श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम राष्ट्रवादी नेता और हिन्दुत्ववादी राजनीति के नायक के तौर पर जाना जाता है। उनका नाम जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिलने पर विरोध दर्ज करवाने वाले नामों में शामिल रहा है। हालांकि इतिहास की पुस्तकों में विरले ही यह दर्ज किया गया है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पश्चिम बंगाल को भारत का हिस्सा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जन्मतिथि पर यह जानना आवश्यक है कि क्यों राष्ट्रवादी नेता को भारतीय एकता के सूत्रधार के रूप में देखा जाना चाहिए न कि मात्र जनसंघ के संस्थापक के तौर पर।
मुस्लिम लीग से श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम जोड़ने वाले सिर्फ इसलिए उनके कार्यों की चर्चा नहीं करते क्योंकि उन्होंने आजाद भारत की सत्ता के विभाजनकारी निर्णयों के प्रति विरोध दर्ज करवाया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में चल रही विभाजनकारी नीतियों से अवगत थे और इसके चलते गठबंधन सरकार में रहते हुए उन्होंने यूनाइटेड बंगाल योजना का विरोध दर्ज करवाया था। विभाजन की चर्चा के बीच मुस्लिम लीग साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन चाहती थी। बंगाल की राजनीतिक स्थिति हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही थी।
संयुक्त बंगाल विभाजन
1905 के बंगाल विभाजन तो मात्र शुरुआत थी। जिस साम्प्रदायिक विभाजन का बीज लॉर्ड कर्जन ने उस समय डाला था 1946 तक इसकी जड़ें मजबूत हो गई थी बल्कि इसका विस्तार संपूर्ण भारत में परिलक्षित हो रहा था। विभाजन की उठती मांगों के बीच मुखर्जी इस बात को समझ चुके थे कि मुस्लीम लीग बंगाल को पाकिस्तान का भाग बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी और वो कर भी रही थी। वर्ष 1937 से लेकर 1941 तक फजलुल हक और लीगी सरकार चली और इससे ब्रिटिश हुकूमत ने फूट डालो और राज करो की नीति को मुस्लिम लीग की आड़ में हवा दी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस स्थिति में बदलाव के लिए सर्वप्रथम सरकार का हिस्सा होने की राजनीतिक जरूरत को समझा और 1941 में बंगाल को मुस्लिम लीग मुक्त करावाकर फजलुल हक के साथ गठबंधन करके नई सरकार बनाई। यह सरकार ‘श्यामा-हक कैबिनेट’ के नाम से मशहूर हुई। इस सरकार में डॉ. मुखर्जी वित्तमंत्री बने थे। सरकार का हिस्सा बनने के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल को स्थिरता के लिए काम किया। वे सवर्णों से लेकर और निम्न वर्ग तक, ग्रामीणों से किसानों तक और बंगाली हिंदू समाज के सभी वर्गों का समर्थन हासिल किया। उनके साथ क्रांतिकारी नेता उपेंद्रनाथ बनर्जी और किसान संगठनकर्ता हेमंत कुमार सरकार रहे और सभी बंगाली हिन्दुओं के साथ बैठकें कीं। उन्होंने विभिन्न जाति, वर्ग या विचार के सभी हिन्दुओं के सामाजिक वर्गों का संगठन किया जो बंगाल के विभाजन को चाहते थे।
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बंगाल विभाजन कोई राजनीतिक मांग नहीं थी। यह बंगाल में वर्षों से दमित हिंदू समुदाय के अधिकारों की मांग थी। विधानसभा में मुस्लिम सीटों की बढ़ोंतरी, दलितों के लिए अलग मतदान की व्यवस्था से लेकर कई प्रावधानों ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि हिंदू बंगाल में दूसरे दर्ज के नागरिक बन कर रहें। यह स्थिति अगस्त, 1946 में कलकत्ता में हुए सांप्रदायिक हिंसा और उसके ठीक सात सप्ताह बाद नोआखली में हुई सांप्रदायिक हिंसा से और बिगड़ गई। ऐसा भी कहा जा सकता है कि इन दंगों ने हिंदू समाज में इस चेतना का प्रसार किया कि अगर वे विभाजित यूनाइटेड बंगाल का हिस्सा बनते हैं तो उनकी स्थिति कैसी होगी। इतिहासकारों का मानना है कि कलकत्ता दंगे इस क्षेत्र के विभाजन के लिए अब तक की सबसे विनाशकारी घटना थी। यही कारण था कि फरवरी 1947 में, मुखर्जी के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने धार्मिक आधार पर बंगाल को विभाजित करने की मांग रखी।
विभाजन नहीं होने पर दंगे करवाने वाले सुहरावर्दी
