उत्तर प्रदेश के लखनऊ में 31 दिसंबर, 1925 को सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले श्रीलाल शुक्ल के जीवन में भी मध्यम वर्गीय परिवार जैसी परेशानियाँ थीं। इन्हीं ‘मिडिल क्लास प्रॉब्लम्स’ के साथ शुक्ल जी आगे बढ़े और यूपी सिविल सेवा में चयनित होकर प्रशासनिक महकमे का अंग बन गए।
एक लेखक के तौर पर भी शुक्ल जी ने सफल पारी खेली, जिसमें सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, आदमी का जहर, मकान पहला पड़ाव, विश्रामपुर का संत, अंगदका पाँव जैसी कई रचनाएँ शामिल हैं। हालाँकि, जिस रचना के लिए उन्हें सबसे अधिक प्रसिद्धि मिली, वह थी राग दरबारी।
इस पुस्तक में ना तो राग है और ना ही दरबार बल्कि मिडिल क्लास परिवार है और राजनीति, शासन व्यवस्था, मूल्यहीन प्रशासनतंत्र पर जोरदार तंज कसा गया है। आम जीवन में इसके पात्र आज भी किसी न किसी के चरित्र से मेल खाते मिल जाएँगे। कहानी का नायक वो आम आदमी है जो कभी जीतता नहीं है। उसके हिस्से में भविष्य में विकास पाने के लिए वर्तमान में संघर्ष लिखा है। लेखक ने अपने व्यंग्य की भाषा शैली स्थानीय शब्दों से मिलाकर बनाई है। जिससे पाठक सहज ही जुड़ जाते हैं क्योंकि व्यंग्य में छिपे मर्म उनके जीवन का भी हिस्सा नजर आते हैं।
राग दरबारी के किरदार प्रशासन की चक्की में में ठीक वैसे ही पीसते हैं जैसे हर आम आदमी। इस बीच ये आम आदमी खास लोगों से पहचान भी बनाता है ताकि उसका काम जल्दी हो सके लेकिन उसे बाद में पता चलता है कि जान-पहचान से भी उतने ही चक्कर लगते हैं जितने बिना जान पहचान के। फर्क मात्र इतना है कि पहले खिड़की के बाहर धक्के खा रहे थे अब खिड़की के अंदर। शिवपालगंज और रूप्पन बाबू, रंगनाथ, वैद्यजी और लंगड़ ये सभी किरदार समाज के उस वर्ग का हिस्सा है जो राजनीति और प्रशासन के हर छोटे-बड़े फैसले से प्रभावित होते हैं।

श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी की रचना करीब 3 वर्षों की मेहनत के बाद वर्ष 1968 में की थी। इसके किरदारों की वास्तविकता के साथ निकटता इतनी थी कि इनकी वार्ता, दुविधाएं और प्रशासनिक और राजनीतिक रवैया आज भी प्रासंगिक नजर आता है। इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि श्रीलाल शुक्ल जी स्वयं प्रशासन का हिस्सा थे और इसके कामकाज से लेकर आम आदमी द्वारा इन सबको झेलने के तरीकों का उन्होंने स्वयं निरीक्षण किया था। समाज की सच्चाई ऊजागर करने का सबसे अच्छा तरीका व्यंग्य है। इसी का प्रयोग कर शुक्ल जी द्वारा समाज के हर पहलू पर राग दरबारी में बात की गई है। इसमें पंचायत चुनाव, प्रधान पति से लेकर प्रशासनिक महकमों के चक्कर लगाता लंगड़ का किरदार भी शामिल है।
राग दरबारी उस विकास की लहर की बात करती है जिसकी सिर्फ हवा ही गाँव-मोहल्लों तक पहुँच पाई और जिसके नाम पर प्रशासन से जुड़े हर छोटे-मोटे व्यक्ति ने अपने हिस्से की रोटियां सेकीं है। इसलिए राग दरबारी पढ़ते हुए पाठक हास्य के साथ ही एक चुभन भी महसूस करता है क्योंकि उसे वास्तविकता किरदारों से अधिक दूर नजर नहीं आती है बल्कि वो किसी किरदार में ही अपने आपको ढूंढ़ लेता है।
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राग दरबारी के लिए श्रीलाल शुक्ल को वर्ष 1969 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। वहीं इसके 42 वर्षों बाद ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी वो सम्मानित हुए थे। इसी पुरस्कार की घोषणा के बाद एक आलोचक वीरेंद्र यादव ने श्रीलाल शुक्ल से पूछा कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के दौर में ‘राग दरबारी’ एक बार फिर से प्रासंगिक हो गया है तो उन्होंने कहा, “भ्रष्टाचार अब कई गुना बढ़ गया है और ‘राग दरबारी’ कहीं पीछे छूट गया है”। जब उनसे पूछा गया कि वर्तमान में क्या नया राग दरबारी लिखने की जरूरत है तो उन्होंने कहा कि यथार्थ इतना विकराल हो गया है कि हर रचनात्मक परिक्लपना पीछे छूट जाने को अभिशप्त है।
ग्रामीण परिवेश और उससे जुड़े किरदारों के जीवन को व्यंग्य के माध्यम से जिस तरह चित्रित किया गया है वो अकल्पनीय है। राग-दरबारी राजनीतिक-सामाजिक मूल्यों के पाखंड की परतें खोलता है। छद्म नेताओं को बेनकाब करता है। कारोबारी, नेता, पुलिस और अपराधियों के बीच सांठ-गांठ में आम आदमी के बहुस्तरीय संबंधों की व्याख्या करने में ये व्यंग्य पूर्णतया सफल है।
रिश्वत से लेकर प्रशासन की लापरवाही तक में जनता का क्या हाल होता है इसमें सबका उल्लेख किया गया है। सालों से दीवानी अदालतों के चक्कर लगाता किरदार लंगड़ ‘घूस न देंगे न लेंगे’ के चक्कर में धर्मयुद्ध का हिस्सा बनता है और 7 सालों बाद भी जब काम नहीं होता तो समझ आता है कि “लंगड़, जानने की बात सिर्फ एक है कि तुम जनता हो और जनता इतनी आसानी से नहीं जीतती”।
बहरहाल, उपन्यास या व्यंग्य के विषय में श्रीलाल शुक्ल ने कई अवसरों पर जिक्र किया है कि उन्होंने जो कुछ देखा, जो महसूस किया वो ही लिखा है। वैसे राग-दरबारी अगर किसी ने पढ़ी न हो तो उसे पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि ग्रामीण परिवेश और प्रशासन पर कटाक्ष इतना सटीक और किसी पुस्तक में नजर नहीं आता है। गांव के लोगों में गंभीर विषयों में भी चुटकी लेने का मौका खोजने की आदत स्वाभाविक है और इसी स्वाभिवकता को इसमें सहजता से रोजमर्रा की परेशानियों के साथ दिखाया गया है।
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