आज एक ऐसे महापुरुष की पुण्यतिथि है जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की जड़े लंदन में स्थापित कीं। ऐसे व्यक्ति जो लंदन से स्वतंत्रता सेनानी तैयार कर भारत भेज रहे थे। जी हाँ, यह सुनने में अजीब लगे पर सच है। ये कारनामा करने वाले महापुरुष थे श्यामजी कृष्ण वर्मा ,जो एक स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर वक्ता, पत्रकार, वकील, वेदों के ज्ञाता और लंदन में संस्कृत के प्रोफेसर रहे। हालाँकि, क्या नई पीढ़ी उनके बारे में इससे अधिक जानती है? क्या श्यामजी कृष्ण वर्मा की विरासत को उचित सम्मान मिल पाया है? या जो सम्मान मिला उसमें देर तो नहीं हुई?
विरासत, इतिहास आदि ऐसे शब्द हैं जिनकी किसी न किसी कारण से अधिकतर उपेक्षा की गई है। प्रश्न यह है कि हम उन महापुरुषों को क्यों नहीं जानते जिन्होंने हमारे वर्तमान के लिए वर्षों पहले वर्षों तक संघर्ष किया।
नई पीढ़ी अपनी विरासत को नहीं जानती तो इसके पीछे एक ही वजह हो सकती है कि तत्कालीन पीढ़ी ने उन्हें सही उदाहरण पेश नहीं किया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें श्यामजीकृष्ण वर्मा के जीवन से मिलता है।
श्यामजी लंदन में भारतीयों के लिए संघर्ष कर रहे थे एवं इंडिया हाउस के जरिए क्रांतिकारियों के लिए हरसंभव सहायता उपलब्ध करवा रहे थे। इसके लिए अंग्रेजी विश्वविद्यालय ने उन्हें उनकी लॉ की डिग्री देने से भी इंकार कर दिया था। पर उन्हें इसकी परवाह नहीं थी। उनकी एकमात्र इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को सुरक्षित रखा जाए और जब भारत स्वतंत्र हों तब उन्हें वहां पहुँचाया जाए। एक क्रांतिदूत की इससे बड़ी क्या इच्छा हो सकती है कि उसकी अस्थियां उसके स्वतंत्र देश में विद्यमान हो।
कौन थे श्यामजी कृष्ण वर्मा, नई पीढ़ी को जरूर जानना चाहिए
श्यामजी का निधन 31 मार्च, 1930 में जिनेवा, स्वीट्जरलैंड में हुआ। विडंबना यह है कि वर्ष, 1947 में देश तो आजाद हो गया पर उनकी अस्थियां वापस नहीं लाई गई। क्या यह उस स्वतंत्रता सेनानी के साथ न्याय हुआ जो अपने देश के लिए बाहर रहकर तब काम कर रहे थे जब अधिकतर लोगों के लिए देश का अर्थ खोजना एक सपने की तरह था। क्या यह देश के उस सपूत के साथ अन्याय नहीं है जिन्होंने भारतीय धर्म दर्शन का प्रसार विदेशों तक किया और विदेशी धरती पर रहकर भारत के लिए संघर्ष कर रहे थे? क्या वे ससम्मान अपने वतन में लाए जाने के योग्य नहीं थे?