इस मांग की आड़ में सबसे बड़ा रोड़ा बने बंगाल के प्रधानमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी जो आगे चलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी बने। सुहरावर्दी बंगाल के विभाजन के खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना है कि इससे नए राष्ट्र को आर्थिक आपदा का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि सभी जूट मिलें, कोयला खदानें और औद्योगिक संयंत्र राज्य के पश्चिमी हिस्से में चले जाएंगे। कलकत्ता जो कि उस समय सबसे बड़ा शहर था विभाजन के बाद पश्चिम बंगाल का हिस्सा बनता जो कि सुहरावर्जी को नामंजूर था। आर्थिक आधार तो एक व्यहवारिक तरीका था विभाजन रोकने के लिए वरना अपनी मांगे पूरी न होने पर सुहरावर्दी के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ही बंगाल में डायरेक्ट ‘एक्शन डे’ जैसा काला दिन आया और हजारों लोग मारे गए। कई परिवारों को विस्थापित होना पड़ा।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी राज्य में सामाजिक स्थिति को समझते थे। हिंदू महासभा सा साथ लेकर उन्होंने संयुक्त बंगाल योजना के खिलाफ एक भयंकर हमले का नेतृत्व किया। बंगाल अगर पाकिस्तान का हिस्सा बनता है तो यह तय था कि हिंदुओं को मुस्लिम प्रभुत्व के तहत रहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। वाइसराय माउंटबेटन को लिखे एक पत्र में मुखर्जी ने तर्क दिया, “यदि पिछले दस वर्षों में बंगाल के प्रशासन का कभी भी निष्पक्ष सर्वेक्षण किया जाए, तो यह प्रतीत होगा कि हिंदुओं को न केवल सांप्रदायिक दंगों और अशांति के मुद्दों पर शोषण किया गया है बल्कि इस सूची में राष्ट्रीय गतिविधियों के हर क्षेत्र शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक कि धार्मिक नीतियाँ भी शामिल हैं।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत की बात कर कहा कि चूँकि जिन्ना के अनुसार हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और मुसलमानों का अपना राज्य होना चाहिए, इसलिए बंगाल में हिंदू जो क्षेत्र की लगभग आधी आबादी हैं, अच्छी तरह से मांग कर सकते हैं कि उन्हें मुस्लिम प्रभुत्व के तहत रहने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
मुखर्जी इस बातपर जागरूकता फैलाते रहे कि एकीकृत बंगाल का विचार आकर्षक नहीं बल्कि एक आभासी पाकिस्तान है।
वर्तमान स्थिति
जैसा कि उल्लेखित है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी न होते तो शायद पश्चिम बंगाल आज पाकिस्तान का हिस्सा होता। स्वतंत्र भारत पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में दो टुकड़ों में बंट चुका था पर मुस्लीम लीग ने इसे तीन टुकड़ों में बांटने की योजना संयुक्त बंगाल के रूप में रची थी। इतिहास की पुस्तकों में इस योजना को विफल करने का श्रेय न तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दिया गया न ही बंगाल विभाजन के इस काले अध्याय का जिक्र। क्या यही कारण है कि पश्चिम बंगाल आज इतिहास को भूलने की कीमत चुका रहा है?
पश्चिम बंगाल सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक धमनियां सक्रिय रहती हैं वो आज राजनीतिक हिंसा, साम्प्रदायिक दंगे और ऐतिहासिक पहचान के बीच संघर्ष कर रहा है। हिंदू-मुस्लिम के जिस संघर्ष से स्वतंत्रता सेनानियों ने पश्चिम बंगाल को बचाना चाहा वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आज कहती हैं कि धार्मिक यात्राओं के लिए हिंदुओं को मुस्लिमों के क्षेत्र से नहीं गुजरना चाहिए। भारत के हिस्से में मुस्लिम क्षेत्र की कल्पना मुस्लिम लीग के बाद ममता बनर्जी ने अकेले नहीं की है इसमें अन्य दल भी शामिल हैं। हालांकि फिलहाल पश्चिम बंगाल पर ही बात करते हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी न सिर्फ पश्चिम बंगाल के हिंदुओं को सुरक्षित कर चुके थे बल्कि आर्थिक रूप से सुदृढ़ रहे राज्य को भारत का हिस्सा बनाए रखने में सफल रहे थे। वर्तमान स्तिथि का आकलन अगर कोई करने बैठे तो वो विशेषज्ञ पश्चिम बंगाल के ऐतिहासिक गौरव से नजरें नहीं मिला पाएगा।
एक समय महाराष्ट्र से भी अमीर राज्य रहा पश्चिम बंगाल 2018-19 के सर्वे के अनुसार छत्तीसगढ़ से भी गरीब राज्य हो गया है। पिछले वर्षों में की सापेक्ष स्थिति पर नजर डालें तो बंगाल में आश्चर्यजनक गिरावट देखने को मिली है। पश्चिम बंगाल में निवेशक रूचि नहीं लेते। शिक्षा क्षेत्र में गिरावट जारी है। 15वें वित्त आयोग के अनुसार यह उन राज्यों में से एक है जहां राज्यों के स्वयं के कर राजस्व का जीएसडीपी से सबसे कम अनुपात 5.44 प्रतिशत है।
यह स्थिति है पश्चिम बंगाल की और वहां के सामाजिक सौहार्द की जिसकी जिम्मेदारी का भार मात्र हिंदुओं पर डाला जाता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मुस्लिम लीग के सामने सामाजिक अधिकारों के लिए लड़कर पश्चिम बंगाल को भारत का हिस्सा बनाया था। आज इसी बंगाल के निवासी इस संदेह में है कि अगर विभाजन हुआ और हम भारत का हिस्सा बनें तो हमारी स्थिति ऐसी क्यों है?
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