दक्षिणपूर्व एशिया के ज्यादातर देशों की संस्कृति अपने मूल में “हिन्दू” रही है, जहाँ का इतिहास “धर्म” के अक्षरों से लिखा हुआ है। उसमें भारत, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, म्यांमार, लाओस, थाईलैंड, कम्बोडिया, वियतनाम से लेकर मलेशिया, इंडोनेशिया, और पाकिस्तान, अफगानिस्तान तक शामिल होते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया की सांस्कृतिक चेतना आज भी पूरी तरह सोई नहीं है। इस भारतीय उपमहाद्वीप व्यापी सांस्कृतिक एकात्मता की एक सामूहिक पहचान है:-
“श्राद्ध”
श्राद्ध हिन्दू और बौद्ध दोनों धाराओं का एक अमिट अंग है। हम हिन्दू और बौद्ध दोनों को “धर्म” शब्द से भी संबोधित करते हैं। इन सभी देशों और जहाँ तक धर्म का प्रभाव रहा वहाँ आज तक पूर्वजों की प्रसन्नता और तृप्ति के लिए लगभग समान विधियों से श्राद्ध किया जाता है, जिसमें खासकर दक्षिण पूर्व एशियाई सभी देशों में आज भी ये परंपरा अपने पूर्ण जीवंत रूप में दिखाई देती है।
भारत में श्राद्ध
भारत में अपने पूर्वजों की प्रसन्नता के लिए हिन्दू कैलेंडर के सातवें महीने अश्विन के कृष्णपक्ष में पितृपक्ष मनाया जाता है, जिसे ‘कनागत’ भी कहते हैं, क्योंकि इस समय सूर्य कन्या राशि में आ जाता है। इस साल पितृपक्ष 10 सितंबर से 25 सितंबर तक मनाया जाएगा। इस दौरान हिन्दू अपने पूर्वजों के लिए गया, वाराणसी, हरिद्वार, रामेश्वरम जैसी पवित्र जगहों और अपने शहरों में श्राद्ध और तर्पण करते हैं।
इसके अलावा इस समय अपने पूर्वजों की मृत्युतिथि पर ब्राह्मण भोजन, गायों को चारा और अन्य दान किए जाते हैं, व सभी शुभकार्य बंद रहते हैं। श्राद्ध का अर्थ अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा से है और हिन्दू ग्रन्थों में इसके लिए वेदों, पुराणों और सभी ग्रन्थों में कई विधियाँ बताई गई हैं।
कम्बोडिया-लाओस में श्राद्ध
कम्बोडिया में पितृपर्व या पिक्म बेन नाम का पर्व सितम्बर अक्तूबर में पड़ता है और इसके लिए तीन दिन की छुट्टी होती है। पूर्वजों की पूजा का यह पर्व कम्बोडिया में इस साल 24 से 26 सितंबर तक मनाया जाएगा। भारत में भी 25 को महालया या सर्वपितृ अमावस्या होगी जिस दिन सभी पितरों का श्राद्ध किया जाता है।
कम्बोडिया में मान्यता है कि राजा यम 15 दिन तक प्रेतों के लिए यम का द्वार खोल देते हैं, उनमें कुछ मुक्त हो जाते हैं कुछ वापिस पितृलोक आ जाते हैं। कम्बोडिया के सभी लोग इस दौरान भारत की ही तरह अपने सात पीढ़ियों तक के पितरों की तृप्ति के लिए बौद्ध भिक्षु पाली के सुत्तों के अखण्डपाठ करते हैं। कम्बोडियाई लोग बौद्ध भिक्षुओं को भोज कराते हैं और चावल के पिण्डों का दान करते हैं।
ताइवान और चीन में श्राद्ध
चीनी कैलेंडर के सातवें महीने के 15 दिन पितरों के माने जाते हैं जब सारे पूर्वज नर्क या स्वर्ग से धरती पर आते हैं। 15वां अंतिम दिन ‘घोस्ट डे‘, ‘झोंग्युआन’ या ‘युलनपेन’ के रूप में मनाया जाता है। उस दिन लोग अपने घरों के सामने अगरबत्ती जलाते हैं और नदियों में दीपक प्रवाहित करते हैं ताकि पितरों को विदा कर सकें। चीन के बौद्ध और ताओ अपने पूर्वजों के लिए कुर्सियां खाली छोडकर शाकाहारी भोजन निवेदित करते हैं। ईसापूर्व 1500 के शांग साम्राज्य से ही यह परंपरा चीन में चली आ रही है। लोग अपने 7 पीढ़ी तक के पूर्वजों का स्मरण करते हैं और बौद्ध भिक्षुओं को चावल भेंट करते हैं।
