सुमंत हाथ जोड़े खड़े थे। यह देख राम ने भी हाथ जोड़ लिए। राम प्रतीक्षा कर रहे थे कि सुमंत रथ पर चढ़कर विदा हो लें तो वे पैदल अपनी यात्रा जारी रखें। पर सुमंत थे कि जैसे सब भूल बस राम-सीता और लक्ष्मण को देखे जा रहे थे। भक्त अपने भगवन को साक्षात देख कैसे मुख फेर कर चला जाये, और भगवान भी कैसे अपने हठीले भक्त से मुँह फेर लें।
पर अंततः राम ही बोले, “तात, अब आप प्रस्थान करें। महाराज आपकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।”
“जैसी आज्ञा कुमार! परन्तु क्या आप, भैया लक्ष्मण और देवी सीता कोई अंतिम संदेश नहीं देना चाहते?”
“अंतिम संदेश जैसी क्या बात है तात! हम सदैव के लिए ही अयोध्या का त्याग तो कर नहीं रहे। अस्तु, आप पूज्य पिता को ढाँढस दीजिएगा। कहिएगा कि वे तो धर्मावतार हैं। ऐसे पुरुषों को अपने व्यक्तिगत सुख-दुख को न देख प्रजाहित में मग्न रहना चाहिए। उनके मात्र दो पुत्र ही तो वन में नहीं हैं! प्रजा राजा की संतान होती है। ये वनवासी भी उनके पुत्र हैं। जिनके साथ उनके दो पुत्र और आ मिले तो इसमें शोक की क्या बात है? पुरुजन भी उनके पुत्र हैं। कृपया सभी को अपना पुत्र मान, इस पुत्रशोक को मन से निकाल दें।”
“माता कौशल्या से कहिएगा कि वे पटरानी होने के अहम भाव को मन में न लाएं और माता कैकई के सम्मान में कोई कमी न करें। भैया भरत अब युवराज हैं, कल को राजा होंगें। राजा वय में छोटा हो तो भी उससे सम्मानजनक व्यवहार, राजोचित व्यवहार करना चाहिए।”
“भैया भरत से कहिएगा कि मेरा प्रेम सदैव उनके साथ है और मैं अपने युवराज और राजा भरत का अनुगामी हूँ। शत्रुघ्न को कहिएगा कि जैसे लक्ष्मण मेरे बल हैं, वे भरत के बल बनें।”
श्रीराम दरबार से ही सम्पूर्ण होती है अयोध्या
राम के चुप हो जाने पर सुमंत ने लक्ष्मण की ओर देखा। लक्ष्मण बोले, “हे तात, मुझे अयोध्यानरेश को कोई भी संदेश नहीं देना। वह अब नरेश कहलाने के योग्य नहीं रहे। जो राजा एक स्त्री के बहकावे में आकर प्रजा की इच्छा की अवहेलना करे, अपने व्यक्तिगत वचन को राष्ट्र से ऊपर मान दे, न्याय को बिसार कर अपनी इच्छा से राज्य किसी को भी दे दे, वह राजा कहलाने के योग्य नहीं है। यदि किसी को यह लगता है कि वनवास देकर वह मेरे बड़े भाई का अधिकार छीन सकता है और चौदह वर्षों में पर्याप्त शक्ति जुटाकर श्रीराम के अधिकार का हनन कर सकता है तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कौशल्यानन्दन के साथ सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़ा है। वह तो भ्राता ने मेरे हाथ रोक लिए, अन्यथा मैं अकेला ही सभी बाधाओं को पार कर अपने हाथों श्रीराम को अयोध्यापति ही नहीं समस्त भूमिपति बनाने की सामर्थ्य रखता हूँ। मेरे बड़े भाई के साथ …”। लक्ष्मण अभी न जाने क्या-क्या बोलने वाले थे, पर उनका गला रुध गया था। यह देख श्रीराम ने उनके कंधे पर हाथ रख उन्हें सांत्वना दी और नेत्रों से ही शांत रह जाने का आदेश सुनाया।
सुमंत जब सीता की ओर मुड़े तो सीता कुछ बोल नहीं पाई। पति के भाग्य और देवर के दुख से दुखी बस अश्रु बहाती चुपचाप खड़ी रही। सुमंत ने अंतिम प्रणाम किया और रथ की वल्गा खींच विदा लेकर पीछे लौट चले।
उधर श्रीराम अपनी भार्या और भाई के साथ एक दिन मुनि भारद्वाज के आश्रम में बिताकर चित्रकूट की ओर बढ़े।