वर्ष, 2003 में यह परिपाटी बदली। 56 वर्षों तक सरकारों की उपेक्षा के बाद गुजरात में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी की अस्थियों को भारत में लाने का काम किया। साथ ही, बम्बई से लेकर माण्डवी तक पूरे राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस के साथ तीर्थ बनाकर उसके परिसर स्थित श्यामजीकृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष में उनकी अस्थियों को संरक्षण प्रदान किया।
इसके उपरांत गुजरात सरकार ने श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्मस्थल माण्डवी में श्रीश्यामजी कृष्ण वर्मा मेमोरियल का विकास किया जिसका नरेन्द्र मोदी द्वारा 13 दिसम्बर 2010 को लोकार्पण किया गया। आज यह स्थल एक क्रांति तीर्थ के रूप में विद्यमान है और यहाँ आने वाले पर्यटकों को हमारे गौरवशाली विरासत से परिचय करवा रहा है।
आज हम आजादी के अमृतकाल में हैं। अमृतमहोत्सव का महत्व बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने विरासत को याद करने और हमारे आजादी के वीरों को पहचान देने की अपील की है। यह सही समय है कि हम हमारे इतिहास और इसके नायकों को अपवाद के अपने वर्तमान में स्थान दें। आखिर उनकी शिक्षाएं हमारे भविष्य का आधार बनने की क्षमता रखती हैं।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन भी ऐसी ही प्रेरणादायी शिक्षाओं से परिपूर्ण है। उनके शुरुआती जीवन में वे एक विदुषी संन्यासिनी माता हरिकुंवरबा से प्रभावित हुए और उनसे संस्कृत की शिक्षा गृहण की। इसी क्रम में वे आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद से प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु भी स्वीकार किया। वेदों के ज्ञान के प्रसार के लिए उन्होंने भारत की यात्रा की। उनके ज्ञान का प्रकाश इतना तेज था कि काशी के पुजारियों ने वर्ष 1877 में उनके नाम के साथ ‘पंडित’ उपाधि को जोड़ दिया था।
बतौर संस्कृत प्रोफेसर उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं दीं। ओरिएंटलिस्ट्स के बर्लिन कांग्रेस के सम्मेलन में वर्ष 1881 में उन्होंने भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हुए “भारत की एक जीवित भाषा के रूप में संस्कृत” पर भाषण दिया। इसके उपरांत वो संपूर्णतया भारत की आजादी के संघर्ष के साथ जुड़ गए।
लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना से लेकर ‘द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ नामक एक पत्रिका के जरिए क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने का काम उन्होंने किया। वीर सावरकर, भीकाजी कामा, एस.आर. राणा और लाला हरदयाल जैसे महान क्रांतिकारी उनके इंडिया हाउस से ही निकले थे। क्रांतिकारियों को वे न सिर्फ ज्ञान और संसाधन बल्कि आर्थिक मदद भी उपलब्ध करवा रहे थे। वे राष्ट्रवादी विचारों से लबरेज थे और उनका कहना था कि आक्रामकता का प्रतिरोध केवल आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
पुण्यतिथि विशेष: कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी होने का अर्थ
श्यामजी कृष्ण वर्मा की गतिविधियों पर अंग्रेजी मीडिया संस्थानों द्वारा प्रश्न उठाए गए पर उन्होंने बड़ी शालीनता से इनका जवाब दिया और अपनी गतिविधियां जारी रखी। अपने आखिरी दिन उन्होंने स्विटजरलैंड में बिताए। वहाँ भी ब्रिटिश सरकार ने स्विस सरकार पर दबाव डाल कर उनके आख्यानों को सार्वजनिक नहीं करने की धमकी दी थी। साथ ही उनकी मृत्यु की खबर को भारत में प्रसारित करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। हालाँकि, लाहौर की जेल में सजा काट रहे भगत सिंह ने श्यामजी को मृत्यु के बाद याद किया। बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र में श्यामजी की मृत्यु के बाद उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
ब्रिटिश राज के लिए श्यामजी कृष्ण वर्मा एक दुःस्वप्न थे, इसलिए उनके ज्ञान को प्रतिबंधित करने का उनके पास उचित कारण था। पर स्वतंत्र भारत की क्या मजबूरी थी कि वो अपने वीरों का सम्मान नहीं कर पाया? क्यों श्यामजी की अस्थियों को भारत में लाने के लिए 56 वर्षों का इंतजार करना पड़ा?
देश को अपनी विरासत को प्राथमिकता देना सीखना होगा। राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों को ब्रिटिश शासकों ने आतंकवादी बताया तो क्यों हम उनकी गलत नीतियों का बोझ वहन कर रहे हैं? आवश्यकता है इस गुलामी की मानसिकता का त्याग कर उन राष्ट्रवादियों का सम्मान किया जाए जिन्होंने देश के लिए संघर्ष किया। उनका मात्र इतिहास के पन्नों में रहना देश के लिए सही नहीं है।