काफ़ी साल पहले कॉन्ग्रेस का एक अधिवेशन काकीनाड़ा में चल रहा था और मौलाना मुहम्मद अली वहाँ एक बैंड के बाजे-गाजे वाले जुलूस की सलामी लेते हुए शामिल हुए। जैसा कि उस दौर की कॉन्ग्रेसी रवायत थी, सत्र की शुरुआत वन्दे मातरम के गान से होनी थी। पंडित विष्णु दिगंबर पालुस्कर आगे आए और वंदेमातरम् गाने के लिए मंच की तरफ बढे़।
सन् 1875 के आस पास कभी लिखा गया ‘वंदेमातरम्’ का ये गीत सन् 1881 में ही बंकिमचन्द्र की किताब आनंद मठ में छप चुका था। इसी गीत को गाते खुदीराम बोस जैसे क्रन्तिकारी हँसते मुस्कुराते फांसी का फंदा चूम चुके थे।
ये कॉन्ग्रेस अधिवेशन सन् 1923 का था और वंदेमातरम् उस समय तक राष्ट्रवादियों का क्रांति गीत हो चुका था। ऐसे समय में अचानक मौलाना मुहम्मद ने आपत्ति जताई। उनका कहना था कि गीत-संगीत इस्लाम के खिलाफ़ है और इस से उनकी मजहबी भावना को ठेस पहुँचती है।
मगर पंडित पालुस्कर ना तो आज के कॉन्ग्रेसियों जैसी तुष्टीकरण की नीति वाले थे, ना उनके राष्ट्रवाद की रीढ़ की हड्डी किसी समुदाय विशेष के लिए झुकती थी। उन्होंने पलट कर कहा मौलाना ये किसी धर्म-सम्प्रदाय या मजहब के लिए जमा भीड़ नहीं, ये सभी राष्ट्रवादियों का खुला मंच है। साथ ही उन्होंने मौलाना मुहम्मद को ये भी याद दिला दिया कि उनकी मजहबी कट्टरता तब कहाँ गई थी जब वो शान से बैंड-बाजे की सलामी ले रहे थे?
बेशक उस रोज़ मौलाना मुहम्मद अली और उनके मजहबी कट्टरपंथ को कुचल कर पंडित पालुस्कर का राष्ट्रवाद आगे आया था लेकिन धीरे-धीरे कॉन्ग्रेस की तुष्टिकरण की नीतियों ने इस्लामिक कट्टरपंथ को जगह देनी शुरू कर दी।
आज का स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया या फिर जेहोवा विटनेस जब इस्लाम के नाम पर ‘वन्देमातरम’ का विरोध करता है तो उसका इतिहास कोई आज का नहीं है। कॉन्ग्रेस की नीतियों के कारण वो सन् 1937 के ही दौर में शुरू हो चुकी थी।
अपने साथ सफ़र कर रहे जवाहरलाल नेहरु को अली सरदार जाफ़री ये समझाने में कामयाब हो गए थे कि कैसे ‘वन्देमातरम’ नाम का ये गीत ‘मूर्तिपूजा का समर्थक’ है। नेहरू ने ये सीखकर इस से एक कदम आगे बढ़ने का फैसला लिया। नेहरू ने कहा कि “ये देशभक्ति गीत राष्ट्रवाद और तरक्की के आधुनिक विचारधाराओं के साथ चलने के काबिल नहीं।”
नेहरू के इस वक्तव्य को हड़पने में मुस्लिम लीग ने जरा भी देरी नहीं लगाई। सिर्फ एक महीने बाद 17 अक्टूबर, 1937 में अपने लखनऊ सत्र में मुस्लिम लीग ने एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें मुस्लिम लीग ने ‘वंदेमातरम् थोपकर मुस्लिम भावनाओं को कुचलने और उसकी अनदेखी करने’ के लिए कॉन्ग्रेस की निंदा की।
उसी साल जब कॉन्ग्रेस कार्य समिति की नेहरू की अध्यक्षता में, कलकत्ता में बैठक हुई तो, कॉन्ग्रेस ने अधिकारिक तौर पर ये मान लिया कि ‘मुस्लिमों की वंदेमातरम् गीत के कुछ हिस्सों पर उठाई गई आपत्ति जायज है’। उन्होंने अनुशंसा की, “राष्ट्रीय बैठकों में आगे से वंदेमातरम् के केवल शुरूआती दो स्टेंज़ा ही गाए जाएंगे।”
तुष्टिकरण की नीति से कभी ज्यादा फायदा नहीं होता। मुस्लिम लीग भी नेहरू के आश्वासनों से नहीं मानी थी। नेहरू का ‘वंदेमातरम्’ के बारे में यह कहना कि “भविष्य में ये कम महत्वपूर्ण होता जाएगा” का मुस्लिम लीग पर कोई असर नहीं हुआ। मुस्लिम लीग ने ‘मुस्लिमों पर हुए जुल्मों’ की एक फ़ेरहिस्त बनाने के लिए पीरपुर समिति का गठन किया।
आगे चलकर जब 15 नवम्बर, 1938 को पीरपुर समिति ने अपनी लिस्ट दी तो ‘मुसलमानों पर हुए जुल्मों’ में एक जुल्म वंदेमातरम् भी था। मुस्लिम लीग और कई अन्य इस्लाम के तथाकथित रहनुमाओं की ये बार-बार की आवाज आपको हर तरफ सुनाई दी जाएगी। उनके मुताबिक ‘वंदेमातरम्’ मुसलमानों पर होने वाले जुल्मों में से एक है।
आजादी से पहले ही नेहरू और कॉन्ग्रेस ने राष्ट्रवाद की कुर्बानी अपनी तुष्टिकरण की नीतियों के लिए दे दी थी। मुस्लिम लीग के अलगाववादी रवैये के लिए जो जगह बनाई आज वहाँ जाकिर नाइक जैसे इस्लामिक अशराफ अपनी जगह बना रहे हैं।
अशरफवादी नाइक जब कहता है कि मुसलमान पहले मुसलमान है और बाद में भारतीय तो वो कोई नई बात नहीं कह रहा। आज की और आने वाली पीढ़ियों के लिए खड़ा ये अभिशाप आज नहीं पैदा हुआ है। ‘वंदे भारत’ पर चलते पत्थर उस पेड़ के फल हैं जिन्हें नेहरु और कॉन्ग्रेस के तुष्टीकरण वाली नीतियों ने करीब सौ साल पहले बोया था।