प्रति प्रेम और जाति-विशेष के प्रति ऐसी घृणा।
आगे की राह
हमें खुद तय करनी होगी। तकनीक की कृपा से ऑनलाइन बहुत कुछ उपलब्ध है, हमारे पास सोशल मीडिया पर ऐसे हैंडल्स मौजूद हैं, जो वामपंथी-साम्यवादी झूठे नैरेटिव को तोड़ दे रहे हैं। हमें सबसे पहले अपने मूल तत्त्व की ओर लौटना होगा और हरेक तरफ से केवल पवित्र विचारों को ग्रहण करना होगाः
– आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः
यानी, चारों दिशाओं से आने वाले अच्छे, बढ़िया विचारों को हम ग्रहण करें। हम खुद को हीनता से मुक्त करें। हमारी सांस्कृतिक विरासत को समझें, जानें और अपने जीवन में उतारें।