मार्ग में यमुना नदी को देख दोनों भाइयों ने जंगल से सूखे काठ जमाकर एक बेड़ा बनाया और नदी में उतार दिया। पहले राम चढ़े और सीता की ओर हाथ बढ़ाया। सीता लजाती हुई अपने पति का हाथ थाम नाव पर चढ़ गई। नदी में घुटनों तक उतर लक्ष्मण ने नाव को धक्का दिया और उचककर चढ़ गए। इस प्रक्रिया में नदी के जल की बौछार राम और सीता के ऊपर आ पड़ी। यह देख लक्ष्मण की जीभ दांतों तले आ गई और यकायक पानी से गीले हो चुके पति-पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़े। गम्भीरता, दुख, क्षोभ पल भर में हवा हो गए।
सीता ने यमुना को प्रणाम किया और सकुशल पार उतार देने की प्रार्थना की। नदी पार कर आगे बढ़े तो भरद्वाज मुनि के निर्देशानुसार सामने खड़े विशाल पीपल के पेड़ को प्रणाम कर कुछ आगे बढ़ वहीं नदी तट पर रात्रिविश्राम किया।
तुम मम प्रिय भरत सम भाई: श्रीराम वचन निभाते ही हैं
सुबह राम ने उठकर लक्ष्मण को उठाया और फिर स्नान-ध्यान पश्चात तीनों वन में प्रवेश कर गए। लक्ष्मण और सीता को आगे कर धनुष पर बाण रख श्रीराम चले। दोनों भाई तो पहले भी वन आ चुके थे, वन के सौंदर्य से परिचित थे। परन्तु राजरानी सीता का यह प्रथम ही अवसर था। राजमहलों की मर्यादा के विपरीत यहाँ सब कितना खुला, कितना उन्मुक्त था। विचित्र लताएं, विचित्र पुष्प। सीता हाथ दिखाकर संकेत करती। लक्ष्मण उसे तोड़कर उनके हाथों में रख देते। फिर सीता बच्चों जैसी उत्सुकता से उस लता अथवा पुष्प को अपने पति को दिखाती, और वे उस लता-पुष्प का विवरण सुनाते।
अहिंसक वन्यपशुओं की क्रीड़ाएं देख सीता मोहित हो उठती और यदि कोई हिंसक पशु आक्रमण की अवस्था में दिख जाता तो उसे सीता तक पहुंचने से पहले ही लक्ष्मण के खड्ग या राम के बाण का भोग बनना पड़ता।
चलते-चलते चित्रकूट आ गया। पर्वत पर वनस्पति और शाकाहारी वन्यजीवों की भरमार देख तीनों के मन प्रसन्न हो उठे। राम ने लक्ष्मण को दिखाते हुए कहा, “देखो भाई, उधर देखो। पेड़ों पर बेल और बेर कैसे फले हैं। कितनी उर्वरा भूमि है कि पग की ठोकर से कंदमूल भूमि से बाहर आ रहे हैं। निकट ही जलस्रोत भी है। हिंसक वन्यपशु कम दिखते हैं। कैसा हो कि हम यहीं कुटी बना लें?”
राम के प्रश्न को ही आज्ञा मान लक्ष्मण झटपट स्थान साफ कर लकड़ी प्राप्त करने वन में घुस गए और प्रहर भर में ही साफ-सुथरी कुटी का निर्माण हो गया। तीनों ने एक साथ कुटी में प्रवेश किया।
संध्या समय जब लक्ष्मण भोजन पकाने में सीता की सहायता कर, नदी में पैर डाले मंद-मंद मुस्कुराते अपने बड़े भाई के पास आ बैठे तो श्रीराम बोले, “तो लक्ष्मण! क्या तुम्हें अब भी अयोध्या के वो महल, वो राजसिंहासन इत्यादि स्मरण हैं? क्या तुम अभी भी मुझे राजा बनाने के हठ पर टिके हुए हो? क्या तुम हमारे पिता और माता कैकई को क्षमा नहीं करोगे? “
लक्ष्मण अपने भाई के पैरों में अठखेलियाँ करती मछलियों को देखते हुए बोले, “भैया, आपका कर्तव्य है राजा बनना। आज नहीं कल, राजा तो आप ही होंगे। रही मेरी बात, तो मेरा कर्तव्य आपकी सेवा है। नगर हो या वन, इहलोक हो या परलोक, मैं सदा ही आपका सेवक हूँ। मैं जानता हूँ कि आप पिता और माता कैकई से कितना प्रेम करते हैं। परन्तु मेरा निश्चित मत जान लें। मुझे इससे अंतर नहीं पड़ता कि आप किससे प्रेम करते हैं, अपितु मेरे मन में उसके प्रति अधिक सम्मान है जो आपको प्रेम करता है। मेरा धर्म आप हैं, मात्र आप। आपके लिए जो स्वयं को, प्राण को, वचन को, स्वार्थ को त्याग दे, वह मुझे प्रिय है, अन्य कोई नहीं।”
राम मुस्कुरा उठे और भोजन हेतु सीता की पुकार सुन लक्ष्मण को साथ लेकर भोजन करने बैठे। सोने-चांदी की थाल के स्थान पर पत्तल पर खाना परोसते हुए सीता की आंखों में अश्रु थे, और विचित्र दिख रहे भोजन को देख लक्ष्मण खिलखिलाकर हँस पड़े।