प्राचीन शांग वंश के समय से ही सम्राट को देवपुत्र माना जाता था। वह वर्ष में एक बार दैवीय वस्त्र पहनकर पृथ्वी व आकाश के देवताओं को बलि अर्पित करता था। प्राचीन चीन के हर घर में पितरों के लिए एक स्थान बनाकर उनकी धूप, दीप से पूजा और तर्पण किया जाता था। पूर्वजों की स्मृति में गायन, नृत्य, भोजन आयोजित किया जाता था। चीनी मान्यता है कि मृत्यु के बाद दिव्य आत्माएं वायुमंडल से अपनी सन्तानों की संकट के समय सहायता करती हैं, और असंतुष्ट आत्माएं प्रेत बनकर कष्ट देती हैं।
प्राचीन काल में भारत और चीन का कैलेंडर सूर्य-चन्द्र आधारित होने से एक जैसा था पर 20वीं सदी के चीन में कम्युनिस्ट शासन ने पारंपरिक कैलेंडर को बदल दिया और सभी चीनी त्योहार अस्त-व्यस्त हो गए, इस कारण 2022 में चीन में श्राद्ध 12 अगस्त को श्रावण पूर्णिमा के दिन किया गया था।
सिंगापुर, इंडोनेशिया, मलेशिया में भी श्राद्ध
यहाँ भी श्राद्ध घोस्ट फेस्टिवल या युलनपेन के रूप में साल के सातवें महीने में मनाया जाता है और लोग बौद्ध मन्दिरों में जाकर पितरों के लिए दान व प्रार्थनाएं आयोजित करते हैं। ज्यादातर प्रथाएँ चीन की तरह होती हैं। ताईवान में ‘घोस्ट मन्थ’ के दौरान भारत के पितृपक्ष की तरह कोई भी नया व शुभ काम नहीं किया जाता।
जापान में श्राद्ध – ‘चुगेन’ या ‘बॉन पर्व’
जापान में साल के सातवें महीने के पन्द्रहवें दिन चुगेन नाम का पर्व मनाया जाता है जिस दिन जापानी लोग पितरों को उपहार अर्पित करते थे परन्तु अब इस दिन लोग सभी वरिष्ठों को उपहार देते हैं। कुछ जापानी समुदाय बॉन पर्व मनाते हैं जिस दिन लोग अपने पितरों के निवास पर जाकर श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।
वियतनाम में श्राद्ध – ‘तेतत्रुंगन्गुयेन’
वियतनाम में ‘तेतत्रुंग न्गुयेन‘ नाम के इस पर्व पर लोग पूर्वजों की खुशी के लिए पक्षियों, मछलियों और गरीबों को भोजन कराते हैं। वे पितरों के सम्मान में अलग से भोजन निकालते हैं।
श्रीलंका और म्यांमार में श्राद्ध
श्रीलंका में पितृपक्ष मटकादान्य (matakadānaya) नाम से मनाया जाता है और श्राद्ध तर्पण को ‘उल्लंबन’ या सेगाकी कहते हैं जिसमें चावल के पिण्ड और जल प्रेत आत्माओं के लिए अर्पित करते हैं। बाकि परंपरा कम्बोडिया जैसे होती है। म्यांमार में भी बौद्धभिक्षुओं को पूर्वजों के निमित्त दान दिया जाता है।
महायान बौद्ध ग्रन्थ के उल्लंबन सूत्र के अनुसार मुद्गलयायन को बुद्ध ने उपदेश दिया था कि वर्षा ऋतु के अंत में तुम अपने 7 पीढ़ी तक के पूर्वजों को तरह तरह के भोजन, पांच तरह के फल, दीपक और अच्छी अच्छी चीजें देकर तृप्त कर सकते हो, इसलिए चावल के पिंड देकर तुम अपनी माँ को प्रेतयोनि से मुक्त करो।
थाईलैंड में श्राद्ध पर्व – ‘सतथाई‘
थाईलैंड में भी कम्बोडिया की तरह पितृपक्ष मनाया जाता है और अंतिम दिन सतथाई नाम से जाना जाता है जिसके अगले दिन से 9 दिवसीय शरद पर्व आता है। इसमें नवरात्र की तरह पूर्ण शाकाहारी रहना होता है। इस साल थाईलैंड में सतथाई 25 सितंबर को मनाया जाएगा।
जैसे हमारे यहाँ साल के सातवें महीने अश्विन में पितृपक्ष पड़ता है वैसे ही इन अधिकांश देशों में पितृपक्ष या पूर्वजों से सम्बन्धित पर्व साल के सातवें महीने में पड़ते हैं। सभी जगह पितृपर्व सम्बन्धी ज्यादातर मान्यताएं और परम्पराएं भी लगभग समान हैं। इन देशों में अन्य पर्व भी हिन्दू त्यौहारों से समानता रखते हैं।
हिन्दू धर्म में श्राद्ध का महान रूप
हिन्दू धर्म में केवल अपने मृत माता पिता, दादा दादी और परिवार जन ही नहीं बल्कि श्राद्ध में पूरी सृष्टि के हर अंग के प्रति श्रद्धा जताई जाती है, क्योंकि किसी न किसी जन्म में हमारा उनसे सम्बन्ध रहा होगा। हिन्दू मान्यता है कि हमारे अनेक जन्मों में हमारे अनेक पूर्वज हुए हैं जो आज किसी भी लोक में और किसी भी योनि में हो सकते हैं, इसलिए उन सबके प्रति सम्मान जताने के लिए भगवान से लेकर घास तक का तर्पण किया जाता है। कहा गया है :-
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गंधर्वराक्षसाः। पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः कूष्माण्डास्तरवः खगाः॥
जलेचरा भूनिलया वाय्वाधाराश्च जन्तवः। प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः। तेषामाप्यायनायैतद् दीयते सलिलं मया॥
ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः। ते तृप्तिमखिला यान्तु यश्चास्मत्तोऽभिवांछति।
ये मे कुले लुप्तपिण्डा पुत्रदारविवर्जिताः। तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकम्॥
आब्रह्मस्तम्बपयर्न्तं देवषिर्पितृमानवाः। तृप्यन्तु पितरः सवेर् मातृमातामहादयः॥
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मभुवनाल्लोकाद् इदमस्तु तिलोदकम्।
अर्थात् मेरे द्वारा दिए जा रहे इस जल से देव, असुर, यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्यक, कूष्माण्ड, पक्षी, जल के प्राणी, भूमि के प्राणी, वायु के प्राणी, ये सभी प्रसन्न हों। जो पितर नरक में यातना पा रहे हैं उन सबकी तृप्ति के लिए मैं जल दे रहा हूँ। इस जल से मेरे इस जन्म और अन्य जन्मों के जल की कामना वाले सभी बन्धु बांधव व जो बन्धु नहीं हैं वह भी तृप्त हों। मेरे कुल के वो लोग जिनके पुत्र और पत्नी जल देने के लिए नहीं हैं, उन्हें भी तिल मिश्रित जल दे रहा हूँ।
ब्रह्म से लेकर घास तक देवता, ऋषि, पितर, मानव और माता व मातामह तक सब तृप्त हों। मेरे अतीत के करोड़ों कुलों में हुए सारे पितर जो सात द्वीपों और भूलोक से लेकर ब्रह्मलोक तक निवास कर रहे हैं वह सभी इस तिल मिश्रित जल से प्रसन्न हों। मैं शांतनुपुत्र सत्यवादी भीष्म को जल देता हूँ और विवस्वान सूर्य को भी जल देता हूँ।
इतनी बड़ी दृष्टि लेकर हिन्दू धर्म चला है, जो संसार के हर जीव-जन्तु व हर वस्तु के लिए श्राद्ध और तर्पण के माध्यम से अपना सम्मान व्यक्त करता है। यही हिन्दू धर्म को सबसे अलग और विराट बनाता है।